नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह प्रबंधन द्वारा नदी जल का इष्टतम उपयोग

न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह तथा विकास के बीच संतुलन आवश्यक है। Pc-जल चेतना
न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह तथा विकास के बीच संतुलन आवश्यक है। Pc-जल चेतना

स्वच्छ जल हमारी दैनिक मूलभूत आवश्यकता है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, उदाहरणतः घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उत्पादन, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास एवं अन्य सामान्य अनुप्रयोग हेतु जल एक अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भारतवर्ष में उपलब्ध जल हमें मुख्यतः वर्षा एवं हिमपात से वर्षा ऋतु के चार महीनों, जून से सितंबर के मध्य प्राप्त होता है। देश में प्राप्त होने बाली वर्षा के स्थानिक एवं कालिक रूप से परिवर्तनीय होने के कारण देश के विभिन्न भागों में प्राप्त वर्षा की मात्रा भिन्न-भिन्न पाई जाती है।

वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में जल के इष्टतम उपयोग में जल प्रबंधन की भूमिका महत्वपूर्ण । सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। वर्ष के शेष महीनों में नदी में जल की उपलब्ध मात्रा में सामान्यतः कमी पाई जाती है। नदियों में न्यूनतम प्रवाह के महीनों में जल की कमी का प्रभाव नदी के पारिस्थितिक तंत्र के विकास पर पड़ता है। नदियों का पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ने वाला कुप्रभाव क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। जैसा कि सर्वविदित है कि किसी क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली नदियों में न्यूनतम जल उपलब्धता पूरे वर्ष बनी रहे। जिसका प्रभाव क्षेत्र में निवास करने वाले जलजीवों, वनों, वनस्पतियों पर पड़ता है। इसके अतिरिक्त नदियों से अनियंत्रित जल निकासी में वृद्धि नदियों के पारिस्थितिक तंत्र के लिए हानिकारक है।

जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। स्वच्छ जल संसाधनों की अनुपलब्धता एवं जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप जल की बढ़ती मांग के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को जल की कमी की समस्या का सामना करना पड़ता है। देश में जल की कमी को पूर्ण करने के लिए यह आवश्यक है कि उपलब्ध जल का उपयुक्त प्रबंधन किया जाये। इसके लिए देश में जल संसाधनों के उपयुक्त विकास एवं प्रबंधन के लिए समन्वित योजना की आवश्यकता है। वर्तमान में भारतवर्ष की कुल जनसंख्या लगभग 130 करोड़ है, जिसकी बढ़ती जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार वर्ष 2050 तक 164 करोड़ तक पहुँच जाना संभावित है। परिणामतः देश में प्रति व्यक्ति स्वच्छ जल की उपलब्धता वर्ष 2001 में 1820 घन मीटर/ वर्ष की तुलना में 2050 में प्रति व्यक्ति 1140 घन मीटर/ वर्ष तक पहुँच जाना संभावित है। जबकि वर्ष 2050 तक विभिन्न गतिविधियों हेतु कुल जल आवश्यकता लगभग 1450 घन मीटर/ वर्ष होगी। जल की यह आवश्यकता वर्तमान में उपलब्ध उपयोगी जल संसाधनों ( 1120 घन मीटर / वर्ष) की तुलना में बहुत अधिक है।

'जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। स्वच्छ जल संसाधनों की अनुपलब्धता एवं जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप जल की बढ़ती मांग के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को जल की कमी की समस्या का सामना करना पड़ता है। देश में जल की कमी को पूर्ण करने के लिए यह आवश्यक है कि उपलब्ध जल का उपयुक्त प्रबंधन किया जाये। इसके लिए देश में जल संसाधनों के उपयुक्त विकास एवं प्रबंधन के लिए समन्वित योजना की आवश्यकता है। वर्तमान में भारतवर्ष की कुल जनसंख्या लगभग 130 करोड़ है, जिसका बढ़ती जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार वर्ष 2050 तक 164 करोड़ तक पहुँच जाना संभावित है। परिणामत: देश में प्रति व्यक्ति स्वच्छ जल की उपलब्धता वर्ष 2001 में 1820 घन मीटर / वर्ष की तुलना में 2050 में प्रति व्यक्ति 1140 घन मीटर / वर्ष तक पहुँच जाना संभावित है। जबकि वर्ष 2050 तक विभिन्न गतिविधियों हेतु कुल जल आवश्यकता लगभग 1450 घन मीटर / वर्ष होगी। जल की यह आवश्यकता वर्तमान में उपलब्ध उपयोगी जल संसाधनों (1120 घन मीटर / वर्ष) की तुलना में बहुत अधिक है।'

यद्यपि देश में जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होने के बावजूद पर्याप्त है, परंतु जल संसाधनों के उपयुक्त प्रबंधन के अभाव में देश के अधिकांश भागों में जनमानस को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जल की कमी का सामना करना पड़ता है। भारत में उपलब्ध जल संसाधनों को दो वर्गों (सतही जल संसाधन एवं भूमिगत जल संसाधन) में विभाजित किया जा सकता है। सतही जल, जलधाराओं, नदियों, झीलों, जलाशयों एवं तालाबों में पाया जाता है। देश में भूपृष्ठीय असमानता, जलवायु एवं मृदा के गुणों में असमानता आदि के कारण उपलब्ध सम्पूर्ण जलराशि का प्रयोग कर पाना संभव नहीं हो पाता है।

एक नदी खंड पर 50%, 75% एवं 90% विश्वसनीय प्रवाह का निर्धारण
एक नदी खंड पर 50%, 75% एवं 90% विश्वसनीय प्रवाह का निर्धारण,Pc-जल चेतना

नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह

नदी में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह के सिद्धान्त की संकल्पना वर्ष 1970 में की गई। ब्रिस्बेन के अनुसार पर्यावरणीय प्रवाह से तात्पर्य जल प्रवाह की उस न्यूनतम मात्रा, समयावधि, बारंबारता एवं जल गुणवता से है जो किसी नदी के पारिस्थितिक तंत्र के अनुरक्षण, नदी जल प्रवाह के नियमन एवं उससे होने वाले जल उपयोगों के लिए आवश्यक है। किसी नदी का पर्यावरणीय प्रवाह नदी के संवर्धन एवं संरक्षण, आर्थिक विकास एवं गरीबी उन्मूलन के लिए आवश्यक होता है। पर्यावरणीय प्रवाह नदी एवं भूजल तंत्र के संरक्षण द्वारा समाज के लिए लाभप्रद सिद्ध होता है। नदी में पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण नदियों में जलीय जीवों की उपलब्धता, जन मानस की आवश्यकता एवं जल गुणवत्ता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाना चाहिए। विभिन्न अनुसंधान अध्ययन दर्शाते हैं कि नदी पारिस्थितिक तंत्र की दृष्टि से नदी जल प्रवाह में न्यूनतम, मध्यम एवं उच्च जल प्रवाह का अलग-अलग महत्व है। उच्च जल प्रवाह नदियों की सफाई (flushing ) एवं बाढ़ मैदान की संबद्धता बनाए रखने में महत्वपूर्ण है वही नदी में मध्यम प्रवाह मत्स्य उत्पादकता एवं मत्स्य प्रवासन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है। नदियों में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह नदी की सततता  एवं जल गुणवत्ता को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है।

नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह को अविरल स्वच्छ जल के लिए प्रवाह की मात्रा, समय, अवधि, एवं गुणवत्ता के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। पर्यावरणीय प्रवाह की मात्रा नदी में जलीय पारिस्थितिक तंत्र एवं सामाजिक आवश्यकताओं के विकास पर निर्भर करती है। वर्तमान में नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह एक चुनौतीपूर्ण विषय है क्योंकि अधिकांश वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि बड़े संचयन बांध नदियों के पारिस्थितिक तंत्र पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। बांधों के निर्माण के अतिरिक्त आवाह क्षेत्र में होने वाले अन्य परिवर्तन जैसे जनसंख्या वृद्धि, नदी जल की अत्यधिक निकासी भी पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करते है। इसके अतिरिक्त नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह को प्रभावित करने वाले कारकों में तापमान, जल गुणवत्ता, गंदलापन आदि प्रमुख हैं। अनुपचारित घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट का नदी में वहिप्रवाह एवं कृषि क्षेत्रों में उपयोग किए गए उर्वरकों से मिश्रित जल के नदी में प्रवाह से भी नदी पारिस्थितिक तंत्र को हानि पहुँचती है।

अतः यह आवश्यक है कि नदी में स्वच्छ पर्यावरणीय जल प्रवाह की एक निश्चित मात्रा हमेशा उपलब्ध रहे। नदी में पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण नदियों में जलीय जीवों की उपलब्धता, जन मानस की आवश्यकता एवं नदी जल की गुणवत्ता संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जलीय जीवों की उपलब्धता, जन मानस की आवश्यकता एवं जल गुणवत्ता के साथ-साथ जल विद्युत परियोजनाओं लिए जल की आवश्यकता के मध्य संतुलन बना रहे। पर्यावरणीय प्रवाह के निर्धारण के संबंध में विभिन्न वैज्ञानिकों में परस्पर मतभेद पाए गए हैं।

नदी खंड में 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण

नदी खंड में 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण
नदी खंड में 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण,Pc-जल चेतना

 

नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह तकनीकें

पर्यावरणीय जल प्रवाह के निर्धारण के लिए वैज्ञानिकों द्वारा अनेक तकनीकें विकसित की गई हैं। जिन्हें मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया गया है।

(i) जलविज्ञानीय सूचकांक पद्धति (Hydrological Index. method),
(ii) जलीय रेटिंग पद्धति (Hydraulic Rating Method),  
(iii) जलीय जन्तु अनुकरणीय पद्धति (Habitat Simulation ), एवं
Methods 
(iv) समग्रतात्मक पद्धति (Holistic Methodology)

पर्यावरणीय जल प्रवाह के निर्धारण के लिए विभिन्न वैज्ञानिकों / संस्थानों द्वारा विकसित की गई तकनीकों को निम्न सारणी में दर्शाया गया है। प्रस्तुत लेख में पर्यावरणीय प्रवाह के निर्धारण के लिए प्रवाह अवधि वक्र (Flow duration curve) पद्धति का उपयोग किया गया है। यह पद्धति जलविज्ञानीय सूचकांक पद्धति के अंतर्गत वर्गीकृत की जा सकती है। यह पद्धति नदी में निम्न प्रवाह से लेकर उच्च प्रवाह तक प्रत्येक स्थिति में उपयोग की जाने वाली एक महत्वपूर्ण जलविज्ञानीय सूचकांक पद्धति हैं। इस पद्धति में सरिता प्रवाह निस्सरण मानों ( Discharge) एवं सरिता प्रवाह निस्सरण मानों की प्रायिकता (Probability of exceedence) मध्य संबंध स्थापित किया जाता है। प्रवाह अवधि वक्र को निर्मित करने के लिए नदी प्रवाह को वास्तविक प्रवाह ईकाइयों जैसे माध्य दैनिक प्रवाह के अनुपात के रूप में व्यक्त किया जाता है।  

प्रवाह अवधि वक्र को तैयार करने के लिए नदी प्रवाह आंकड़ों को विभिन्न समय अंतराल जैसे दैनिक, 10 दिवसीय या मासिक रूप में प्रयोग करते हैं। इन आंकड़ों की सहायता से नदी में 50%, 75% एवं 90% विश्वसनीय प्रवाह (dependable flow) को ज्ञात किया जाता है। तत्पश्चात 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर नदी में न्यूनतम प्रवाह की मात्रा इस प्रकार ज्ञात की जाती है कि नदी में उपलब्ध जलीय जीवों का जीवन तथा नदी का पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित न हो।

नीचे दिये गये चित्र में हिमालय से प्रवाहित होने वाली गंगा नदी के एक खंड में 50% 75% एवं 90% विश्वसनीय प्रवाह का निर्धारण दर्शाया गया है। 

प्रवाह अवधि वक्र की सहायता से पर्यावरणीय प्रवाह का आंकलन

सामान्यतः नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह का आंकलन नदियों में उपलब्ध 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर किया जाता है। 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर नदी में न्यूनतम प्रवाह की मात्रा इस प्रकार ज्ञात की जाती है. कि नदी में उपलब्ध जलीय जीवों का जीवन तथा नदी का पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित न हो। नदी में न्यूनतम प्रवाह ज्ञात करने के लिए विभिन्न राज्यों एवं केंद्र सरकार द्वारा अलग-अलग मानक तैयार किए गए हैं। इस संबंध में लघु जल विद्युत परियोजनाओं, पर्यावरण मंत्रालय, जल क्षेत्र के विशेषज्ञों में परस्पर मतभेद पाए जाते हैं। जहां एक ओर पर्यावरण मंत्रालय नदी में अधिक प्रवाह का पक्षधर है वहीं दूसरी ओर लघु जल विद्युत परियोजनाओं के प्रचालक एवं उनसे संबन्धित विशेषज्ञ नदी में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह की वकालत करते हैं।

राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल द्वारा नदियों में न्यूनतम प्रवाह निर्धारण

हिमाचल प्रदेश सरकार ने जहां एक ओर नदी में 90% विश्वसनीय प्रवाह के 15% के बराबर पर्यावरणीय प्रवाह के मानक सुनिश्चित किए हैं वहीं वर्तमान में राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल के आदेशों के अनुसार यह सुनिश्चित किया गया है। कि नदियों में न्यूनतम प्रवाह की मात्रा 15% -20% से कम नहीं होनी चाहिए। साथ ही साथ नदियों में उपलब्ध पर्यावरणीय प्रवाह की न्यूनतम उपलब्धता नदी में उपलब्ध जलीय जीवन के लिए आवश्यक जल की मात्रा से कम नहीं होनी चाहिए। 

भारत सरकार द्वारा गंगा नदी के लिए न्यूनतम प्रवाह निर्धारणकी अधिसूचना  

भारत सरकार के राजपत्र में अक्तूबर 2018 में प्रकाशित सूचना के अनुसार यह सुनिश्चित किया जाना निश्चित किया गया है कि गंगा नदी के हिमालय क्षेत्रों के लिए नदियों में उपलब्ध पर्यावरणीय प्रवाह की पर्वतीय क्षेत्रों में न्यूनतम मात्रा शुष्क ऋतु (नवम्बर से मार्च) में औसत मासिक प्रवाह का 20%, क्षीण ऋतु (अक्टूबर, अप्रैल एवं मई) में औसत मासिक प्रवाह का 25% एवं मानसून ऋतु (जून से सितंबर) में औसत मासिक प्रवाह का 30% से कम नहीं होनी चाहिए।

इसके अतिरिक्त हरिद्वार के अनुप्रवाह के गंगा नदी के मैदानी क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रवाह की न्यूनतम मात्रा अक्टूबर से मई माह के दौरान 24 क्यूसेक तथा जून से सितम्बर माह के दौरान 48 क्यूसेक निर्धारित की गई है। उपरोक्त चित्र में नदी खंड में 90% विश्वसनीय प्रवाह के आधार पर पर्यावरणीय प्रवाह का निर्धारण दर्शाया गया है। 

भारतवर्ष में पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के क्षेत्र में चुनौतियां

भारतवर्ष को पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के क्षेत्र में अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिनका वर्णन निम्न खंडों में किया गया है। 

1. पर्याप्त आंकड़ों की अनुपलब्धता

पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के लिए नदी खंडों पर आवश्यक समयावधि के लिए आवश्यक आंकड़े सदैव उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। इसके अतिरिक्त जीवविज्ञानीय एवं सामाजिक एवं आर्थिक आंकड़ों की उपलब्धता एक कठिन कार्य है। पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के लिए प्रयोग की जाने वाली समस्त तकनीकों में वृहत्त मात्रा में आंकड़ों की उपलब्धता आवश्यक है। अतः यह आवश्यक है कि आंकड़ों की।  उपलब्धता हेतु आवश्यक प्रयत्न किए जाएं साथ ही ऐसी पद्धतियों को विकसित किए जाने की भी आवश्यकता है जिनका प्रयोग भारतीय परिस्थितियों में उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर संभव हो सके।

'विकासशील देशों में पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के लिए प्राकृतिक संसाधनों के निर्धारण एवं उपयुक्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है। परन्तु प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता में कमी पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के निर्धारण एवं कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं में प्रमुख है। अत: यह आवश्यक है कि पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के लिए संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि की जाए।'

2. जलविज्ञानीय एवं पारिस्थितिक तंत्र के सम्बन्धों की पर्याप्त जानकारी

नदी पारिस्थितिक तंत्र, नदी में होने वाले परिवर्तनों पर आधारित होता है। परंतु इसके पारस्परिक संबंध की पर्याप्त जानकारी की अनुपलब्धता के कारण पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

 3. संसाधनों की कमी

विकासशील देशों में पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के लिए प्राकृतिक संसाधनों के निर्धारण एवं उपयुक्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है । परन्तु प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता में कमी पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के निर्धारण एवं कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं में प्रमुख है। अतः यह आवश्यक है कि पर्यावरणीय प्रवाह के उपयुक्त आंकलन के लिए संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि की जाए।  

4. नदी जल गुणवत्ता एवं बढ़ता जल प्रदूषण

देश में उपलब्ध अधिकांश नदियों में घरेलू, औद्योगिक, कृषि एवं सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों से जनित प्रदूषित जल अवशेषों को प्रवाहित किए जाने के कारण नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो गई हैं। जो कि नदियों के पारिस्थितिक तंत्र के लिए हानिकारक है। अतः यह आवश्यक है कि नदियों के पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा के लिए इन नदियों की जल गुणवत्ता में सुधार किया जाए।

'किसी क्षेत्र के लिए जल संसाधन परियोजनाओं का विकास जल नियंत्रण एवं जल गुणवत्ता के लिए तैयार की जाने वाली योजनाओं, उनके परिकल्पन एवं निर्माण पर निर्भर करता है। सामान्यत: नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष रहती है। अत: यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल को एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाये, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हो ।'

5. विज्ञानीय एवं स्वीकार्य पर्यावरणीय प्रवाह का आंकलन 

नदियों के पारिस्थितिक तंत्र के लिए आंकलित पर्यावरणीय प्रवाह का सामान्यतः जल विद्युत परियोजना अधिकारियों द्वारा विरोध किया जाता है क्योंकि पर्याप्त पर्यावरणीय प्रवाह के कारण शुष्क अवधि जल विद्युत परियोजनाओं के लिए जल की उपलब्धता में कमी पाई जाती है। जिसका प्रभाव जल विद्युत उत्पादन पर पड़ता है।
उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में उपलब्ध जल संसाधनों का उपयुक्त विकास अत्यंत आवश्यक है। किसी क्षेत्र के लिए जल संसाधन परियोजनाओं का विकास जल नियंत्रण एवं जल गुणवत्ता के लिए तैयार की जाने वाली योजनाओं, उनके परिकल्पन एवं निर्माण पर निर्भर करता है।

सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष रहती है। अतः यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल को एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाये, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हो। संचयन परियोजनाओं का निर्माण, एवं नदियों का अंतर्योजन देश में अविरल जल संसाधन प्रबंधन के लिए नितांत आवश्यक है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता कि जल संसाधन विकास देश के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगिक विकास के कारण देश में घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उपलब्धता आदि के कारण जल की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। यद्यपि हमारे देश में उपलब्ध जल संसाधन पर्याप्त हैं, परंतु उनका पूर्णतः उपयोग करने में हम सक्षम नहीं हैं। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबन्धन किया जाए। बढ़ती जनसंख्या एवं जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग न होने के कारण इस क्षेत्र में देश को जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही साथ यह आवश्यक है कि पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों को दूर करने के प्रयास किए जाएं। इन चुनौतियों को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के लिए आवश्यक आंकड़ों की उपलब्धता को सुदृढ़ किया जाए तथा आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता एवं नदी जल की गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जाए। पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन के लिए यह ध्यान देने योग्य विषय है कि पर्यावरणीय प्रवाह आंकलन इस प्रकार किया जाए जिससे नदी के पारिस्थितिक तंत्र को सुरक्षित रखने के साथ-साथ जल विद्युत परियोजनाओं के लिए जल की उपलब्धता को भी सुनिश्चित किया जा सके। यदि उपलब्ध जल संसाधनों के इष्टतम प्रबन्धन करने के प्रयत्न संभव नहीं हुए तो जल के क्षेत्र में भयंकर चुनौती सामने आ सकती है। 

अतः जल संसाधन प्रबन्धन के क्षेत्र में जल के प्रति लोगों में जागरूकता होना भी आवश्यक है। सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ जन मानस को जल की प्रत्येक बूंद के इष्टतम उपयोग के लिए प्रयास करने होंगे। अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए जल संकट से उत्पन्न त्रासदी के लिए जिम्मेवार होंगे।

संपर्क करें;- पुष्पेन्द्र कुमार अग्रवाल राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रुड़की ।  

स्त्रोत- जल चेतना खण्ड 8 अंक 1 जनवरी 2019.  


 

 

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Post By: Shivendra
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