द्वीप, नौका, नदी, सागर और हमारी
रुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह
समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी
और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने
सच्चे रूप की पहचान कराती है –
हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।
कलकत्ता, वसंत पंचमी, 1987
रुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह
समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी
और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने
सच्चे रूप की पहचान कराती है –
हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।
कलकत्ता, वसंत पंचमी, 1987
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