पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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पानी बोलता है
Posted on 26 May, 2011 09:06 AM पानी बोलता है
एक तरल जबान
प्यास जिसे कण्ठस्थ करती है
और तृप्ति करती रहती है
तरह-तरह के भाष्य

पानी बोलता है
तल में-
बादल में-
बहती धार में
गागर में-सागर में

पानी बोलता है
बारिश जिसका एक लहजा है

कविता में पंक्तियों का समय है यह
धरती में पानी के स्वच्छ-बचाव का

पानी बोलता है
जो नहीं बोलता
पानी अग्निगर्भ है
Posted on 25 May, 2011 09:07 AM पानी बग़ावत करता है
झूठ-मूठ में सिर नहीं हिलाता

पानी जहाँ भी है
कुछ न कुछ कर रहा है
ज़िन्दगी का काम-काज

पानी ही है जो आँख में
सच्चाई चीन्हता है
और हथेलियों की आग

पानी अग्निगर्भ है
बिजली पैदा करता है
पचाता है अन्न

पानी का बल
कि अनुशासित है
बीहड़ से बीहड़ प्यास

आदिकवि की रामायण खोलो
बूँद-बुँदानी
Posted on 24 May, 2011 09:36 AM बादल-घर से
धरती पर
उतर रहे हैं
बूँद-बुँदानी

माटी महक रही है

भीग-भीग कर
गीत बन रही
अपनी बोली-बानी।।

पानी ढोती स्त्रियाँ
Posted on 23 May, 2011 09:01 AM पानी ढोते-ढोते खर्च हो जाती है
स्त्रियों की पूरी एक उम्र
इन स्त्रियों का पसीना
उन पहाडि़यों के माथे से सूखता नहीं कभी
जिनकी तराई में स्त्रियाँ झरने से
भरती हैं अपने गुण्डी-कलश

मरुस्थल की प्यास ज़िन्दा रखने का
स्त्रियों में होता है अद्भुत हुनर
उन्हीं से जागते हैं घर के बर्तन-बासन
और पहाड़ी-पगडण्डियाँ
पानी एक आवाज़ है
Posted on 21 May, 2011 09:47 AM पानी एक आवाज़ है:
कभी विलम्बित, कभी द्रुरत
कभी मध्य लय में बहती हुई
कभी मौन में धड़कती हुई बहिर्ध्वनि के बिना

‘कामायनी’ की शिला की शीतल छाँह में बैठकर
भीगे नयनों से सुनता है जिसे मनु
मिट्टी की अनेक परतों के भीतर जड़ जिसे पीकर
वृक्ष की सबसे ऊपर की फुनगी तक को
कर देती है हरा-भरा।

फसलों की बालियाँ जिसका कोरस गाती हैं
बरसात के लिए
Posted on 20 May, 2011 09:02 AM समुद्र पानी का
सबसे बड़ा बर्तन है
सूरज जिस से पानी पीता है
(बरसात के लिए)

बूँद पानी का बीज हैं
बरखा एक गीत है
भीग-भीग कर जिस से
भाषा की घाटी बाँझ नहीं होती

बरसात का मिजाज भी
कितना वानस्पतिक है!

धुल गयी ग्लानि
Posted on 19 May, 2011 10:26 AM कितने हुलस से-हरस से
नदी नहाने गए हम
घाट पर कीचड़-गंध से
घिना उट्ठा हमारा मन
फिर लौट चले हम
नहाए बिना ही

नदी की हालत देख
गहरी उदासी से
भर गया हमारा मन

वह तो दूसरे दिन
घाट की सफ़ाई में जुटे जब लोग
कीचड़-काई को उखाड़ फेंका

निहार-निहार यह
खिलखिला उट्ठी नदी
और क़तरा-क़तरा बह चली
नदी की प्रसन्न-निर्मलता
एक दिन!
Posted on 18 May, 2011 08:24 AM धरती पर बढ़ रहा तापमान
एक दिन सोख लेगा
सारी बर्फ, झरने,झील, नदियाँ

झुलस जाएँगे जंगल-पहाड़
खेत-खलिहान
दिशाएँ दिखेंगी मुँहझौंसी

अपने ही पानी में
उबल पड़ेगी हमारी देह
और बिना रात के ही
दिनमान आँखों में बैठ जाएगी रतौंधी

जिनकी करतूतों से भूमण्डल का पारा हो रहा है गर्म
घोर कलयुग! कि कोपेनहेगन में
पानी के पोट्रेट
Posted on 17 May, 2011 08:23 AM (जैसे कि मैं हरहमेशा
रचना या देखना चाहता हूँ
धरती, आसमान, हवा, आग के
सुन्दर पोट्रेट)


कविता का पानी चीखते से ही
मैं पानी का पोट्रेट बनाना चाहता हूँ
कितनी कोशिश करता हूँ
पर ला नहीं पाता वह तरलता,
न प्यास बुझाने का वह गुन
न वह कोमलता
और न वह दुर्धर्ष स्वभाव

सोचता हूँ दिखे जहाँ पानी
अपनी सम्पूर्ण रंगत के साथ
नदी-घाट
Posted on 16 May, 2011 09:22 AM पसरी चट्टानों पर कपड़े सूख रहे हैं
नहान-स्नान में डूबे नर-नारी
नदी को पवित्र कर रहे हैं
अपने श्रमशील विचार से-व्यवहार से

खेत काटकर आयी औरतों ने अँजुरी भर-भर
जल पिया और नदी को सदानीरा रहने का दिया असीस
तदर्थ चूल्हों में कहीं रोटियाँ पक रही हैं
कहीं बलक रहा है दाल-भात

आलू भुन रहे हैं आदिम आँच में अद्भुत सुगंध के साथ
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