Posted on 06 Jul, 2011 03:36 PMहर बरस की तरह इस बरस भी चल रही थी ज़िन्दगी सिवा इसके कि जितना सूख गयी थी झील उतनी ही सूख गयी थी शहर की सुंदरता
जैसे-तैसे पीने को पानी मिल ही रहा था शहर को पर पानी की रंगत से शहर दूर था शहर में कोई मेहमान आता था तो अब दिखाने के लिए नहीं था कुछ खास क्योंकि झील सूख चली थी
Posted on 04 Jul, 2011 09:22 AMबड़ी झील! तुम से बोलते-बतियाते मेरी जुबान की मैल छूट जाती है और धुल जाते हैं सारे दाग-धब्बे
कितना सारा मौन छुपा रखा है मैंने तुम्हारे पानी में एक दिन निकाल कर सारा मौन उसे कहने में लाऊँगा फिर भी जो कह न पाऊँगा उसे ज़रूर तुम्हारे कान में फुसफुसाऊँगा
Posted on 01 Jul, 2011 10:17 AMदेखो न बड़ी झील! वह अल्हड़ मछली मेरी ही आँखों के सामने पी गयी है पूरा एक जल-गीत और गीत के लय की मेरे भीतर लहर उठ रही है लगातार
समझाओ न उसे बड़ी झील! मानुस की भाषा में न तैरा करे वह इस तरह नहीं तो भाषा के शिकारी मार खायेंगे उसे भी एक दिन!