Posted on 02 May, 2011 10:45 AMपानी कोई पूर्वाभ्यास नहीं करता और मंच पर प्रकट हो जाता है सीधे फिर भी इतनी अभिनय कुशलता- इतना सुन्दर खेला कि भीतर का पानी हँस-हँस कर हो जाता है लहालोट
मंच पर नाट्य पारंगत और मंच परे की भी उसकी भूमिका सुदक्ष एक ओर पात्र को इतनी संजीदगी से वहीं दूसरी ओर पूरी निर्लिप्तता के साथ जीकर बताना यह है पानी के ही बूते की बात
Posted on 29 Apr, 2011 09:08 AMपानी बहुत उदास है बोतल में पानी का चेहरा उतरा हुआ है याद आ रही हैं उसे अपनी लहरें वह पार्वती नदी याद आ रही है जिसका वेग उसे बाँधता था
सोचा था उसने किसी मटके में हो वह खूब ठण्डाएगा और बुझाएगा किसी अतिथि की प्यास अब भी वह सोच रहा है मन ही मनः काश! उसे चुल्लू से पीता कोई भर प्यास
Posted on 23 Apr, 2011 12:16 PMनदी एक गीत हैः जो पहाड़ के कण्ठ से निकल समुद्र की जलपोथी में छप जाती है जिस के मोहक अनुरणन से हरा-भरा रहता है घाटी-मैदान
अपने घुटने मोड़ जिसे पीती है बकरी हबो-हबो कहने पर पी लेते हैं जिसे गाय-गोरू खेत-खलिहान की मेहनत की प्यास में पीते हैं जिसे मजूर-किसान नदियों में पानी है तो सदानीरा है जुबान