Posted on 14 Jun, 2010 03:30 PMआज गरीब देशों में 80 प्रतिशत बीमारियां अशुद्ध पेयजल और गन्दगी के कारण हैं तथा बढ़ती जनसंख्या, समस्या को और बढ़ा रही है। 1980 के दशक में सबसे गरीब देशों में शुद्ध जल सफाई व्यवस्था के तमाम प्रयासों के बाद भी आज 1.2 अरब लोग इन बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व के विकासशील देशों की आधी से कम जनसंख्या को स्वच्छ जल की सुविधा प्राप्त है और पांच में से एक व्यक्ति को संतोषजनक सफाई सेवाएं उपलब्ध है। प्रतिदिन 35 हजार व्यक्ति अतिसार रोग के कारण मर जाते हैं। दुःख के साथ स्वीकारना पड़ता है कि नदियों से भरपूर, हमारे देश में भी पानी की कमी है तथा विश्व-स्तर पर देखा जाए तो विश्व का हर तीसरा प्यासा व्यक्ति भारतीय है। जिन गाँवों में पानी के लिए 1.6 किलोमीटर चलना पड़े, वे समस्याग्रस्त गांव कहलाते हैं और इन समस्याग्रस्त गांवों की संख्या बढ़ोत्तरी पर ही रही है। दुःख की बात तो यह है कि आज की स्थिति में भी 11,000 ऐसे गांव हैं जिनमें कि स्वच्छ पानी की बात छोड़िए, गंदा पानी भी उपलब्ध नहीं है। इन गाँवों में अगर कहीं पानी है भी तो वह इतना खारा है कि पीने के योग्य नहीं है।
सम्पूर्ण विश्व में उन्नति के साथ-साथ जो औद्योगिक विकास हुआ है, उसी का परिणाम पानी की समस्या के रूप में हमारे
मानसून आने को है, फसल के अलावा हमें साल भर के लिए पानी इकट्ठा कर लेना चाहिए। क्योंकि हमारे यहां पानी का ज्यादातर हिस्सा मानसून के दौरान ही प्राप्त होता है।
Posted on 11 Jun, 2010 10:13 AM10 जून 2010 नई दिल्ली। नदियों के देश में पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। भूजल का स्तर भी लगातार गिर रहा है। गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं। दरअसल जनसंख्या में लगातार वृद्धि बढ़ते शहरीकरण और उद्योगीकरण, कृषि उपज की बढ़ती मांग से, जल की मांग में बेतहाशा इजाफा हुआ है। इससे सतह और भूजल संसाधनों का बेतरह दोहन हो रहा है। नतीजे में भूजल स्तर में लगातार कमी हो रही है। शहरी
Posted on 10 Jun, 2010 04:41 PM अभी थोड़े दिनों पहले की बात है, जब यूरोप के आसमान पर छाई धुंध और गुबार ने यूरोपीय जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। आइसलैंड के एक ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे और धुएं से पूरा आसमान कई दिनों तक भरा रहा। यह महज एक उदाहरण भर है कि किस तरह दुनिया भर में पर्यावरण संबंधी मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। आज से कुछेक साल पहले तक किसी ने नहीं सोचा होगा कि पर्यावरण संबंधी ऐसी मुश्किलें भी आएंगी। हकीकत
Posted on 07 Jun, 2010 01:38 PMदिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश से एक बड़ा भ्रम अचानक टूटा है कि अगर हम पीने के लिए बाजार का बोतलबंद पानी इस्तेमाल कर रहे हैं तो पूरी तरह सुरक्षित हैं। दरअसल, पेयजल की शुद्धता को लेकर समूची दिल्ली में जो स्थिति बन चुकी है उसका फायदा उठा कर पानी को छोटी और बड़ी बोतलों में बेचने का धंधा बड़े पैमाने पर पसर गया है। लेकिन शुद्धता के मानकों का कितना पालन होता है यह इसी से समझा जा सकता है कि एक याचिका की
Posted on 29 May, 2010 11:23 AMजैसे-जैसे गर्मी बढ़ रही है दिल्ली में पानी का संकट भी बढ़ता जा रहा है। इस संकट ने अमीर-गरीब की खाई को पाट दिया है। विपक्ष के साथ सत्ता पक्ष के नेता भी सड़क पर आने लगे हैं। पीने वाले पानी खरीदकर अपना काम चला रहे हैं तो गरीब बेहाल हैं। माफिया का कारोबार लगातार बढ़ता जा रहा है। दिल्ली जल बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) रमेश नेगी ही नहीं, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी इस मामले में अपनी बेबसी जाह
Posted on 29 May, 2010 09:20 AMबाबर ने अपने बाबरनामा में एक जगह लिखा है कि हिन्दुस्तान में चारों तरफ पानी-ही-पानी दिखाई देता है। यहां जितनी नदियां, मैने कहीं नहीं देखीं हैं। यहां पर वर्षा इतनी जोरदार होती है कि कई-कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लेती है। बाबर के इस लेख से ज्ञात होता है कि पानी के मामले में भारत आत्मनिर्भर था लेकिन अब तो वह बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रहा है।भुखमरी, महामारी, अकाल के शिकार होकर प्राणियों को मरते तो देखा गया है, परन्तु किसी व्यक्ति ने पानी के बिना प्यास से दम तोड़ दिया हो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। 20वीं सदी की पहचान यही होगी कि प्यास के मारे प्राणियों ने दम तोड़ा है। बाबर ने अपने बाबरनामा में एक जगह लिखा है कि हिन्दुस्तान में चारों तरफ पानी-ही-पानी दिखाई देता है। यहां जितनी नदियां, मैने कहीं नहीं देखीं हैं। यहां पर वर्षा इतनी जोरदार होती है कि कई-कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लेती है। बाबर के इस लेख से ज्ञात होता है कि पानी के मामले में भारत आत्मनिर्भर था लेकिन अब तो वह बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रहा है। पर्याप्त वर्षा न होना पर्यावरण प्रदूषण की गंभीरता
Posted on 27 May, 2010 05:23 PMई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा) को लेकर दो गैर सरकारी संगठनों में मतभेद हो गए हैं। यह मतभेद ई-कचरे के प्रबंधन और रखरखाव को लेकर पर्यावरण और वन मंत्रालय की ओर से हाल ही में अधिसूचित किए गए मसौदा नियमों को लेकर हुए हैं। दरअसल पिछले दिनों ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वारमेंट’ ने एक रिपोर्ट जारी कर यह बताया था कि ये मसौदा नियम ई-कचरे का निपटान करने वाली संगठित क्षेत्र की कंपनियों की ही मदद करेंगे।
Posted on 26 May, 2010 09:45 PM समाज में कई परंपराएँ जन्म लेती हैं और कई टूट जाती हैं। परंपराओं का प्रारंभ होना और टूटना विकासशील समाज का आवश्यक तत्त्व है। कुछ परंपराएँ टूटने के लिए ही होती हैं पर कुछ परंपराएँ ऐसी होती हैं, जिनका टूटना मन को दु:खी कर जाता है और परंपराएँ हमारे देखते ही देखते समाप्त हो जाती हैं, उसे परंपरा की मौत कहा जा सकता है।