आज गरीब देशों में 80 प्रतिशत बीमारियां अशुद्ध पेयजल और गन्दगी के कारण हैं तथा बढ़ती जनसंख्या, समस्या को और बढ़ा रही है। 1980 के दशक में सबसे गरीब देशों में शुद्ध जल सफाई व्यवस्था के तमाम प्रयासों के बाद भी आज 1.2 अरब लोग इन बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व के विकासशील देशों की आधी से कम जनसंख्या को स्वच्छ जल की सुविधा प्राप्त है और पांच में से एक व्यक्ति को संतोषजनक सफाई सेवाएं उपलब्ध है। प्रतिदिन 35 हजार व्यक्ति अतिसार रोग के कारण मर जाते हैं। दुःख के साथ स्वीकारना पड़ता है कि नदियों से भरपूर, हमारे देश में भी पानी की कमी है तथा विश्व-स्तर पर देखा जाए तो विश्व का हर तीसरा प्यासा व्यक्ति भारतीय है। जिन गाँवों में पानी के लिए 1.6 किलोमीटर चलना पड़े, वे समस्याग्रस्त गांव कहलाते हैं और इन समस्याग्रस्त गांवों की संख्या बढ़ोत्तरी पर ही रही है। दुःख की बात तो यह है कि आज की स्थिति में भी 11,000 ऐसे गांव हैं जिनमें कि स्वच्छ पानी की बात छोड़िए, गंदा पानी भी उपलब्ध नहीं है। इन गाँवों में अगर कहीं पानी है भी तो वह इतना खारा है कि पीने के योग्य नहीं है।
सम्पूर्ण विश्व में उन्नति के साथ-साथ जो औद्योगिक विकास हुआ है, उसी का परिणाम पानी की समस्या के रूप में हमारे सामने आया है। वर्तमान समय में विकसित और अविकसित तथा विकासशील सभी देशों को जल की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
अमीर देश तो फिर भी सहजरूप से इस समस्या से निपट सकते हैं, किन्तु गरीब देश के लोगों को जो कि दुनिया की आबादी के 77 प्रतिशत हैं, पेयजल हेतु जूझना ही पड़ता है।
हमारे देश में जल-प्रदूषण के पीछे उद्योगिकरण के साथ-साथ बढ़ती जनसंख्या का बड़ा हाथ है। जहां इतनी अधिक आबादी है वहां मल-विसर्जन भी अन्य देशों की अपेक्षा कहीं अधिक है। जानकारी के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन 80 लाख घन मीटर मल एकत्र हो जाता है और इसका आधा हिस्सा भी उपचारित नहीं हो पाता। यहां तक कि भारत के 142 बड़े शहरों में से केवल, 8 शहरों में मल वाहक और मल-उपचार व्यवस्था उपलब्ध है, 62 शहरों में आंशिक रूप से, तो 72 शहरों में यह व्यवस्था है ही नहीं।
आज भी कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, दिल्ली और कानपुर जैसे उद्योगी शहरों का कचरा, पानी में मिल कर इसे जहरीला बना रहा है। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार देश की नदियों का 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार जल-दशक की यात्रा के प्रारम्भ में यानी 1981-82 में गावों की 72 प्रतिशत और शहरों की 31 प्रतिशत जनता के पास पीने को पानी नहीं था। वैसे स्थिति, आज भी सम्पूर्णतया संतोषजनक न होकर, कुछ सीमा तक गांवों को पानी उपलब्ध है। शहरों में आबादी प्रवास के कारण हालत बिगड़ी ही है।
वर्ष 1980 में जब विश्व में लगभग दो अरब लोगों के जल से अभावग्रस्त होने का पता लगा तो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1981-1990 को अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल सप्लाई व स्वच्छता-दशक घोषित किया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, विश्व स्वास्थ्य कार्यक्रम, यूनिसेफ़ और विश्व-बैंक ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन बाधाओं का मुकाबला करने के लिए “पेयजल सप्लाई व स्वच्छता दशक” में नेतृत्व की भूमिका निभाई।
1977 में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन और 1980 में महासभा की बैठक हुई। उसी के संकल्प के आधार पर, यह दशक प्रारम्भ किया गया था। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास के फलस्वरूप इस दशक के मध्य लगभग 700 मिलियन जनता स्वच्छ जल की सुविधा पा सकी।
पानी की समस्या केवल किताबी समस्या ही नहीं है बल्कि इसका अभाव, उपलब्धता या इसका शुद्ध और अशुद्ध होना ठोस सच्चाइयां हैं। यह प्रश्न पर्यावरण से जुड़ा है, स्वास्थ्य से जुड़ा है, महिलाओं से जुड़ा है और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा है।
आज गरीब देशों में 80 प्रतिशत बीमारियां अशुद्ध पेयजल और गन्दगी के कारण हैं तथा बढ़ती जनसंख्या, समस्या को और बढ़ा रही है। 1980 के दशक में सबसे गरीब देशों में शुद्ध जल सफाई व्यवस्था के तमाम प्रयासों के बाद भी आज 1.2 अरब लोग इन बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व के विकासशील देशों की आधी से कम जनसंख्या को स्वच्छ जल की सुविधा प्राप्त है और पांच में से एक व्यक्ति को संतोषजनक सफाई सेवाएं उपलब्ध है। प्रतिदिन 35 हजार व्यक्ति अतिसार रोग के कारण मर जाते हैं। इन मरने वालों में अधिकांश व्यक्ति गरीब होते हैं जो कि सामान्यतया जल-स्रोतों से दूर होने के कारण अपना उपयोगी समय पानी ढोने में गँवा कर भी अशुद्ध पानी पाते हैं। विश्व की 5 अरब जनसंख्या में से 1.5 अरब लोग स्वच्छ जल से वंचित हैं और 2 मिलियन लोग पर्याप्त स्वच्छता सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं।
हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर मिनट पर संक्रमित पानी, एक बच्चे की जान ले लेता है। डायरिया से संबंधित रिपोर्ट बताती है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे डायरिया से पीड़ित होते हैं। यूँ तो पानी से उत्पन्न होने वाले अनेक रोग हैं, डायरिया, हैजा, पेचिश मलेरिया, पेट के कीड़े, टाइफाइड आदि। संक्रमित जल से नहाने के कारण आंख आना, रोहें, चर्म रोग आदि अपना पंजा फैलाते हैं। इसी प्रकार पानी की अस्वच्छता और कमी के कारण होने वाले रोग टिटनस, हेलिमन्थस आदि। इसके अतिरिक्त गिनीवार्म की समस्या आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में अपना अस्तित्व जमाए हुए है।कार्यरत संस्थाओं ने इस समस्या से जूझने में कुछ सीमा तक सफलता प्राप्त की है। ग्रामीण जल उपलब्धि के मामले में सफलता उल्लेखनीय है। इस दशक के दौरान 20 प्रतिशत लोगों तक जल सुविधा पहुंचाई गई है अर्थात 4.30 मिलियन लोगों को राहत मिली है। शहरों में जलप्रदाय सुविधा की प्रतिशत वृद्धि अपेक्षाकृत धीरे हुई तथा स्वच्छता की दृष्टि से गांव व शहर दोनों ही जगह प्रतिशत वृद्धि कम हुई है। इसका मुख्य कारण जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण का विस्तार है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग भी पानी को संक्रमित कर डालते हैं।
वर्ष 1987-88 के दौरान लखनऊ के विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भूमिगत जल भी पीने योग्य न होकर कीटाणुयुक्त है। उत्तर प्रदेश में विभिन्न स्थानों पर लिए गए 1088 नमूनों में से 10 से 100 प्रतिशत तक संक्रमण पाया गया।
गांवों में तो सफाई का स्तर निम्न है ही, किन्तु शहरों में भी स्थिति गंभीर है। शहर में दसवीं-बारहवीं मंजिल पर बसा परिवार पानी की परेशानी में रहता है, ऐसे में जो भी पानी मिले उसी में संतोष करना पड़ता है।
हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर मिनट पर संक्रमित पानी, एक बच्चे की जान ले लेता है। डायरिया से संबंधित रिपोर्ट बताती है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे डायरिया से पीड़ित होते हैं। यूँ तो पानी से उत्पन्न होने वाले अनेक रोग हैं, डायरिया, हैजा, पेचिश मलेरिया, पेट के कीड़े, टाइफाइड आदि। संक्रमित जल से नहाने के कारण आंख आना, रोहें, चर्म रोग आदि अपना पंजा फैलाते हैं। इसी प्रकार पानी की अस्वच्छता और कमी के कारण होने वाले रोग टिटनस, हेलिमन्थस आदि। इसके अतिरिक्त गिनीवार्म की समस्या आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में अपना अस्तित्व जमाए हुए है।
इस गंदे पानी व भीषण रोगों से छुटकारा पाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें जुटकर प्रयत्नशील हैं। साथ ही गैर-सरकारी संगठन भी अपनी सेवाएं अर्पित कर रहे हैं। सरकार ने जल शोधन के छोटे-बड़े संयंत्र लगाए हैं, साथी विदेशी सहायता भी मिल रही है।
सातवीं योजना में उन गांवों में जहां आधे किलोमीटर तक पानी उपलब्ध नहीं था, वहां पानी पहुँचाने कि व्यवस्था की गई। इससे प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति की मात्रा 40 लीटर प्रतिदिन से बढ़ा कर 70 लीटर की गई। आठवीं योजना से आशा बंधी है कि पीने के पानी के कार्य पर 1,000 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। कुएं, पम्प, नल द्वारा सुरक्षित जल की उपलब्धि ही जीवन के स्वास्थ्य की गारंटी नहीं है। पानी तभी स्वास्थ्यप्रद रहेगा, जब उपभोक्ता द्वारा उचित ढंग से प्रयोग में लाया जाएगा। गांव और छोटे शहरों की समस्या की तो बात ही क्या है जब देश की राजधानी दिल्ली में सन् 1988 में पानी से होने वाले रोगों ने हंगामा मचा दिया था।
• जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए सरकार के साथ-साथ, जनता का भी सहयोग चाहिए।
• वैज्ञानिक आधार पर भूमिगत जल की उपलब्धता बढ़ाने के उपाय करने चाहिए।
• ग्रामीण क्षेत्रों में पीने का पानी की स्थिति सुधारने के लिए, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, सूखा प्रवृत्त क्षेत्र कार्यक्रम और रेगिस्तान विकास कार्यक्रम से बहुत बड़ी उपलब्धि की आशा है।
सम्पूर्ण विश्व में उन्नति के साथ-साथ जो औद्योगिक विकास हुआ है, उसी का परिणाम पानी की समस्या के रूप में हमारे सामने आया है। वर्तमान समय में विकसित और अविकसित तथा विकासशील सभी देशों को जल की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
अमीर देश तो फिर भी सहजरूप से इस समस्या से निपट सकते हैं, किन्तु गरीब देश के लोगों को जो कि दुनिया की आबादी के 77 प्रतिशत हैं, पेयजल हेतु जूझना ही पड़ता है।
हमारे देश में जल-प्रदूषण के पीछे उद्योगिकरण के साथ-साथ बढ़ती जनसंख्या का बड़ा हाथ है। जहां इतनी अधिक आबादी है वहां मल-विसर्जन भी अन्य देशों की अपेक्षा कहीं अधिक है। जानकारी के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन 80 लाख घन मीटर मल एकत्र हो जाता है और इसका आधा हिस्सा भी उपचारित नहीं हो पाता। यहां तक कि भारत के 142 बड़े शहरों में से केवल, 8 शहरों में मल वाहक और मल-उपचार व्यवस्था उपलब्ध है, 62 शहरों में आंशिक रूप से, तो 72 शहरों में यह व्यवस्था है ही नहीं।
आज भी कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, दिल्ली और कानपुर जैसे उद्योगी शहरों का कचरा, पानी में मिल कर इसे जहरीला बना रहा है। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार देश की नदियों का 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार जल-दशक की यात्रा के प्रारम्भ में यानी 1981-82 में गावों की 72 प्रतिशत और शहरों की 31 प्रतिशत जनता के पास पीने को पानी नहीं था। वैसे स्थिति, आज भी सम्पूर्णतया संतोषजनक न होकर, कुछ सीमा तक गांवों को पानी उपलब्ध है। शहरों में आबादी प्रवास के कारण हालत बिगड़ी ही है।
वर्ष 1980 में जब विश्व में लगभग दो अरब लोगों के जल से अभावग्रस्त होने का पता लगा तो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1981-1990 को अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल सप्लाई व स्वच्छता-दशक घोषित किया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, विश्व स्वास्थ्य कार्यक्रम, यूनिसेफ़ और विश्व-बैंक ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन बाधाओं का मुकाबला करने के लिए “पेयजल सप्लाई व स्वच्छता दशक” में नेतृत्व की भूमिका निभाई।
1977 में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन और 1980 में महासभा की बैठक हुई। उसी के संकल्प के आधार पर, यह दशक प्रारम्भ किया गया था। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास के फलस्वरूप इस दशक के मध्य लगभग 700 मिलियन जनता स्वच्छ जल की सुविधा पा सकी।
पानी की समस्या केवल किताबी समस्या ही नहीं है बल्कि इसका अभाव, उपलब्धता या इसका शुद्ध और अशुद्ध होना ठोस सच्चाइयां हैं। यह प्रश्न पर्यावरण से जुड़ा है, स्वास्थ्य से जुड़ा है, महिलाओं से जुड़ा है और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा है।
आज गरीब देशों में 80 प्रतिशत बीमारियां अशुद्ध पेयजल और गन्दगी के कारण हैं तथा बढ़ती जनसंख्या, समस्या को और बढ़ा रही है। 1980 के दशक में सबसे गरीब देशों में शुद्ध जल सफाई व्यवस्था के तमाम प्रयासों के बाद भी आज 1.2 अरब लोग इन बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व के विकासशील देशों की आधी से कम जनसंख्या को स्वच्छ जल की सुविधा प्राप्त है और पांच में से एक व्यक्ति को संतोषजनक सफाई सेवाएं उपलब्ध है। प्रतिदिन 35 हजार व्यक्ति अतिसार रोग के कारण मर जाते हैं। इन मरने वालों में अधिकांश व्यक्ति गरीब होते हैं जो कि सामान्यतया जल-स्रोतों से दूर होने के कारण अपना उपयोगी समय पानी ढोने में गँवा कर भी अशुद्ध पानी पाते हैं। विश्व की 5 अरब जनसंख्या में से 1.5 अरब लोग स्वच्छ जल से वंचित हैं और 2 मिलियन लोग पर्याप्त स्वच्छता सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं।
हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर मिनट पर संक्रमित पानी, एक बच्चे की जान ले लेता है। डायरिया से संबंधित रिपोर्ट बताती है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे डायरिया से पीड़ित होते हैं। यूँ तो पानी से उत्पन्न होने वाले अनेक रोग हैं, डायरिया, हैजा, पेचिश मलेरिया, पेट के कीड़े, टाइफाइड आदि। संक्रमित जल से नहाने के कारण आंख आना, रोहें, चर्म रोग आदि अपना पंजा फैलाते हैं। इसी प्रकार पानी की अस्वच्छता और कमी के कारण होने वाले रोग टिटनस, हेलिमन्थस आदि। इसके अतिरिक्त गिनीवार्म की समस्या आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में अपना अस्तित्व जमाए हुए है।कार्यरत संस्थाओं ने इस समस्या से जूझने में कुछ सीमा तक सफलता प्राप्त की है। ग्रामीण जल उपलब्धि के मामले में सफलता उल्लेखनीय है। इस दशक के दौरान 20 प्रतिशत लोगों तक जल सुविधा पहुंचाई गई है अर्थात 4.30 मिलियन लोगों को राहत मिली है। शहरों में जलप्रदाय सुविधा की प्रतिशत वृद्धि अपेक्षाकृत धीरे हुई तथा स्वच्छता की दृष्टि से गांव व शहर दोनों ही जगह प्रतिशत वृद्धि कम हुई है। इसका मुख्य कारण जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण का विस्तार है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग भी पानी को संक्रमित कर डालते हैं।
वर्ष 1987-88 के दौरान लखनऊ के विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भूमिगत जल भी पीने योग्य न होकर कीटाणुयुक्त है। उत्तर प्रदेश में विभिन्न स्थानों पर लिए गए 1088 नमूनों में से 10 से 100 प्रतिशत तक संक्रमण पाया गया।
गांवों में तो सफाई का स्तर निम्न है ही, किन्तु शहरों में भी स्थिति गंभीर है। शहर में दसवीं-बारहवीं मंजिल पर बसा परिवार पानी की परेशानी में रहता है, ऐसे में जो भी पानी मिले उसी में संतोष करना पड़ता है।
हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर मिनट पर संक्रमित पानी, एक बच्चे की जान ले लेता है। डायरिया से संबंधित रिपोर्ट बताती है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चे डायरिया से पीड़ित होते हैं। यूँ तो पानी से उत्पन्न होने वाले अनेक रोग हैं, डायरिया, हैजा, पेचिश मलेरिया, पेट के कीड़े, टाइफाइड आदि। संक्रमित जल से नहाने के कारण आंख आना, रोहें, चर्म रोग आदि अपना पंजा फैलाते हैं। इसी प्रकार पानी की अस्वच्छता और कमी के कारण होने वाले रोग टिटनस, हेलिमन्थस आदि। इसके अतिरिक्त गिनीवार्म की समस्या आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में अपना अस्तित्व जमाए हुए है।
इस गंदे पानी व भीषण रोगों से छुटकारा पाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें जुटकर प्रयत्नशील हैं। साथ ही गैर-सरकारी संगठन भी अपनी सेवाएं अर्पित कर रहे हैं। सरकार ने जल शोधन के छोटे-बड़े संयंत्र लगाए हैं, साथी विदेशी सहायता भी मिल रही है।
सातवीं योजना में उन गांवों में जहां आधे किलोमीटर तक पानी उपलब्ध नहीं था, वहां पानी पहुँचाने कि व्यवस्था की गई। इससे प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति की मात्रा 40 लीटर प्रतिदिन से बढ़ा कर 70 लीटर की गई। आठवीं योजना से आशा बंधी है कि पीने के पानी के कार्य पर 1,000 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। कुएं, पम्प, नल द्वारा सुरक्षित जल की उपलब्धि ही जीवन के स्वास्थ्य की गारंटी नहीं है। पानी तभी स्वास्थ्यप्रद रहेगा, जब उपभोक्ता द्वारा उचित ढंग से प्रयोग में लाया जाएगा। गांव और छोटे शहरों की समस्या की तो बात ही क्या है जब देश की राजधानी दिल्ली में सन् 1988 में पानी से होने वाले रोगों ने हंगामा मचा दिया था।
• जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए सरकार के साथ-साथ, जनता का भी सहयोग चाहिए।
• वैज्ञानिक आधार पर भूमिगत जल की उपलब्धता बढ़ाने के उपाय करने चाहिए।
• ग्रामीण क्षेत्रों में पीने का पानी की स्थिति सुधारने के लिए, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, सूखा प्रवृत्त क्षेत्र कार्यक्रम और रेगिस्तान विकास कार्यक्रम से बहुत बड़ी उपलब्धि की आशा है।
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