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मेरी गंगा
Posted on 30 Sep, 2013 04:38 PM गंगा मेरे मन की सोना-घाटी में बहती है।

अपनी गंगा के उद्गम का उन्नत शिखर हिमालय मैं हूँ,
मैं ही उसका महादेव हूँ, कंचन-कलश शिवालय मैं हूँ,
मेरी प्रज्ञा के सागर में उसका सुंदर नील-निलय है-
मेरी भावसाधना में वह भागीरथी मगन रहती है।।

श्वासों में उसकी लय-धारा, प्राणों में उसका स्पंदन है,
रक्त-शिराओं में उसकी चंचल लहरों का आवर्तन है,
माँझी का पुल
Posted on 30 Sep, 2013 04:37 PM मेरे गाँव से दिखाई पड़ता है
माँझी का पुल

मैने पहली बार
स्कूल से लौटते हुए
उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं
यह सर्दियों के शुरू के दिन थे
जब पूरब के आसमान में
सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए
धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल

वह कब बना था
कोई नहीं जानता
किसने बनाया था माँझी का पुल
यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
मैंने गंगा को देखा
Posted on 30 Sep, 2013 04:36 PM मैंने गंगा को देखा
एक लंबे सफर के बाद
जब मेरी आँखें
कुछ भी देखने को तरस रही थीं
जब मेरे पास कोई काम नहीं था
मैने गंगा को देखा
प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद
जब एक शाम
मुझे साहस और ताजगी की
बेहद जरूरत थी
मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी
डब-डब आँख में
जहाँ जीने की अपार तरलता थी
मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह
बिना नाम की नदी
Posted on 30 Sep, 2013 04:34 PM मेरे गाँव को चीरती हुई
पहले आदमी से भी बहुत पहले से
चुपचाप बह रही है वह पतली-सी नदी
जिसका कोई नाम नहीं

तुमने कभी देखा है
कैसी लगती है बिना नाम की नदी?

कीचड़, सिवार और जलकुंभियों से भरी
वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
एक नाम की तलाश में
मेरे गाँव की नदी

कहीं कोई मरता है
लोग उठाते हैं
विस्थापन मतलब जिंदगी का उजड़ जाना
Posted on 30 Sep, 2013 01:29 PM मानव समाज आज उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां दुनिया जाइरोस्कोप जैसी तेजी से बदल रही है। इसके बावजूद मनुष्य के स्वभाव में, उसकी सामाजिकता में इतना कम परिवर्तन हो सका है कि हम यह दावा नहीं कर सकते कि विज्ञान मनुष्य को अच्छा मनुष्य भी बनाता है। ‘भगवान सिंह’
भोजन, कुपोषण और परंपरागत खेती
Posted on 30 Sep, 2013 11:20 AM जो आदिवासी पिछले सालों में जंगलों से बाहर आ चुके थे उनमें लगातार स्
असंभव स्वप्न
Posted on 29 Sep, 2013 01:31 PM घाटी में बसे एक छोटे-से गाँव में
पहली बार जब मैं आया थाउमड़ती हुई पहाड़ी नदी के शोर ने
रात-रात भर मुझे जगाए रखा
मन हुआ था-
लुढ़कते पत्थरों के साथ बहता-बहता मैं
रेत बन अतीत में खो जाऊँ

फिर कुछ बरसों बाद
जब मैं वापस इधर आया-
जहाँ नदी थी
वहाँ सूखे बेढंगे, अनगढ़
ढेरों शिलाखंड बस बिखरे पड़े थे
अन्यमनस्क उनको लाँघते
व्यतिक्रम
Posted on 29 Sep, 2013 01:29 PM नदी ने धारा बदली
कि धारा ने नदी?
इतने वर्षों
हम अपने को उघारते रहे
कि ढकते-मूँदते
कुछ भी ज्ञात है नहीं।

काली शक्ल को उजली
मानने में क्या तुक था?
अपने देश को अपनाना
क्या कुछ कम नाजुक था?

उलटबाँसी एक फाँसी है-
लगते ही मुक्ति देगी।
जिसको लेना हो, ले।
आधी भीतर
आधी बाहर
साँस मुझे कोई दे!
दूर, यमुना पार
Posted on 29 Sep, 2013 01:27 PM रात गहरी-
खो गया हो ज्यों तिमिर में पंथ:
सितारों के तले-
बहता अनंत प्रवाह
दूर, यमुना पार...
दिख रही है
बत्तियाँ वे टिमटिमाती
ज्यों निबिड़ वन में
कहीं से रोशनी दिख जाए-
...किंतु राही भटकता रह जाए
उन तक पहुँच पाने में!

बीच का व्यवधान नील अदृश्य-
केवल
हरहराती ध्वनि:
तथा सब मौन, नीरव शांत!
अवगाहन
Posted on 29 Sep, 2013 01:25 PM वह मेरा सहजन!
हाय! वह मेरा सखा!
आज नदी में उतरता है।

उसने सब कपड़े उतारकर
किनार पर फेंक दिए,
यह सोचे बिना कि कार्तिक में कितनी ठंड होती है,
सुबह-सुबह नहाने की ठान ली।
पैनी हवाओं ने
जब उसके जिस्मको झिंझोड़ा,
तो उसने एक कदम थोड़ा पीछे हटकर उठाया।
अब वह फिर दूसरा कदम आगे धरता है।
लो, अब वह नदी में उतरता है।
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