जो आदिवासी पिछले सालों में जंगलों से बाहर आ चुके थे उनमें लगातार स्वास्थ्य की परेशानियां बढ़ रही थीं। हालात यहां तक पहुंचे की इलाज कराने के कारण हर दूसरे परिवार पर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था। तब कई परिवारों ने शहरी इलाकों में पलायन के बजाय जंगलों में लौटना ठीक समझा और अपनी पंरपरागत जंगल आधारित खेती को अपनाया। इसमें मुख्य पुरानी फ़सलों को फिर से बोया जिसमें कालाभात, कोदो, कुटकी और मांडू शामिल हैं। आश्चर्यजनक रूप से तीन वर्षों में ही परिणाम सामने आए और आदिवासियों में बीमारियाँ कम हुईं, बच्चे और माताएं अपेक्षाकृत पुष्ट हुए हैं। म.प्र. के आदिवासी इलाकों ने जैसे-जैसे अपने पारंपरिक खाद्यान्नों को खोया वैसे-वैसे उन पर कुपोषण की चपेट बढ़ती गई। वहीं दूसरी ओर कुपोषण दूर करने के लिए सरकार द्वारा खर्च किए जा रहे करोड़ों रुपए और संसाधनों पर आज भी आदिवासी परंपराएं भारी हैं। इसे समझने के लिए दो उदाहरणों पर गौर करते हैं। पहला है- महाराष्ट्र के अहमदनगर की संगनौर तहसील के आदिवासियों का, जो जंगल में पंरपरागत खेती कर कुपोषण और बीमारियों को दूर कर रहे हैं। इसी तरह बाजरा की लौह तत्व से भरपूर उन्नत किस्में बनाकर इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च सेंटर ने दावा किया कि बाजरा कुपोषण दूर करने का एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न है। बाजरा भील जनजाति का पारंपरिक भोजन रहा है। ऐसे प्रयोग मक्का, कोदो, कुटकी को लेकर भी जारी हैं।नए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में ग़रीबों के पेट भरने का ध्यान तो रखा गया लेकिन पोषण का नहीं। इन योजनाओं में मध्य प्रदेश के प्रमुख आदिवासी इलाके झाबुआ में रहने वाली भील जनजाति भी शामिल है। इनकी पोषण परंपराओं पर गौर करना इस लिहाज से भी दिलचस्प है क्योंकि 50 साल पहले तक यहां कुपोषण के कारण बच्चों की मौत और कैंसर जैसी बीमारियों का नामोनिशान नहीं था।
विकास की आधुनिक प्रक्रिया में इस प्रकृति जनित प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके की भील जनजाति मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल कर कई पोषक तत्वों की कमी से दूर थी। पोषण की सुरक्षा के लिए बन रहे नए मापदंडों में भी इन बातों का कहीं ख्याल ही नहीं रखा गया कि वे कुपोषण की इस लड़ाई को कैसे लड़ेंगे। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में गेहूं, दाल, चावल की एक निश्चित मात्रा का प्रावधान करने की कोशिश तो की गई है, लेकिन पोषक तत्वों के अनुपात और प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण को फिर नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
अक्टूबर 2012 में झाबुआ के मेघनगर ब्लाक के अगासिया और मदरानी गाँवों में कुपोषण और रक्ताल्पता के कारण 20 बच्चों ने दम तोड़ा था। बच्चों की मौत का यह सिलसिला भी जारी रहा और सरकारी योजनाओं में कई प्रयोग भी। वहीं सरकारी आंकड़ों की मानें तो आज भी जिले के 54 फीसदी बच्चे कुपोषण और उनमें से 36 फीसदी अतिकुपोषण का शिकार हैं। क्षेत्र में कार्य कर रहे गैर सरकारी संगठनों के अनुसार सरकारी प्रणाली ने यहां कुपोषण के आंकड़े जुटाने और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की हाजरी पर बहुत जोर दिया, लेकिन कुपोषण की जड़ में जाने के लिए इनके पास शायद कोई प्रणाली ही नहीं है।
तीन साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण डायरिया बताया जा रहा है। इलाके के एक स्वास्थ्य अधिकारी बताते हैं कि भील आदिवासी बच्चों के शरीर में जिंक और आयरन की कमी के कारण उल्टी दस्त से नहीं लड़ पाते और दम तोड़ देते हैं। यह कारण सामने आने के बाद सरकार ने बच्चों को आंगनबाड़ी में जिंक और आयरन की गोलियां देने का उपाय खोजा है। इन दिनों यह कार्यक्रम तेजी से आंगनबाड़ियों में जारी है। इसके दूसरे पहलू पर नजर डालें तो खाद्यान्न में सुधार की कोई बात ही नहीं की गई, जिससे माता, पिता सहित परिवार के अन्य सदस्यों में भी पोषण जाएं। यूनिसेफ़ के अनुसार भारत में 6-60 माह के 70 फीसदी बच्चे लौह तत्व की कमी से ग्रस्त हैं। इस सिलसिले में एक तथ्य यह भी है कि जो माताएं आयरन की कमी से ग्रस्त होती हैं उनके बच्चों के आयरन की कमी से ग्रस्त होने की आशंका स्वस्थ माताओं के बच्चों की तुलना में सात गुना ज्यादा होती है। हालांकि इस लड़ाई के कुछ सामुदायिक और शोध आधारित हल निकल भी रहे हैं।
एक हालिया अध्ययन के अनुसार ग़रीबों का भोजन रहे बाजरा को अब उनकी सेहत का रखवाला भी कहा जा रहा है। जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन के अनुसार इस बात की पुष्टि हुई है कि बाजरे की किस्मों में लौह तत्व की मात्रा कई गुना बढ़ाई जा सकती है। सामान्य तौर पर भी बाजरे में अन्य अनाजों की तुलना में आयरन की मात्रा 10 फीसद अधिक ही होती है। जवाहरलाल नेहरु मेडिकल सेंटर द्वारा 22 से 35 माह के 40 बच्चों पर किए गए प्रयोग में उन्हें अधिक आयरन मात्रा वाले बाजरे के आटे का उपमा, शीरा और रोटी खिलाई गई। यह सभी बच्चे आयरन की कमी से ग्रसित थे। इसके परिणाम अच्छे रहे और बच्चों में हीमोग्लोबीन की मात्रा बढ़ी। डॉक्टरों के अनुसार खून की कमी से ग्रसित बच्चों को अन्य बीमारियाँ भी जल्दी ही पकड़ती हैं इसलिए आदिवासी समुदाय अपनी परंपरागत फसलों और खाद्यान्नों के आहार से अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ रहेगा। इस अध्ययन के निष्कर्षों का संकेत है कि रोज़ाना 100 ग्राम बाजरे के आटे के बच्चों के लिए जरुरी लौह तत्व की पूर्ति की जा सकती है।
महाराष्ट्र के अहमदनगर के संगनौर तहसील के सोमनाथ कुटे ने एक चर्चा में बताया कि इलाके के जो आदिवासी पिछले सालों में जंगलों से बाहर आ चुके थे उनमें लगातार स्वास्थ्य की परेशानियां बढ़ रही थीं। हालात यहां तक पहुंचे की इलाज कराने के कारण हर दूसरे परिवार पर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था। तब कई परिवारों ने शहरी इलाकों में पलायन के बजाय जंगलों में लौटना ठीक समझा और अपनी पंरपरागत जंगल आधारित खेती को अपनाया। इसमें मुख्य पुरानी फ़सलों को फिर से बोया जिसमें कालाभात, कोदो, कुटकी और मांडू (पारंपरिक मूंगफली) शामिल हैं। कुटे के अनुसार आश्चर्यजनक रूप से तीन वर्षों में ही परिणाम सामने आए और आदिवासियों में बीमारियाँ कम हुईं, बच्चे और माताएं अपेक्षाकृत पुष्ट हुए हैं।
मध्य प्रदेश में इंदौर के पास महू में ही खेती करने वाले बाग सिंह का कहना है आदिवासियों ने अपनी एक फसल और खो दी है जिसे अंबाड़ी कहते हैं। यह लाल रंग का फल देने वाला झाड़ीनुमा पौधा होता है, जो लौह तत्व से भरपूर है। एक समय इस कांटे वाली जंगली झाड़ी के पत्तों से सब्जी, फल से शर्बत और तने से रस्सी बनाकर खेती कार्यों में इसका उपयोग किया जाता था। वैसे अब महाराष्ट्र के कई इलाकों में अब इसकी व्यावसायिक खेती हो रही है।
विकास की आधुनिक प्रक्रिया में इस प्रकृति जनित प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके की भील जनजाति मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल कर कई पोषक तत्वों की कमी से दूर थी। पोषण की सुरक्षा के लिए बन रहे नए मापदंडों में भी इन बातों का कहीं ख्याल ही नहीं रखा गया कि वे कुपोषण की इस लड़ाई को कैसे लड़ेंगे। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में गेहूं, दाल, चावल की एक निश्चित मात्रा का प्रावधान करने की कोशिश तो की गई है, लेकिन पोषक तत्वों के अनुपात और प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण को फिर नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
अक्टूबर 2012 में झाबुआ के मेघनगर ब्लाक के अगासिया और मदरानी गाँवों में कुपोषण और रक्ताल्पता के कारण 20 बच्चों ने दम तोड़ा था। बच्चों की मौत का यह सिलसिला भी जारी रहा और सरकारी योजनाओं में कई प्रयोग भी। वहीं सरकारी आंकड़ों की मानें तो आज भी जिले के 54 फीसदी बच्चे कुपोषण और उनमें से 36 फीसदी अतिकुपोषण का शिकार हैं। क्षेत्र में कार्य कर रहे गैर सरकारी संगठनों के अनुसार सरकारी प्रणाली ने यहां कुपोषण के आंकड़े जुटाने और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की हाजरी पर बहुत जोर दिया, लेकिन कुपोषण की जड़ में जाने के लिए इनके पास शायद कोई प्रणाली ही नहीं है।
तीन साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण डायरिया बताया जा रहा है। इलाके के एक स्वास्थ्य अधिकारी बताते हैं कि भील आदिवासी बच्चों के शरीर में जिंक और आयरन की कमी के कारण उल्टी दस्त से नहीं लड़ पाते और दम तोड़ देते हैं। यह कारण सामने आने के बाद सरकार ने बच्चों को आंगनबाड़ी में जिंक और आयरन की गोलियां देने का उपाय खोजा है। इन दिनों यह कार्यक्रम तेजी से आंगनबाड़ियों में जारी है। इसके दूसरे पहलू पर नजर डालें तो खाद्यान्न में सुधार की कोई बात ही नहीं की गई, जिससे माता, पिता सहित परिवार के अन्य सदस्यों में भी पोषण जाएं। यूनिसेफ़ के अनुसार भारत में 6-60 माह के 70 फीसदी बच्चे लौह तत्व की कमी से ग्रस्त हैं। इस सिलसिले में एक तथ्य यह भी है कि जो माताएं आयरन की कमी से ग्रस्त होती हैं उनके बच्चों के आयरन की कमी से ग्रस्त होने की आशंका स्वस्थ माताओं के बच्चों की तुलना में सात गुना ज्यादा होती है। हालांकि इस लड़ाई के कुछ सामुदायिक और शोध आधारित हल निकल भी रहे हैं।
एक हालिया अध्ययन के अनुसार ग़रीबों का भोजन रहे बाजरा को अब उनकी सेहत का रखवाला भी कहा जा रहा है। जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन के अनुसार इस बात की पुष्टि हुई है कि बाजरे की किस्मों में लौह तत्व की मात्रा कई गुना बढ़ाई जा सकती है। सामान्य तौर पर भी बाजरे में अन्य अनाजों की तुलना में आयरन की मात्रा 10 फीसद अधिक ही होती है। जवाहरलाल नेहरु मेडिकल सेंटर द्वारा 22 से 35 माह के 40 बच्चों पर किए गए प्रयोग में उन्हें अधिक आयरन मात्रा वाले बाजरे के आटे का उपमा, शीरा और रोटी खिलाई गई। यह सभी बच्चे आयरन की कमी से ग्रसित थे। इसके परिणाम अच्छे रहे और बच्चों में हीमोग्लोबीन की मात्रा बढ़ी। डॉक्टरों के अनुसार खून की कमी से ग्रसित बच्चों को अन्य बीमारियाँ भी जल्दी ही पकड़ती हैं इसलिए आदिवासी समुदाय अपनी परंपरागत फसलों और खाद्यान्नों के आहार से अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ रहेगा। इस अध्ययन के निष्कर्षों का संकेत है कि रोज़ाना 100 ग्राम बाजरे के आटे के बच्चों के लिए जरुरी लौह तत्व की पूर्ति की जा सकती है।
महाराष्ट्र के अहमदनगर के संगनौर तहसील के सोमनाथ कुटे ने एक चर्चा में बताया कि इलाके के जो आदिवासी पिछले सालों में जंगलों से बाहर आ चुके थे उनमें लगातार स्वास्थ्य की परेशानियां बढ़ रही थीं। हालात यहां तक पहुंचे की इलाज कराने के कारण हर दूसरे परिवार पर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था। तब कई परिवारों ने शहरी इलाकों में पलायन के बजाय जंगलों में लौटना ठीक समझा और अपनी पंरपरागत जंगल आधारित खेती को अपनाया। इसमें मुख्य पुरानी फ़सलों को फिर से बोया जिसमें कालाभात, कोदो, कुटकी और मांडू (पारंपरिक मूंगफली) शामिल हैं। कुटे के अनुसार आश्चर्यजनक रूप से तीन वर्षों में ही परिणाम सामने आए और आदिवासियों में बीमारियाँ कम हुईं, बच्चे और माताएं अपेक्षाकृत पुष्ट हुए हैं।
मध्य प्रदेश में इंदौर के पास महू में ही खेती करने वाले बाग सिंह का कहना है आदिवासियों ने अपनी एक फसल और खो दी है जिसे अंबाड़ी कहते हैं। यह लाल रंग का फल देने वाला झाड़ीनुमा पौधा होता है, जो लौह तत्व से भरपूर है। एक समय इस कांटे वाली जंगली झाड़ी के पत्तों से सब्जी, फल से शर्बत और तने से रस्सी बनाकर खेती कार्यों में इसका उपयोग किया जाता था। वैसे अब महाराष्ट्र के कई इलाकों में अब इसकी व्यावसायिक खेती हो रही है।
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