मेरी गंगा

गंगा मेरे मन की सोना-घाटी में बहती है।

अपनी गंगा के उद्गम का उन्नत शिखर हिमालय मैं हूँ,
मैं ही उसका महादेव हूँ, कंचन-कलश शिवालय मैं हूँ,
मेरी प्रज्ञा के सागर में उसका सुंदर नील-निलय है-
मेरी भावसाधना में वह भागीरथी मगन रहती है।।

श्वासों में उसकी लय-धारा, प्राणों में उसका स्पंदन है,
रक्त-शिराओं में उसकी चंचल लहरों का आवर्तन है,
आँखों में उस गोरी की छवियों के धवल हंस उड़ते हैं-
स्वर में संकीर्तन बनकर वह अपनी पुण्य कथा कहती है।।

गहन वासना की नीली यमुना इस धारा में खो जाती,
पुण्य-कामना सरस्वती इसकी लय में मुखरित हो जाती,
मेरे राग-विराग भाव का संग है इसकी लहरों में-
मुक्ति जाह्नवी मेरे पाप-पुण्य का उद्वेलन सहती है।।

सूर्य-चंद्र के झूले हैं इसकी आस्था के अक्षय पट पर,
मणिकर्णिका मसान जगाता हूँ मैं बैठा इसके तट पर,
इसके गहरे पानी में जीवन के इंद्रधनुष उगते हैं-
मेरी गंगा, मेरी माटी का कण-कण सींचा करती है।।

गंगा मेरे मन की सोना-घाटी में बहती है।।

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