देश में सरकार को हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गम्भीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहाँ की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आकर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा होकर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियन्त्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चरागाह होते हैं। गाँव-कस्बे को पहचान देने वाले पहाड़ अब संकट में हैं। पहाड़ की नाराज़गी समय-समय पर सामने आ रही है, कभी हिमाचल में तो कभी कश्मीर में। बीते साल 30 जुलाई को पुणे जिले के अम्बेगाँव तहसील के मलिण गाँव में यदि बस का ड्राइवर नहीं पहुँचता तो पता ही नहीं चलता कि कभी वहाँ बस्ती भी हुआ करती थी। गाँव एक पहाड़ के नीचे था और बारिश में ऊपर से जो मलबा गिरा कि पूरा गाँव ही गुम गया।
अब धीरे-धीरेे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खड़ी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी पिछले साल जून 2013 में उत्तराखण्ड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था।
देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहिम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अन्तिम साँस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गाँव-शहर बसने का मूल आधार वहाँ पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियाँ बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गाँव को देखें, जहाँ नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़ के निचले हिस्से में झील व उसको घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा।
बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुन्देलखण्ड में सदियों से अल्प वर्षा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहाँ कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहाँ के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूँद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख ली थी। छतरपुर शहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक शहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बुटियाँ थीं, पक्षी थे, जानवर थे।
जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहाँ की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गर्मी में भी वहाँ की शाम ठण्डी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब हो जाते। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गई।
नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाड़ी काट देता है, अब वहाँ पक्की सड़क डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहाँ जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही पहाड़ काट लिया। वह दिन कभी भी आ सकता है कि वहाँ का कोई पहाड़ नीचे धँस गया और एक और मालिण बन गया।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए, जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। अब गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लम्बी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाॅबी सब पर भारी है।
कभी सदानीरा कहलाने इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुड़ा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। रेल मार्ग या हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को चालाकी से नजरअन्दाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं।
पारम्परिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित होकर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मलिण गाँव से कुछ ही दूरी पर एक बाँध है, उसको बनाने में वहाँ की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था।
यह जाँच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएँ तो होती ही रहती हैं।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गम्भीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहाँ की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आकर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा होकर उसे उथला बना देती है।
पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियन्त्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गाँव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।
अब धीरे-धीरेे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खड़ी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी पिछले साल जून 2013 में उत्तराखण्ड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था।
देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहिम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अन्तिम साँस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गाँव-शहर बसने का मूल आधार वहाँ पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियाँ बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गाँव को देखें, जहाँ नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़ के निचले हिस्से में झील व उसको घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा।
बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुन्देलखण्ड में सदियों से अल्प वर्षा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहाँ कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहाँ के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूँद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख ली थी। छतरपुर शहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक शहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बुटियाँ थीं, पक्षी थे, जानवर थे।
जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहाँ की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गर्मी में भी वहाँ की शाम ठण्डी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब हो जाते। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गई।
नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाड़ी काट देता है, अब वहाँ पक्की सड़क डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहाँ जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही पहाड़ काट लिया। वह दिन कभी भी आ सकता है कि वहाँ का कोई पहाड़ नीचे धँस गया और एक और मालिण बन गया।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए, जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। अब गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लम्बी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाॅबी सब पर भारी है।
कभी सदानीरा कहलाने इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुड़ा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। रेल मार्ग या हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को चालाकी से नजरअन्दाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं।
पारम्परिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित होकर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मलिण गाँव से कुछ ही दूरी पर एक बाँध है, उसको बनाने में वहाँ की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था।
यह जाँच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएँ तो होती ही रहती हैं।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गम्भीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहाँ की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आकर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा होकर उसे उथला बना देती है।
पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियन्त्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गाँव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।
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Post By: RuralWater