पंकज चतुर्वेदी
इस शहर का क्या करें
Posted on 23 Sep, 2011 11:42 AMएक तरफ विकास और तरक्की के नए पैमाने गढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ बेकाबू आबादी, प्रदूषण, गंदगी और बीमारी के नए मर्कज भी बन रहे हैं। गांवों से बढ़ता पलायन और बिना किसी नापजोख के चल रहा शहरीकरण देश की कैसी तस्वीर बना रहा है, बता रहे हैं पंकज चतुर्वेदीशहरीकरण का मतलब ही हो गया है रफ्तार। रफ्तार का मतलब है वाहन। और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित हवा। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए। यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहर का मतलब है उद्योगीकरण और अनियोजित कारखानों की भरमार। नतीजा यह हुआ है कि देश की सभी नदियां जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यों के लिए, न कि गंदगी सोखने के लिए।
साल दर साल बढ़ती गर्मी, फैलता जलसंकट और मरीजों से पटते अस्पताल। इसी तरह की तमाम और समस्याएं हैं जो दिनोंदिन चिंता का विषय बनती जा रही हैं। माना जा रहा है कि इन मुश्किलों की एक बड़ी वजह पर्यावरण का विनाश है। पर्यावरण को नष्ट करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा हाथ है। असल में देखें, तो संकट घटते जंगलों का हो या फिर साफ हवा या साफ पानी का। सभी के जड़ में विकास की वह अवधारणा है जिसमें शहररूपी सुरसा का मुंह फैलता ही जा रहा है। इसके निशाने पर है कुदरत और इंसान। शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर, महानगर। देश की बहुसंख्यक आबादी नगरों की तरफ भाग रही है। यह पलायन काफी कुछ रोजी-रोटी से भी जुड़ा है। रोजगार, आधुनिक सुविधाएं और भविष्य की लालसा में लोगबाग अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन कर रहे हैं।अधूरे है मिलेनियम डेवलपमेंट गोल हासिल करने के प्रयास
Posted on 31 Aug, 2011 10:51 AMबड़ा सवाल ये है कि विकास के बाद दंभ पाल लेने वाले विकसित देश चाहे वो अमेरिका ही क्यों ना हो, क्
आपदा प्रबंधन: अनुभवों से कुछ नहीं सीखा
Posted on 22 Jul, 2011 03:06 PMएक अरब की आबादी वाला देश, जिसकी विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया मे
जलभराव से कैसे मिले छुटकारा
Posted on 05 Jul, 2011 03:13 PMमानसून की आहट के साथ ही पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में छिटपुट बारिश क्या हुई कि साथ-साथ मुसीबत आ गयी। गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले लोग सड़कों पर पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं। बारिश के मौसम में यह हालत केवल दिल्ली की ही नहीं बल्कि कमोबेश हर शहर की है। बरसात में ऐसा ही होता है। सड़कों पर पानी के साथ वाहनों का सैलाब और दिन बीतते-बीतते पानी के लिए त्
खतरे में है नर्मदा का उद्गम स्थल
Posted on 10 May, 2011 02:39 PMमध्य प्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा कहलाने वाली नर्मदा नदी अपने उद्गम स्थल अमरकंटक के चप्पे-चप्पे को प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्ध परम्पराओं की सुगंध देती है। अमरकंटक एक तीर्थस्थान व पर्यटन केंद्र ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक चमत्कार भी है। हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पांच नदियों का उद्गम स्थल है। इनमें से दो सदानीरा, विशाल नदियां हैं जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाओं में है। हाल ही में म
उड़ीसा के तट पर कराहते चमत्कारी कछुए
Posted on 09 May, 2011 11:44 AMओलिव रिडले कछुओं को सबसे बड़ा नुकसान मछली पकड़ने वाले ट्रॉलरों से होता है। वैसे तो ये कछुए समु
क्यों बन जाती है शहरों में बाढ़ की स्थिति
Posted on 03 Mar, 2011 04:11 PM नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माजल संकट के कारकों की बानगी
Posted on 14 Feb, 2011 10:05 AMकर्नाटक के बीजापुर जिले की बीस लाख की आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है।
कहने को इलाके में जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद हैं लेकिन बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं हैं। लोग सूखे नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों- कुओं, बावडि़यों और तालाबों में गाद होने की बात करते हैं जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाले बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।
भगवान रामलिंगा के नाम पर दक्षिण के आदिलशाहों ने जल संरक्षण की अनूठी 'रामलिंगा व्यवस्था' को शुरू किया था। लेकिन समाज और सरकार की उपेक्षा के चलते आज यह समृद्ध परंपरा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। चार सदी पहले अनूठे जल-कुंडों का निर्माण कर तत्कालीन राजशाही ने इस इलाके को जल-संरक्षण का रोल-मॉडल बनाया था।
नदी जोड़ से घाटे में होगा बुंदेलखंड
Posted on 01 Feb, 2011 10:01 AMखबर है कि नदी जोड़ की पहली परियोजना जल्दी शुरू हो सकती है।जिस इलाके के जन प्रतिनिधि जनता के प्रति कुछ कम जवाबदेह हों, जहां जन जागरूकता कम हो, जो पहले से ही शोषित व पिछड़े हों, सरकार में बैठे लोग उस इलाके को नए-नए खतरनाक व चुनौतीपूर्ण प्रयोगों के लिए चुन लेते हैं। सामाजिक-आर्थिक नीति का यह मूल मंत्र है। बुंदेलखंड का पिछड़ापन जग-जाहिर है। भूकंप प्रभावित यह क्षेत्र हर तीन साल में सूखा झेलता है।
जीवकोपार्जन का मूल माध्यम खेती है लेकिन आधी जमीन सिंचाई के अभाव में कराह रही है। नदी जोड़ के प्रयोग के लिए इससे बेहतर इलाका कहां मिलता? सो देश के पहले नदी-जोड़ो अभियान का समझौता इसी क्षेत्र के लिए कर दिया गया।
खतरे में राजहंसों की शरणस्थली
Posted on 29 Dec, 2010 08:58 AM
देश के सबसे महत्वपूर्ण सामरिक महत्व के स्थान श्रीहरिकोटा की पड़ोसी पुलीकट झील को दुर्लभ हंसावर या राजहंस का सबसे मुफीद आश्रय-स्थल माना जाता रहा है। विडंबना है कि इंसान की थोड़ी सी लापरवाही के चलते देश की दूसरी सबसे विशाल खारे पानी की झील का अस्तित्व खतरे में है। चेन्नई से कोई 60 किलोमीटर दूर स्थित यह झील महज पानी का दरिया नहीं है, लगातार सिकुड़ती जल-निधि पर कई किस्म की मछलियों, पक्षी और हजारों मछुआरे परिवारों का जीवन भी निर्भर है। यह दो राज्यों में फैली हुई है- आंध्र प्रदेश का नेल्लोर जिला और तमिलनाडु का तिरूवल्लूर जिला। यहां के पानी में विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है,