बड़ा सवाल ये है कि विकास के बाद दंभ पाल लेने वाले विकसित देश चाहे वो अमेरिका ही क्यों ना हो, क्या सही मायनों में दुनिया के अन्य छोटे एवं गरीब देशों का विकास चाहते हैं या विनाश? अभी भी बड़ी मछली छोटी को निगलने को आतुर है ऐसी ही भावना और सोच के साथ दुनियादारी चल रही है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों ने एक लंबे आंकलन के बाद यह देखा की आज भी भू-भाग के कई हिस्से तरक्की के तमाम दावों के बाद भी विकास की दौड़ में बहुत पीछे है या ऐसा कहा जाये की विकास उन से कोसो दूर है तो असत्य नहीं होगा। अनेक देश गरीबी, कुपोषण, बिमारियों जैसी समस्याओं से जूझ रहें हैं। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में आज भी भरपेट भोजन और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है और कही लोग मिनरल वाटर ही पीते है। इन असमानताओं को दूर करने और पूरी पृथ्वी के जन जीवन को एक समान स्तर पर लाने हेतु मिलेनियम डेवलपमेंट गोल की अवधारणा सामने आयी। ऐसा निश्चय लिया गया की हर एक दशक के बाद इनका आंकलन भी किया जाये, ताकि ये ज्ञात होता रहें की प्रगति संतोषजनक है या अभी और जोर लगाने की जरुरत है। इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी देशों के राजनेताओं ने मुख्यतः आठ उद्देश्य एवं इक्कीस लक्ष्यों का निर्धारण किया। अभी भी दुनिया संपन्नता और मूलभूत सुविधाओं के मामले में लगभग आधी बटी हुई है और इसी विषमता के कारण दुनिया में शिक्षा, स्वस्थ, रोजगार और आर्थिक सुधारों का एक स्तर बनाना बड़ी चुनौती है।
नौजवानों, महिलाओं और पुरुषों के लिये रोजगार, 2015 तक सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा, लैंगिक समानता एवं महिला सशक्तिकरण, शिशु मृत्यु-दर पर नियंत्रण, एड्स और मलेरिया जैसी बीमारियों की रोकथाम, पर्यावरण सुधर, झुग्गियों का विस्थापन और गरीबी उन्मूलन जैसी तमाम लोक-लुभावनी बाते इन लक्ष्यों और उद्देश्यों का सार एवं विस्तार है। सही अर्थों में उक्त उल्लेखित सब बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है जो किसी भी देश की आम नागरिक से लेकर पूरे देश के सामाजिक एवं आर्थिक ताने-बाने के सूत्रधार है, लेकिन पिछले दशक की अवधि में इन लक्ष्यों को प्राप्त और पूर्ण करने की स्थितियों को देखा जाये तो दुनिया भर में असमानता बनी रही है। कुछ देशों ने इनमें से बहुत सारे लक्ष्य हासिल कर लिए है तो कुछ देश ऐसे भी है जो अभी तक इन मंजिलों पर पहुँचने के रास्ते ही तलाश रहे हैं। लक्ष्य प्राप्त करें वाले प्रमुख देशों में हमारा भारत और पड़ोसी चीन अग्रणी है। हम अनेक क्षेत्रों में आगे हैं, जिसकी वास्तविकता का आभास हमारे सामाजिक और आर्थिक परिवेश के स्तर में अब स्पष्ट झलकता है, तो वही चीन ने अपनी निर्धन आबादी को चार करोड़ बावन लाख से घटाकर दो करोड़ अठत्तर लाख करने के साथ और भी कई मापदंडों पर अपनी स्थितियों को सशक्त किया है।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक जैसी विश्व की बड़ी आर्थिक संस्थाए भी दुनिया भर के देशों को निरंतर हर संभव मार्गदर्शन, सहायता और सहयोग प्रदान कर रही हैं। गत माह की 20 से 22 तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क मुख्यालय में पूरे विश्व के प्रतिनिधियों ने इन पर विचार विमर्श कर अब तक की प्रगति का विश्लेषण किया और आगे के लिए क्या करना है इस की रुपरेखा तय किया, लेकिन ये सब उतना आसान नहीं है जितना कागजों पर या योजना बनते समय लगता है। संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग की माने तो पचास से भी अधिक देश ऐसे हैं जो तुलनात्मक रूप से कम विकसित हैं, इन्हें विकसित देशों से निर्धारित एवं निश्चित मदद का मात्र एक तिहाई ही मिल सका है। इसमें भी विकसित देशों ने अपने पिछलग्गू या समर्थक गरीब देश को ही मदद करी है अन्यों को नहीं। इसका मतलब की सहयोग एवं समर्थन में भेदभाव और पक्षपात हावी है साथ ही वायदा खिलाफी भी हो रही है। विकसित देशों को अपने सकल राष्ट्र उत्पादन का 0.7 प्रतिशत तक की राशि अन्य कमजोर देशों को प्रदान करने का वचन दिया था, वह भी अभी तक पूर्ण नहीं हो रहा है।
कमजोर देश भी इन आर्थिक संसाधनों का उपयोग आधारभूत सुविधाओं को जुटाकर स्थाई मजबूती के बजाय सैन्य शक्ति बढ़ाने या प्राकृतिक आपदाओं से जूझने में ही किया है। इन स्थितियों में सुधार के बिना तस्वीर और हालात बदलने की बात बेमानी है। इन सब में सुधार लाने के उद्देश्य से मिलेनियम प्रोमिस एलायंस नाम की संस्था के प्रयास जारी है। इस संस्था की स्थापना प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर जेफरी सचान और मानववादी कार्यकर्त्ता रे चैम्बर ने की है। प्रोफ़ेसर जेफरी तो संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव को मिलेनियम डेवलपमेंट गोल के बारे में सलाह देने के लिए भी आधिकारिक रूप से नियुक्त रहे हैं, पर इस संस्था को भी अभी अपेक्षित सफलता की तलाश है। इस जैसी और भी संस्थाओं को अलग-अलग देशों में अपने स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे तभी कुछ बेहतर संभव है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आह्वान किया है कि इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सभी देशों के मध्य सामंजस्य और भागीदारी और मजबूत करने की जरुरत है और निसंदेह इसका अभाव है, नहीं तो आज दुनिया की तस्वीर बहुत चमकदार होती। बड़ा सवाल ये है कि विकास के बाद दंभ पाल लेने वाले विकसित देश चाहे वो अमेरिका ही क्यों ना हो, क्या सही मायनों में दुनिया के अन्य छोटे एवं गरीब देशों का विकास चाहते हैं या विनाश? अभी भी बड़ी मछली छोटी को निगलने को आतुर है ऐसी ही भावना और सोच के साथ दुनियादारी चल रही है। जैसी भावनात्मक सोच और रुझान एक देश का अपने राज्यों के उत्थान के लिए होता है, वैसा रुझान और लगाव बड़े और शक्तिशाली देश अन्य छोटे देशों के लिए रखते हैं ऐसा मानना सच नहीं है। अन्य बाधाओं के साथ यही भी इन लक्ष्यों की प्राप्ति में एक बड़ा अवरोध है। वैसे भी अनेकों अहम मुद्दों के समय समृद्ध एवं संपन्न देशों संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था को अपने आगे बौना साबित किया है। जब तक बड़े राष्ट्रों की सोच और भावना नहीं परिवर्तित होगी तब तक विश्व कल्याण की कामना ही की जा सकती है, परिणाम मिलना थोड़ा मुश्किल सिद्ध होगा।
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