चन्द नदियां पहाड़ों से निलकती हैं और चन्द नदियां सरोवरों से बहने लगती हैं जो सरोवरों से जन्म लेती है, वे हैं सरोजा। हिमालसय के उस पार दो बहुत बड़े और अत्यन्त पवित्र सरोवर है। एक का नाम है मानस-सरोवर, दूसरे का राकसताल या रावण-ह्रद। इन सरोवरों से निकलने वाली नदियों को सरोजा ही कहना पड़ेगा। यों देखा जाय, तो हिमालय की सभी नदियों को पार्वती नाम दिया जा सकता है। नदियां यानी अप्सरा। पहाड़ों से अप् यानी जब सरने लगता है, बहने लगता है, दौड़ने लगता है, तब उस प्रवाह को जिस तरह हम आप-गा या नदी कहते हैं, उसी प्रकार उसे ‘अप्सरा’ कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है। पार्वती और सरोजा अप्सराओं के दो स्वतंत्र कुल कहे जा सकते हैं यह सारा विचार नया है, लेकिन उससे कल्पना को अच्छी चालना मिल सकती है।
हिमालय कहते ही जिस तरह गंगा और यमुना ये दोनों प्रमुख नदियां पहले ध्यान में आती है, उसी प्रकार हिमालय का आदरपूर्वक चक्कर काटकर हिमालय के उत्तर की तरफ का सारा पानी, एक बूंद भी बेकार न जाने देने तथा दक्षिण की ओर हिन्दुस्तान में लाकर छोड़ने वाली इन नदियों का भी स्मरण हुए बिना नहीं रहता इन नदियों का महात्म्य इतना अधिक है कि हमारे पूर्वजों ने इन्हें नदी कहने के बजाय नद कहना तय किया। सिंधु और ब्रह्मपुत्र-ये दो नद मानस-सरोवर और रावण-ह्रद के परिसर में से निकलकर दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहने लगते हैं। सिंधु-नद पश्चिम की ओर जाकर, हिमालय का चक्कर काटकर, हिन्दुस्तान में ही (अब पाकिस्तान में) दक्षिण की ओर बहने लगता है। ब्रह्मपुत्र जिसका तिब्बती नाम ‘सांग्पो’ है, पूर्व की तरफ दूर तक दौड़ लगाकर फिर एक गहन कांतार (अरण्य) में प्रवेश करता है और आखिर असम देश में प्रकट होता है। यह प्रदेश सचमुच देखने लायक है। हाथ की उंगलियां फैलाने पर उनका जिस प्रकार पंखा बनता है, उस प्रकार असम प्रदेश में सदियां गांव के आस-पास लोहित, डिहंग, सुबनसेरी आदि अनेक नदियों के प्रवाह, पंखे की उंगलियों के सामन, ब्रह्मपुत्र में आकर मिलते हैं।
वहां पंजाब की तरफ, स्वांत, क्रुमू (काबुल) आदि नदियों का पानी साथ लेकर सिंधुनद पंजाब में प्रवेश करता है और फिर कश्मीर या मिट्टनकोट तक जेहलम, चिनाब, रावी बियास और सतलुज इन नदियों के पानी से बनने वाला पंचनद कब आकर अपने में समा जाता है, इसकी राह देखता दौड़ता है। यह संगम भी अद्भुत रम्य है।
आज हमने सिंधु और ब्रह्मपुत्र दोनों नाम स्त्रीलिंग बना दिये हैं, और ब्रह्मपुत्र को ब्रह्मपुत्र कहने लगे हैं।
कुछ भी हो, इतने बड़े प्रचंड हिमालय को मानो अपने भुजपाश में लेने के लिए भारतमाता ने सिंध और ब्रह्मपुत्र ये अपने दो बाहुलम्बे फैलाकर फिर आपस में जोड़ दिये हैं उनके इस भव्य काव्य का चिंतन करते मानवीय मन करीब-करीब समाधिस्थ हो जाता है। सिंधु और ब्रह्मपुत्रा–यो प्रौढ़ कन्यकाएं हिमालय का चक्कर काटती हैं, इसके विपरीत उसकी दो अल्हड़ लड़कियां कहती है, “हम आदर-वादर कुछ नहीं जानतीं। हमें हिमालय के उस पार का जल लेकर हिन्दुस्तान में प्रवेश करना है। पिता जी को हमें राह देनी ही पड़ेगी।” छोटी और लाडली लड़कियां हमेशा शरीर (उधम मचाने वाली) ही होती है, उन्होंने अपना सीधा मार्ग ढूढ़ निकालकर, वृद्ध हिमालय को बिलकुल आर-पार छेदकर, दक्षिण की तरफ आने का निश्चय किया। अपत्यवत्सल हिमालय करता भी क्या? उनकी बात मान गया और दबकर उसने लड़कियों को राह दे दी। सतलुज और घाघरा ही हैं वे दो लड़कियां। इनका उद्गम भी मानस-सरोवर और रावण–ह्रद के परिसर में ही होता है। घाघरा को ही रामायण में सरयू कहा है। इसका उद्गम भी उसके नाम के अनुसार किन्हीं सरोवरों में से ही होने की संभावना है।
मैंने हिमालय का सारा प्रदेश किसी-न-किसी समय आंख भर देख लिया है। हिमालय के वायव्य में अबट्टाबाद और कश्मीर-श्रीनगर से लेकर ठेठ उत्तर-पूर्व की तरफ सदिया और परशुराम कुण्ड तक का सारा प्रदेश मैंने अपनी आंखों से देख लिया है। जहां मेरे पैर या आखें पहुंच नहीं पाई, वहां कल्पना की मदद से विहंगावलोकन किया है और अब तो इस काम में फोटोग्राफी की उत्कृष्ट सहायता होती रहती है। इस प्रदेश में असंख्य नदियां वक्र गतियों से बहती रहती हैं। जगह न मिले या बहुत संकरी हो, तो वे कुछ ऐसी चिढ़ जाती हैं कि उनका वह हुलिया देखकर दिल में प्रेम ही उमड़ आता है!
समतल भूमि पर आहिस्ता-बिलकुल शांति से, बहने वाली नदियां हिन्दुस्तान में असंख्य हैं। उनकी शोभा अलग प्रकार की है। उनका दर्शन करने के लिए हमें किसान की दृष्टि धारण करनी चाहिए और जरूरत के मुताबिक छोटी-बड़ी नहरें निकालने का पुरुषार्थ भी करना चाहिए; लेकिन हिमालयीन नदियों की बात अलग है। उनके किनारे पहुंचकर उनके पवित्र जल का आचमन करने के लिए भी 200-400 फुट नीचे उतरना पड़ता है। फिर, कहां की खेती और कहां की नहरें।
कोई ऐसा न मान बैठे कि सिन्धु और ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना, सरयू और सतलुज इनके नाम लेने पर हिमालय की मुख्य नदियां पूरी हुई। बिहार की पुरानी और नई दो नदियों-गंडक और तूफानी कोसी-इनका नाम भी आदर के साथ ही लेना पड़ता है, लेकिन मेरी अत्यन्त प्रिय नदी है तीस्ता। यह नदी सिक्किम की तरफ के कांचन-जोंगा या पंचहिमाकर पर्वत के हिम-प्रपात से बनती है और दक्षिण की तरफ बहते-बहते ब्रह्मपुत्र में आ मिलती है। इनमें आकर मिलने वाली रंगपो और रंगीत आदि अनेक नदियों के संगम मैंने देखे हैं। नदियों का संगम यानी दो भिन्न रंगों का विलास। यह बात मानो निश्चित ही हो गयी है। दो नदियों का जल आपस में मिल जाने से पहले बहुत समय तक खेल करता रहता है। गंगा-यमुना के मिलनोत्सव का वर्णन कालिदास ने इतना लम्बा-चौड़ा किया है कि हमें महसूस होने लगता है कि मानो हम एक नदी में ही तैर रहे हैं।
गंगा के बारे में भारतीयों की भक्ति ध्यान में रखकर हम उसे भारतमाता कहते हैं, लेकिन वास्तव में वह भारतीयों के पुरुषार्थ से बनी हुई भारतकन्या है। गंगा, यानी भागीरथी, अलकनन्दा, मंदाकिनी आदि अनेक प्रवाहों के अनेक संगम। हरेक संगम को ‘प्रयाग कहा जाता है। ऐसी गंगा का जब यमुना के साथ संगम होता है, तब उस स्थान को हमारे पुरखों ने प्रयागराज का गौरवपुर्ण नाम दिया है।’
हमारी नदियां-यानी हमारा पौराणिक इतिहास और इतिहास-कालीन पुरुषार्थ। हिमालय की तमसा का नाम लेते ही विश्वामित्र का स्मरण होगा ही। यमुना कहते ही वृन्दावन-बिहारी श्रीकृष्ण और कुरुक्षेत्र पर के गीतागायक जगद्गुरु उभय विभूतियों का स्मरण होना अपरिहार्य है। सरयू, यानी प्रभु रामचंद्र की करुण कथा। सप्तसिंधु के किनारे वैदिक आर्यों ने महान पुरुषार्थ किए। युद्ध और यज्ञ उनके पुरुषार्थ की दो धाराएं थीं, और गंगा तो भगीरथ से लेकर ठेठ कबीर तक भारतीय संस्कृति के सब प्रतिनिधियों की प्रवृत्तियों का प्रवाह। बिलकुल दूर-दूर उत्तर-पूर्व ईशान में लोहित ब्रह्म पुत्र के उद्गम के पास जाने पर ही वहां परशुराम का कुण्ड देखने को मिलता है। इक्कीस बार ब्राह्मण-क्षत्रियों का आत्मघातक झगड़ा चला, पर थक जाने के बाद इस स्थान पर उपरत परशुराम के हाथ से उसकी कुल्हाड़ी छूट गई और उसको शांति मिली। गीता का उपदेश सुनाने वाली यमुना के किनारे शांति का वही पाठ गांधी जी के बलिदान के रूप में आज हमें सुनाई देता है।
हिमालय के हिमधवल शिखरों ने शांति का जो सूचन किया, उसे ही ऋषि मुनियों ने हिमालय के अपने आश्रमों में बैठकर किए हुए चिंतन में विकसित किया और उसी निर्वैरता के, अहिंसा के संदेश का अनेक युद्धों के अंत में भारतीयों ने अपने विषादपूर्ण अंतःकरणों में अनुभव किया। हिमालय की सब नदियां इस विविध शांति की साक्षी हैं और हमें अपना इतिहास-सिद्ध शांति-गीत अखंड रूप से सुना रही हैं।
हिमालय कहते ही जिस तरह गंगा और यमुना ये दोनों प्रमुख नदियां पहले ध्यान में आती है, उसी प्रकार हिमालय का आदरपूर्वक चक्कर काटकर हिमालय के उत्तर की तरफ का सारा पानी, एक बूंद भी बेकार न जाने देने तथा दक्षिण की ओर हिन्दुस्तान में लाकर छोड़ने वाली इन नदियों का भी स्मरण हुए बिना नहीं रहता इन नदियों का महात्म्य इतना अधिक है कि हमारे पूर्वजों ने इन्हें नदी कहने के बजाय नद कहना तय किया। सिंधु और ब्रह्मपुत्र-ये दो नद मानस-सरोवर और रावण-ह्रद के परिसर में से निकलकर दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहने लगते हैं। सिंधु-नद पश्चिम की ओर जाकर, हिमालय का चक्कर काटकर, हिन्दुस्तान में ही (अब पाकिस्तान में) दक्षिण की ओर बहने लगता है। ब्रह्मपुत्र जिसका तिब्बती नाम ‘सांग्पो’ है, पूर्व की तरफ दूर तक दौड़ लगाकर फिर एक गहन कांतार (अरण्य) में प्रवेश करता है और आखिर असम देश में प्रकट होता है। यह प्रदेश सचमुच देखने लायक है। हाथ की उंगलियां फैलाने पर उनका जिस प्रकार पंखा बनता है, उस प्रकार असम प्रदेश में सदियां गांव के आस-पास लोहित, डिहंग, सुबनसेरी आदि अनेक नदियों के प्रवाह, पंखे की उंगलियों के सामन, ब्रह्मपुत्र में आकर मिलते हैं।
वहां पंजाब की तरफ, स्वांत, क्रुमू (काबुल) आदि नदियों का पानी साथ लेकर सिंधुनद पंजाब में प्रवेश करता है और फिर कश्मीर या मिट्टनकोट तक जेहलम, चिनाब, रावी बियास और सतलुज इन नदियों के पानी से बनने वाला पंचनद कब आकर अपने में समा जाता है, इसकी राह देखता दौड़ता है। यह संगम भी अद्भुत रम्य है।
आज हमने सिंधु और ब्रह्मपुत्र दोनों नाम स्त्रीलिंग बना दिये हैं, और ब्रह्मपुत्र को ब्रह्मपुत्र कहने लगे हैं।
कुछ भी हो, इतने बड़े प्रचंड हिमालय को मानो अपने भुजपाश में लेने के लिए भारतमाता ने सिंध और ब्रह्मपुत्र ये अपने दो बाहुलम्बे फैलाकर फिर आपस में जोड़ दिये हैं उनके इस भव्य काव्य का चिंतन करते मानवीय मन करीब-करीब समाधिस्थ हो जाता है। सिंधु और ब्रह्मपुत्रा–यो प्रौढ़ कन्यकाएं हिमालय का चक्कर काटती हैं, इसके विपरीत उसकी दो अल्हड़ लड़कियां कहती है, “हम आदर-वादर कुछ नहीं जानतीं। हमें हिमालय के उस पार का जल लेकर हिन्दुस्तान में प्रवेश करना है। पिता जी को हमें राह देनी ही पड़ेगी।” छोटी और लाडली लड़कियां हमेशा शरीर (उधम मचाने वाली) ही होती है, उन्होंने अपना सीधा मार्ग ढूढ़ निकालकर, वृद्ध हिमालय को बिलकुल आर-पार छेदकर, दक्षिण की तरफ आने का निश्चय किया। अपत्यवत्सल हिमालय करता भी क्या? उनकी बात मान गया और दबकर उसने लड़कियों को राह दे दी। सतलुज और घाघरा ही हैं वे दो लड़कियां। इनका उद्गम भी मानस-सरोवर और रावण–ह्रद के परिसर में ही होता है। घाघरा को ही रामायण में सरयू कहा है। इसका उद्गम भी उसके नाम के अनुसार किन्हीं सरोवरों में से ही होने की संभावना है।
मैंने हिमालय का सारा प्रदेश किसी-न-किसी समय आंख भर देख लिया है। हिमालय के वायव्य में अबट्टाबाद और कश्मीर-श्रीनगर से लेकर ठेठ उत्तर-पूर्व की तरफ सदिया और परशुराम कुण्ड तक का सारा प्रदेश मैंने अपनी आंखों से देख लिया है। जहां मेरे पैर या आखें पहुंच नहीं पाई, वहां कल्पना की मदद से विहंगावलोकन किया है और अब तो इस काम में फोटोग्राफी की उत्कृष्ट सहायता होती रहती है। इस प्रदेश में असंख्य नदियां वक्र गतियों से बहती रहती हैं। जगह न मिले या बहुत संकरी हो, तो वे कुछ ऐसी चिढ़ जाती हैं कि उनका वह हुलिया देखकर दिल में प्रेम ही उमड़ आता है!
समतल भूमि पर आहिस्ता-बिलकुल शांति से, बहने वाली नदियां हिन्दुस्तान में असंख्य हैं। उनकी शोभा अलग प्रकार की है। उनका दर्शन करने के लिए हमें किसान की दृष्टि धारण करनी चाहिए और जरूरत के मुताबिक छोटी-बड़ी नहरें निकालने का पुरुषार्थ भी करना चाहिए; लेकिन हिमालयीन नदियों की बात अलग है। उनके किनारे पहुंचकर उनके पवित्र जल का आचमन करने के लिए भी 200-400 फुट नीचे उतरना पड़ता है। फिर, कहां की खेती और कहां की नहरें।
कोई ऐसा न मान बैठे कि सिन्धु और ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना, सरयू और सतलुज इनके नाम लेने पर हिमालय की मुख्य नदियां पूरी हुई। बिहार की पुरानी और नई दो नदियों-गंडक और तूफानी कोसी-इनका नाम भी आदर के साथ ही लेना पड़ता है, लेकिन मेरी अत्यन्त प्रिय नदी है तीस्ता। यह नदी सिक्किम की तरफ के कांचन-जोंगा या पंचहिमाकर पर्वत के हिम-प्रपात से बनती है और दक्षिण की तरफ बहते-बहते ब्रह्मपुत्र में आ मिलती है। इनमें आकर मिलने वाली रंगपो और रंगीत आदि अनेक नदियों के संगम मैंने देखे हैं। नदियों का संगम यानी दो भिन्न रंगों का विलास। यह बात मानो निश्चित ही हो गयी है। दो नदियों का जल आपस में मिल जाने से पहले बहुत समय तक खेल करता रहता है। गंगा-यमुना के मिलनोत्सव का वर्णन कालिदास ने इतना लम्बा-चौड़ा किया है कि हमें महसूस होने लगता है कि मानो हम एक नदी में ही तैर रहे हैं।
गंगा के बारे में भारतीयों की भक्ति ध्यान में रखकर हम उसे भारतमाता कहते हैं, लेकिन वास्तव में वह भारतीयों के पुरुषार्थ से बनी हुई भारतकन्या है। गंगा, यानी भागीरथी, अलकनन्दा, मंदाकिनी आदि अनेक प्रवाहों के अनेक संगम। हरेक संगम को ‘प्रयाग कहा जाता है। ऐसी गंगा का जब यमुना के साथ संगम होता है, तब उस स्थान को हमारे पुरखों ने प्रयागराज का गौरवपुर्ण नाम दिया है।’
हमारी नदियां-यानी हमारा पौराणिक इतिहास और इतिहास-कालीन पुरुषार्थ। हिमालय की तमसा का नाम लेते ही विश्वामित्र का स्मरण होगा ही। यमुना कहते ही वृन्दावन-बिहारी श्रीकृष्ण और कुरुक्षेत्र पर के गीतागायक जगद्गुरु उभय विभूतियों का स्मरण होना अपरिहार्य है। सरयू, यानी प्रभु रामचंद्र की करुण कथा। सप्तसिंधु के किनारे वैदिक आर्यों ने महान पुरुषार्थ किए। युद्ध और यज्ञ उनके पुरुषार्थ की दो धाराएं थीं, और गंगा तो भगीरथ से लेकर ठेठ कबीर तक भारतीय संस्कृति के सब प्रतिनिधियों की प्रवृत्तियों का प्रवाह। बिलकुल दूर-दूर उत्तर-पूर्व ईशान में लोहित ब्रह्म पुत्र के उद्गम के पास जाने पर ही वहां परशुराम का कुण्ड देखने को मिलता है। इक्कीस बार ब्राह्मण-क्षत्रियों का आत्मघातक झगड़ा चला, पर थक जाने के बाद इस स्थान पर उपरत परशुराम के हाथ से उसकी कुल्हाड़ी छूट गई और उसको शांति मिली। गीता का उपदेश सुनाने वाली यमुना के किनारे शांति का वही पाठ गांधी जी के बलिदान के रूप में आज हमें सुनाई देता है।
हिमालय के हिमधवल शिखरों ने शांति का जो सूचन किया, उसे ही ऋषि मुनियों ने हिमालय के अपने आश्रमों में बैठकर किए हुए चिंतन में विकसित किया और उसी निर्वैरता के, अहिंसा के संदेश का अनेक युद्धों के अंत में भारतीयों ने अपने विषादपूर्ण अंतःकरणों में अनुभव किया। हिमालय की सब नदियां इस विविध शांति की साक्षी हैं और हमें अपना इतिहास-सिद्ध शांति-गीत अखंड रूप से सुना रही हैं।
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