कन्याकुमारी की भव्यता

1970 के साल के अंतिम दिन थे सुबह तड़के उठकर, नहा-धोकर, प्रार्थना करके मदुराई से हम चल पड़े। विरुध नगर के पास साढ़े छः बजे सूर्योदय-पूर्व की शोभा देखी और साढ़े दस बजे हम कन्याकुमारी पहुंचे।

अभी सागर के दर्शन होंगे, अभी होंगे ऐसी उत्कण्ठा से दक्षिण की ओर देखते-देखते हम समुद्र तट पर पहुंचे। सागर-दर्शन के कंफ का मजा लूटने की यहां बात नहीं थी परंतु बढ़ने वाले कैफ से कैसे बच जायें यहीं मुख्य बात थी।

एक यात्री सारे भारत की असंख्य बार यात्रा करके रामेश्वर या कन्याकुमारी आ पहुंचा है, उसके सारे संकल्प पूरे हुए हैं और केवल हृदय में कृतार्थता धारण कर रत्नाकर महोदधि के दर्शन करता है ऐसा एक चित्र बहुत वर्ष पहले देखा था। आज लगा कि वह चित्र मेरा ही था।

कन्याकुमारी का करुण माहात्म्य मैंने कभी का पढ़ा है। दक्षिण के अगस्त्य ऋषि से लेकर स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी की आंखों से सागर-दर्शन करते हुए भारतीय अध्यात्म के साथ एक हृदय हुआ हूं। मैंने एक विराट एक्यात्म्य अनुभव किया है। और फिर भी कन्याकुमारी याने तीन सागरों का संगम यह विचार मेरे मन में प्रधान स्थान रखता था।

जब-जब कन्याकुमारी आया हूं तब-तब तीन महासागरों के संगम का ध्यान किया है। परन्तु यहां तो पश्चिम, दक्षिण और पूर्व तीन दिशाओं के संगम से अलग ‘सागर-संगम’ नजर नहीं आया। सर्वत्र विशाल जलराशि। इसलिए संगम के बाद जिस अद्वैत का अनुभव होता है। उसी के माहात्म्य का मैंने अनुभव किया और गान किया।

आज एक नया ही विचार आया।

जिसे हम हिन्द महासागर कहते हैं वह दक्षिण महासागर अलग और पूर्व तथा पश्चिम सागर भी अलग ऐसा भूगोलवेत्ताओं ने भले ही कहा हो परंन्तु सचमुच तो हिंद महासागर अकेला ही यहां विराजमान है।

इस अनुभव के साथ एक नयी कल्पना स्फुरी कि हिंद महासागर ने भारत भूमि को अपने आलिंगन (बाहुपाश) में लेने के लिए अपना दाहिने हाथ का पूर्वसागर बनाया और बायें हाथ का पश्चिम सागर बनाया है। यही बात सच है।

फिर तो कल्पना के विमान में बैठकर काफी ऊंचे जाकर वहां से हिंद महासागर भारत भूमि को अपनाना चाहता है यह दृश्य देखा।

और तुरन्त मेरी पुरानी कल्पना के साथ इसका मेल बैठ गया।

भूगोल के शिक्षक की हैसियत से नक्शे के सामने खड़े होकर विद्यार्थियों को मैंने समझाया है (और लेखों में भी लिखा है) कि चन्द्राकार हिमालय ने कश्मीर से असम तक फैले हुए अपने हृदय के साथ भारतभूमि को एक करने के लिए दो बाजू अपने दो हाथ फैलाये हैं। कश्मीर से अफगानिस्तान और बलूचिस्तान को अलग करने वाले छोटे-बड़े पहाड़ मानों हिमालय का दाहिना हाथ हैं और पूर्ववत कोई पहाड़ों से प्रारंभ होने वाली गिरिमाला असम को अलग करती हुई ब्रह्मदेश के किनारे जा पहुंचती है वह हिमालय का बायां हाथ है। और हिमालय ने दो हाथों से भारतभूमि को अपनी छाती से लगाने का मानों संकल्प किया है। यह चित्र मैंने जैसा देखा और अनुभव किया वह अपने विद्यार्थियों के सामने और पाठकों के सामने प्रकट करने का प्रयत्न किया है।

आज कल्पना के द्वारा आकाश में ऊंचे पहुंचकर देखता हूं तो एक ओर हिमालय अपनी दो भूजाएं फैलाकर खड़ा है और उसके साथ ताल जमानेवाला दक्षिण महासागर अपने सामुद्र बाहु फैलाकर खड़ा है। सबसे ऊंचा विस्तीर्ण हिमालय और सबसे गहरा विशाल हिंद महासागर। दोनों के प्रेमपूर्ण आशीर्वाद मेरी भारतमाता अनुभव करती है यह चित्र आंखों से देखा और धन्य-धन्य हो गया। बड़ा सवाल यही है कि यह मस्ती दिल हजम करेगा या दिल अपने बंधन तोड़ने को तैयार हो जायेगा।

दिल देखने में भले ही छोटा हो परंतु उसकी शक्ति भगवान की ही शक्ति है। छोटी-सी दो आंखें आसमान की तमाम ज्योतियों को आत्मसात् करती हैं तो दिल स्वयं भारतमाता की धन्यता क्यों अनुभव नहीं करेगा? आज प्रथम दर्शन पर ही धन्यता भी तृप्त हो गई है। अब जो कुछ देखूंगा, चिंतन करूंगा, आनंदानुभव करूंगा वह इसी तृप्ति की खुशबू ही होगी।

प्राचीन ऋषियों ने वेद द्वारा हमें जो धर्म ज्ञान और अध्यात्म का ज्ञान दिया उसे समझने के लिए और उसका विस्तार करने के लिए इतिहास और पुराणों की सहायता लेना ऐसा उन्हीं ऋषियों ने कहा है।

इतिहास-पुराणाभ्याम् वेदं समुपवृं हयेत्।
हमारे लोगों ने वेद का रहस्य समझने के लिए भाष्य और पुराणों का उपयोग किया। अब हम इतिहास की मदद से वेदांत और धर्म रहस्य समझने की कोशिश करेंगे।

भारतमाता की भक्ति करते हुए और आजादी के लिए मेहनत करते हुए मैं देवी का उपासक बना। देवी के पौराणिक चरित्र पढ़े। परन्तु इतिहास पूर्व काल से शुरू होने वाले भारत भूमि के इतिहास को यादकर भारत भाग्य-विधाता हमें कौन-सा काम सुपुर्द करता है इसका विचार करने लगा। उसमें से मैं नये ढंग का देवी उपासक हुआ और इतिहास में जिसकी क्रिड़ा के दर्शन होते हैं। उस काल-भगवान और उनकी शक्ति काली-उनकी लीला समझने का प्रयत्न करता रहा हूं।

जब-जब कन्याकुमारी आया हूं, इतिहास का आध्यात्मिक रहस्य भी समझने का मैंने प्रयत्न किया है। और कालातीत प्रेरणा का विचार भी करता रहा हूं।

उसमें ब्रह्मचर्य का चिंतन हमेशा गहरा हुआ है। साथ ही ब्रह्मचर्य की एक विभूति अलिप्तता का भी चिंतन करता हूं। अलिप्तता यानी निवृत्ति नहीं, तटस्थता।

आज यह सारा चिंतन उग्रता से किया और फिर कालातीत भगवान का चिंतन जोरों से चलाया।

कालः काल्या भुवनफल के क्रिड़ते पाणि-शारैः।
इस वचन का इतिहास के लिए उपयोग किया और अलिप्तभाव से तमाम इतिहास को एक ओर रखकर परमात्मा का उत्कट चिंतन किया। उसमें से क्या-क्या मिला यह तो असंख्य लेखों के द्वारा व्यक्त और स्पष्ट करना होगा।

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