भारत डोगरा
नदी कटान से त्रस्त गांव
Posted on 06 Jan, 2011 11:37 AM
आपने कभी किसी व्यक्ति को अपने आवास की नींव को स्वयं उजाड़ते देखा है?
यह दर्दनाक दृश्य पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहराईच जिले के उन गांवों में बेहद आम हो चुका है जहां नदी का कटान तेजी से हो रहा है। जिस परिवार का आवास कटान की चपेट में आ रहा होता है वह स्वयं मजबूरी में अपने आवास को तोड़ता है ताकि कम से कम इंट-पत्थर ले जाकर कहीं स्थाई आवास बना सके।
न बाढ़ रहे न सूखा
Posted on 23 Mar, 2024 01:08 PMबाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की-एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें हैं तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसते सूखी, प्यासी धरती। इसके बावजूद प्रायः यह देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल-प्रबंध का अभाव। जल-संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामन
खतरनाक रसायनों से होने वाले कैंसर पर कानूनी निर्णय
Posted on 24 Aug, 2018 03:52 PMहाल ही में कैलिफोर्निया की एक अदालत ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में मोनसेंटो बहुराष्ट्रीय कम्पनी को जानसन नामक एक व्यक्ति को लगभग 29 करोड़ डालर की क्षतिपूर्ति राशि देने को कहा। यह कम्पनी ग्लाइफोसेट (glyphosate) नामक खतरनाक रसायन बनाती है जिसे वह राउंड अप (roundup) व
छोटी परियोजनाओं के फायदे
Posted on 08 Feb, 2015 12:48 PMपानी को कुछ पक्का और कुछ कच्चा निर्माण कर रोका गया। इस पानी को रोकने का असर यह हुआ कि कहीं कम तो कहीं अधिक पर लगभग पाँच से दस गाँवों में पानी ‘रिचार्ज’ होने लगा और भूजल स्तर ऊपर उठने लगा। जिन कुँओं का पहले बहुत कम उपयोग हो पाता था उनसे सिंचाई के लिए पानी मिलने लगा। खेती से मिट्टी का कटान कम हो गया। रबी में गेहूँ, सरसों, जौ और सब्जियों की खेती होने लगी। चारागाह में हरियाली बढ़ गई और यहाँ के पशुओं को पीने के लिए पानी मिलने लगा।
अरबों रुपयों की लागत से बनी बड़े बाँधों की अनेक महँगी परियोजनाएँ अपेक्षित लाभ देने में विफल रही हैं। दूसरी ओर अपेक्षाकृत बहुत कम बजट की अनेक छोटी परियोजनाओं ने वर्षा के जल को रोककर अनेक गाँवों को नई उम्मीद दी है। इन छोटी परियोजनाओं में जहाँ गाँववासियों की नजदीकी भागीदारी से कार्य किया गया है और पारदर्शिता के तौर-तरीकों से भ्रष्टाचार को दूर रखा गया है, वहाँ अपेक्षाकृत बहुत कम बजट में ही कई गाँवों को हरा-भरा किया जा सका है।ऐसी ही एक कम बजट में बड़ा लाभ देने वाली परियोजना है जयपुर जिले की कोरसिना परियोजना। कोरसिना पंचायत और आसपास के कुछ गाँव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षों में इन गाँवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था।
टिकाऊ खेती ने दिखाई राह
Posted on 07 Nov, 2013 10:38 AMपूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कई वर्षों से प्रयासरत गोरखपुर एंवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस संस्था ने जिले के सरदार नगर और कैंपियरगंज ब्लाकों के गाँवों में खेती किसानी को नई राह दिखाई है। अन्य संस्थाओं के सहयोग से इसे पूर्वांचल के जिलों में फैलाने में भी मदद की है। इस संस्था ने तीन बिंदुओं पर ध्यान दिया है। पहली बात तो यह है कि कृषि के लिए बाजार के महंगे उत्पादों पर निर्भर होने के स्थान पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निशुल्क, संसाधनों का बेहतर प्रयोग किया जाए और इसकी वैज्ञानिक सोच को किसानों तक ले जाया जाए।
हाल के वर्षों में खेती-किसानी का जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ उसका एक मुख्य कारण यह था कि छोटे किसानों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर कृषि विकास का प्रयास किया गया। ऐसी तकनीकों का प्रसार हुआ जो न केवल महंगी है बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को क्षतिग्रस्त कर भविष्य में और ज्यादा खर्च की भूमिका भी तैयार करती हैं। पर्यावरण से खिलवाड़ कर कई नई बीमारियों और समस्याओं को निमंत्रण देती हैं। महंगी तकनीकों के कारण छोटे किसानों में कर्ज की समस्या बढ़ गई। उधर भूमि सुधार की विफलता के कारण भूमिहीन कृषि मज़दूरों को छोटे किसान बनाने का कार्य भी पीछे छूट गया। चिंताजनक स्थिति में भी उत्साहवर्धक बात यह है कि कई संस्थाओं और संगठनों के प्रयोग ने देश के करोड़ों किसानों को संकट से बाहर निकालने की राह भी दिखाई है। तमाम सीमाओं के बावजूद आर्गेनिक खेती ने अपना असर दिखाया है।सूखे से निपटती छोटी जल परियोजनाएं
Posted on 30 Jun, 2012 10:31 AMबेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए 18 लाख रुपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया। इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति। अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए ही किया गया। मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली। इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुईं तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा।
जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाओं के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाओं से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है।जल संकट दूर करने के सफल प्रयास
Posted on 16 Feb, 2012 11:27 AMकोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इससे लगभग 50 कुओं का जल स्तर ऊपर उठ गया। अनेक हैंडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला। कोरसीना के एक मुख्य कुएं से पाइपलाइन अन्य गांवों तक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है।यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त कर पाई तो इसका लाभ 20 गांवों के लोगों, किसानों को मिल सकता है। इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जंतुओं, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है।
जहां किसी महानगर के पॉश इलाकों में मात्र एक फ्लैट की कीमत एक करोड़ रुपए तक पहुंच रही है, वहां इससे भी कम धन राशि में पेयजल संकट झेल रहे 40 गांवों के लगभग 50,000 लोगों व 1,50,000 पशुओं का संकट दूर किया जा सकता है, पर इसके लिए जरूरी है स्थानीय गांववासियों की भागेदारी से काम करना। यह अनुकरणीय उदाहरण राजस्थान के जयपुर व अजमेर जिलों में तीन स्वैच्छिक संस्थाओं ने प्रस्तुत किया है। कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांवों में पेयजल का संकट इतना बढ़ गया था कि कुछ वर्षों में इन गांवों के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न होने वाला था। दरअसल, राजस्थान के जयपुर जिले (दुधू ब्लॉक) में स्थित यह गांव सांभर झील के पास स्थित होने के कारण खारे पानी के असर से बहुत प्रभावित हो रहे थे। इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवों में खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है।रेत में लोटती हरियाली
Posted on 13 May, 2011 11:24 AMधरती की जल-ग्रहण क्षमता बढ़ गई है। इसके साथ अनेक वन्य जीवों व पक्षियों को जैसे नवजीवन मिल गया है। एक समय बंजर सूख रही इस धरती पर जब हम घूम रहे थे तो पक्षियों के चहचहाने के बीच हमें नीलगाय के झुंड भी नजर आए। वह हरियाली उनके लिए भी उतना ही वरदान है जितना गाँववासियों के लिए।
सूखी भूमि को हरा-भरा करने का कार्य बहुत जरूरी है, सब मानते हैं, फिर भी न जाने क्यों पौधरोपण व वनीकरण के अधिकांश कार्य उम्मीद के अनुकूल परिणाम नहीं दे पाते हैं। खर्च अधिक होने पर भी बहुत कम पेड़ ही बच पाते हैं। इस तरह के अनेक प्रतिकूल समाचारों के बीच यह खबर बहुत उत्साहवर्धक है कि राजस्थान में सूखे की अति प्रतिकूल स्थिति के दौर में भी एक लाख से अधिक पेड़ों को पनपाने का काम बहुत सफलता से किया गया है।