पानी को कुछ पक्का और कुछ कच्चा निर्माण कर रोका गया। इस पानी को रोकने का असर यह हुआ कि कहीं कम तो कहीं अधिक पर लगभग पाँच से दस गाँवों में पानी ‘रिचार्ज’ होने लगा और भूजल स्तर ऊपर उठने लगा। जिन कुँओं का पहले बहुत कम उपयोग हो पाता था उनसे सिंचाई के लिए पानी मिलने लगा। खेती से मिट्टी का कटान कम हो गया। रबी में गेहूँ, सरसों, जौ और सब्जियों की खेती होने लगी। चारागाह में हरियाली बढ़ गई और यहाँ के पशुओं को पीने के लिए पानी मिलने लगा।
अरबों रुपयों की लागत से बनी बड़े बाँधों की अनेक महँगी परियोजनाएँ अपेक्षित लाभ देने में विफल रही हैं। दूसरी ओर अपेक्षाकृत बहुत कम बजट की अनेक छोटी परियोजनाओं ने वर्षा के जल को रोककर अनेक गाँवों को नई उम्मीद दी है। इन छोटी परियोजनाओं में जहाँ गाँववासियों की नजदीकी भागीदारी से कार्य किया गया है और पारदर्शिता के तौर-तरीकों से भ्रष्टाचार को दूर रखा गया है, वहाँ अपेक्षाकृत बहुत कम बजट में ही कई गाँवों को हरा-भरा किया जा सका है।ऐसी ही एक कम बजट में बड़ा लाभ देने वाली परियोजना है जयपुर जिले की कोरसिना परियोजना। कोरसिना पंचायत और आसपास के कुछ गाँव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षों में इन गाँवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था।
जयपुर जिले के दुधू ब्लाक में स्थित यह गाँव साम्भर झील के पास स्थित होने के कारण खारे और लवणयुक्त पानी के असर से बहुत प्रभावित हो रहे थे। साम्भर झील में नमक बनता है पर इसका प्रतिकूल असर आसपास के गाँवों में खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है।
कोरसिना परियोजना सपना पूरा होता नजर आया जब बेलू वाटर नामक संस्थान ने इसके लिए अठारह लाख रुपए का अनुदान देना स्वीकार कर लिया। इस छोटे बाँध की योजना में न तो कोई विस्थापन हुआ न पर्यावरण की क्षति। अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गाँववासियों को मजदूरी देने के लिए किया गया। इस तरह गाँववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुई और साथ ही ऊँचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा।
जल ग्रहण क्षेत्र का उपचार कर इसकी हरियाली बढ़ाई गई। खुदाई से जो मिट्टी बालू मिला, उसका उपयोग मुख्य बाँध स्थल से नीचे और मेढ़बन्दी के लिए भी किया गया। कोरसिना बाँध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इसके लाभ के बारे में स्थानीय गाँववासियों ने बताया कि इससे लगभग पचास कुँओं का जल स्तर ऊपर उठ गया।
अनेक हैण्डपम्पों और तालाब को भी लाभ मिला। कोरसिना के एक मुख्य कुएँ से पाइप लाइन अन्य गाँवों तक पहुँचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गाँवों तक भी पहुँचता है। गाँववासियों की भागीदारी से ऐसी छोटी परियोजनाएँ बिना विस्थापन और पर्यावरण क्षति के बेहतर लाभ दे सकती हैं। इसी तरह की कम बजट में अधिक लाभ देने वाली कुछ अन्य जल संरक्षण और संग्रहण परियोजनाएँ जयपुर के पड़ोस के अजमेर जिले में भी देखी जा सकती हैं।
करीब बयालीस लाख रुपए की लागत से किशनगढ़ ब्लाक में बनाई गई मण्डावरिया परियोजना का क्रियान्वयन शोध एवं विकास संस्थान, नालू ने किया है। इस योजना से लगभग दस गाँवों को लाभ पहुँचा है और पाँच गाँवों को सघन रूप से अधिक लाभ मिला है। पहले मण्डावरी पहाड़ से बहुत सा पानी ऐसे ही बह जाता था और इससे खेतों की मिट्टी का कटान भी होता था।
इस पानी को कुछ पक्का और कुछ कच्चा निर्माण कर रोका गया। इस पानी को रोकने का असर यह हुआ कि कहीं कम तो कहीं अधिक पर लगभग पाँच से दस गाँवों में पानी ‘रिचार्ज’ होने लगा और भूजल स्तर ऊपर उठने लगा। जिन कुँओं का पहले बहुत कम उपयोग हो पाता था उनसे सिंचाई के लिए पानी मिलने लगा। खेती से मिट्टी का कटान कम हो गया। रबी में गेहूँ, सरसों, जौ और सब्जियों की खेती होने लगी। चारागाह में हरियाली बढ़ गई और यहाँ के पशुओं को पीने के लिए पानी मिलने लगा।
गाँववासियों के लिए भी पेयजल की उपलब्धि बेहतर हो गई। पीपल जैसे कई छायादार पेड़ लगा देने से गाँवों की हरियाली और बढ़ गई।
बयालीस लाख रुपए में दिल्ली जैसे शहर में एक फ्लैट भी कठिनाई से मिलता है, पर इतने पैसे का ग्रामीण स्थितियों में सावधानी से उपयोग किया जाए और सही नियोजन हो तो इसका लाभ हजारों गाँववासियों और पशु-पक्षियों को मिलता है। जल-संकट बढ़ना और गाँव के जलस्तर का नीचे जाना बहुत से गाँवों की बड़ी समस्या है। पालूना एनीकट परियोजना ने एक उम्मीद भरा उदाहरण प्रस्तुत किया है कि अपेक्षाकृत कम बजट की परियोजना से भी इस समस्या से काफी राहत मिलती है।
अजमेर जिले के जवाजा ब्लाक के पालूना गाँव में बने इस एनीकट के क्रियान्वयन में बेयरफुट कालेज के जवाजा केन्द्र की मुख्य भूमिका रही। यहाँ के मुख्य समन्यवक हंसस्वरूप बताते हैं, ‘इस एनीकट पर लगभग इक्कीस लाख रुपए खर्च हुए और इसका लाभ कई गाँवों को मिला। इसके बनने से लगभग तमाम कुँओं का जलस्तर उठ गया है और हैण्डपम्पों में ठीक से पानी आने लगा। एक हैण्डपम्प से तो बिना चलाए भी पानी बहने लगा। जबकि पहले इन्ही क्षेत्रों में जलस्तर नीचे जाने की चिन्ता उत्पन्न हो रही थी।’
सिंचाई जल और पेयजल दोनों तरह से यह एनिकट बहुत लाभदायक रहा है। पशुओं के लिए पानी की स्थिति बहुत सुधर गई है। जंगली पशुओं और पक्षियों के लिए भी राहत मिली है। यहाँ नीलगाय जैसे अनेक पशु और मोर जैसे अनेक पक्षी भी अपनी प्यास बुझाते हैं।
इस परियोजना की सफलता का मुख्य आधार यह रहा कि गाँववासियों के सहयोग से पूरा नियोजन किया गया। महिलाओं की परियोजना में बड़ी भागीदारी रही। उन्होंने मजदूरी भी पाई और उनके गाँवों को स्थाई लाभ भी मिला। स्थान का चुनाव करने में भी गाँववासियों की सलाह को प्राथमिकता दी गई।
इसी तरह बढ़कोचरा पंचायत में हुए अन्य विकास कार्यों में भी व्यापक जन-भागीदारी से सफलता मिली है। यहाँ अनेक नाड़ियों और जल संरक्षण कार्यों का निर्माण हुआ है। एक नाड़ी तो इतने अनुकूल स्थान पर बनाई गई (बेरुखेरा) कि पिछले लगभग दस वर्षों से अभी तक उसका पानी सूखा ही नहीं है। सूखे के वर्ष में भी उसमें पूरे वर्ष पानी बना रहा।
बेयरफुट कॉलेज के जल-संचयन सम्बन्धी तमाम कामों की शुरुआत उसके खुद के तिलोनिया-स्थित परिसर से होती है। सावधानी से डिजाइन किए गए पाइपों की मदद से छतों के ऊपर जमा हुए वर्षा के पानी को भूमि के अन्दर टांकों में संग्रहीत किया जाता है। आसपास के बहते वर्षा जल को थोड़े समय के लिए रोका जाता है और फिर एक खुले में कुएँ में गिरा दिया जाता है। अतिबहाव के समय अतिरिक्त पानी को एक दूसरे कुएँ में प्रवाहित कर दिया जाता है। छत के पानी को पेयजल के रूप में संग्रहीत किया जाता है और बाकी के दूसरे प्रकार के वर्षा जल को भूमिगत जल के रिचार्ज के काम में लाया जाता है।
इसी का नतीजा है कि जब गर्मी में अगल-बगल के गाँवों में हैण्डपम्प का पानी सूख जाता है, तिलोनिया के कार्यालय परिसर के हैण्डपम्प में पानी आता रहता है। नमी-संरक्षण, एक पतले पाइप के सहारे बूँद-बूँद सिंचाई जैसे उपायों के सहारे ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि हाल के दशक की कम वर्षा और सूखे के बावजूद कार्यालय परिसर हरा-भरा लगता है। आसपास पेड़ों की हरियाली रहती है और पक्षियों की चहचहाहटों से परिसर गुंजायमान रहता है। गन्दे पानी को फिर चक्रित करके पेड़ों की सिंचाई के काम में प्रयोग किया जाता है। विशाल जल संग्रहण क्षमता की टंकी इतना बड़ी है कि उस पर एक हजार से ज्यादा लोगों की सभा आयोजित हो जाती है।
तिलोनिया का परिसर बताता है कि कैसे वर्षा के पानी को ज्यादा-से-ज्यादा इकट्ठा किया जा सकता है। कई लाख लीटर पानी इस प्रकार थोड़े दिनों में जमीन के नीचे संग्रहीत हो जाता है और भूमिगत जलस्तर में गुणात्मक सुधार हो जाता है।
बेयरफुट कॉलेज के जल संरक्षण परियोजना के संयोजक रामकरण बताते हैं कि उन गाँवों में जहाँ पानी में खारेपन की शिकायत थी, वहाँ जब जल संचयन के अलग-अलग तरीके अपनाए गए जैसे नाड़ी, एनीकट, चेकडैम वगैरह तो जल का खारापन काफी हद तक दूर हो गया।
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Post By: Shivendra