न बाढ़ रहे न सूखा

न बाढ़ रहे न सूखा
न बाढ़ रहे न सूखा

बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की-एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें हैं तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसते सूखी, प्यासी धरती। इसके बावजूद प्रायः यह देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल-प्रबंध का अभाव। जल-संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर यदि जल-संरक्षण की उचित व्यवस्था हम कर सकें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।

भारत में वर्षा और जल-संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि यूरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है। यूरोप में वर्षा धीरे-धीरे पूरे साल होती रहती है। इसके विपरीत भारत के अधिकतर भागों में वर्ष 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मुसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घण्टों में ही हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण यूरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत की वर्षा की तुलना में यूरोप में वर्षा की सामान्य बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण भी उसकी मिट्टी काटने की क्षमता कम होती है। यूरोप में बहुत-सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे पृथ्वी में समाती रहती है। भारत में बहुत-सी वर्षा मुसलाधार वर्षा के रूपमें गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत अधिक क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक, प्रवृत्ति है कि यदि उसके जल के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत-सी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा, न धरती में रिसेगा, अतः कुछ समय बाद जल-संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है। इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेल कर उसे धरती पर बीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भण्डार को बढ़ाने का अति महत्वपूर्ण कार्य करे। दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है, उसके अधिकतम सम्भव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़ कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भी भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे मेढ़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आस-पास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाले तालाब का विशेष डिजाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुँच सके और इस तरह तालाब की एक सीरीज बन जाये, यह भी कुशलतापूर्वक करना सम्भव है।

वास्तव में जल-संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की जरूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए, जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हो या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की मूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित की। औपनिवेशक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी अनेक तरह की बेहतर परम्रागत व्यवस्थाओं का द्वांचा चरमराने लगा। जल-प्रबन्ध पर भी नये शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और गांववासियों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज सरकार चाहती ही नहीं थी। जब उद्देश्य ही उपेक्षित हो गया तो उपाय क्या होने थे। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्थाओं को कुछ बना कर रख सकते थे, उन्होनें इसका प्रयास किया।

दुःख की बात यह है कि स्वतंत्रता बाद भी जल-प्रबन्ध के इन आत्मनिर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परम्परागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। इनकी उपेक्षा जारी रही, बल्कि कुछ स्थानों पर तो और बढ़ गई। औपनिवेशिक शासकों ने जल-प्रबन्ध की. जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ यूरोप में वर्षा के लक्षणों पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल-संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे- धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कम्पनियों, ठेकेदार व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। ये निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांव के  सस्ते और आत्म-निर्भर तौर-तरीकों की बात भला कौन सुनता?

गांवों की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीन के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी। अतः परम्परागत तौर-तरीकों को और दुरुस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसक स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मध्यम बांध बनाने पर जोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर-तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुँचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर, कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर, नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक महंगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख लक्ष्य को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता है। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मुसलाधार वर्षा के वेग को सम्भालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं, जिनके साथ यह लिखा रहता है-अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह जो अरबों रुपये के निर्माण कार्य बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किये गये थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरीओर नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांवों तक पानी पहुँचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम हैं, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं, यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है।

जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और अमूक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं, उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में जो छोटे स्तर के, आत्म-निर्भर, स्थानीय ज्ञान और स्थानीय जरूरतों के आधार पर विकसित तकनीक से जनसाधारण की सेवा करते हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और अपने पूर्वजनों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।

यह सच है कि इस परम्परा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट उत्पन्न करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी जरूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेद-भाव हो। जहां ये विकृतियां हमारी परम्परा में नजर आईं उनसे तो जरूर लड़ना है और उन्हें दूर करना है। पर दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल-प्रबन्ध की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी जरूरत को पूरा करने में सबसे ज्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल-प्रबन्ध का परम्परागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है, उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं जैसे केवट, कहार, धीमर, मछुआरे आदि।

जरूरत इस बात की है कि स्थानीय जल-प्रबन्ध का जो ज्ञान और जानकारी गांवों में पहले से मौजूद है, उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल-संरक्षण और संग्रहण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए। महाराष्ट्र में पुणे जिले में पानी पंचायतों के प्रयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमि हीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परम्परागत तरीकों को इस तरह और सुधारने के प्रयास होने चाहिए पर इन परम्पराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार अपने जल-प्रबन्ध बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे के संकट का स्थाई समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी।

स्रोत :- नवभारत टाइम्स, 5 जून, 1997 

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Post By: Shivendra
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