पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कई वर्षों से प्रयासरत गोरखपुर एंवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस संस्था ने जिले के सरदार नगर और कैंपियरगंज ब्लाकों के गाँवों में खेती किसानी को नई राह दिखाई है। अन्य संस्थाओं के सहयोग से इसे पूर्वांचल के जिलों में फैलाने में भी मदद की है। इस संस्था ने तीन बिंदुओं पर ध्यान दिया है। पहली बात तो यह है कि कृषि के लिए बाजार के महंगे उत्पादों पर निर्भर होने के स्थान पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निशुल्क, संसाधनों का बेहतर प्रयोग किया जाए और इसकी वैज्ञानिक सोच को किसानों तक ले जाया जाए।
हाल के वर्षों में खेती-किसानी का जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ उसका एक मुख्य कारण यह था कि छोटे किसानों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर कृषि विकास का प्रयास किया गया। ऐसी तकनीकों का प्रसार हुआ जो न केवल महंगी है बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को क्षतिग्रस्त कर भविष्य में और ज्यादा खर्च की भूमिका भी तैयार करती हैं। पर्यावरण से खिलवाड़ कर कई नई बीमारियों और समस्याओं को निमंत्रण देती हैं। महंगी तकनीकों के कारण छोटे किसानों में कर्ज की समस्या बढ़ गई। उधर भूमि सुधार की विफलता के कारण भूमिहीन कृषि मज़दूरों को छोटे किसान बनाने का कार्य भी पीछे छूट गया। चिंताजनक स्थिति में भी उत्साहवर्धक बात यह है कि कई संस्थाओं और संगठनों के प्रयोग ने देश के करोड़ों किसानों को संकट से बाहर निकालने की राह भी दिखाई है। तमाम सीमाओं के बावजूद आर्गेनिक खेती ने अपना असर दिखाया है। इस तरकीब में छोटे और मध्यम स्तर के किसानों को मुश्किल से बाहर निकालने का राज छिपा है।पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कई वर्षों से प्रयासरत गोरखपुर एंवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस संस्था ने जिले के सरदार नगर और कैंपियरगंज ब्लाकों के गाँवों में खेती किसानी को नई राह दिखाई है। अन्य संस्थाओं के सहयोग से इसे पूर्वांचल के जिलों में फैलाने में भी मदद की है। इस संस्था ने तीन बिंदुओं पर ध्यान दिया है। पहली बात तो यह है कि कृषि (और उससे मिले-जुले कार्यों) के लिए बाजार के महंगे उत्पादों पर निर्भर होने के स्थान पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निशुल्क, संसाधनों (जैसे गोबर, गोमूत्र, सब्जियों-फलों के छिलके, औषधीय महत्व के पेड़-पौधों) का बेहतर प्रयोग किया जाए और इसकी वैज्ञानिक सोच को किसानों तक ले जाया जाए। दूसरा बिंदु है कि वैज्ञानिक लेकिन सस्ते तौर तरीकों को किसानों तक पहुंचा कर काफी हद तक उनके अपने प्रयोगों के लिए भी गुंजाईश रखी जाए, ताकि उनकी रचनात्मकता और स्थानीय समझ को फलने-फूलने का अवसर मिले। तीसरी बात यह है कि महिला किसानों को आगे आने का भरपूर अवसर मिले।
यह संस्था जिस कृषि तकनीक का प्रसार करती है वह सस्ती, आत्म-निर्भरता बढ़ाने वाली और टिकाऊ तकनीक है। इसके लिए स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर विशेष जोर दिया जाता है। इस तरह की तकनीक में जिस तरह महिला किसानों ने शीघ्र ही दक्षता हासिल की और इसे बड़े उत्साह से अपनाया उससे यह आभास होता है कि महिला किसानों का ऐसी तकनीक के प्रति विशेष रुझान है। इस तरह के सफल प्रयोगों से संकेत मिलते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जो कृषि संकट है वह कैसे हल होगा? यह संस्था ‘आरोह’ नामक व्यापक परियोजना से जुड़ी रही है। गाँवों में महिला किसानों से मिलने पर पता चला कि हाल के वर्षों में रासायनिक खाद पर उन्होंने अपनी निर्भरता बहुत कम कर दी है। जो खेत दूर पड़ते हैं वहां कुछ किसान रासायनिक खाद का उपयोग सुविधाजनक समझते हैं। कीटनाशक दवाओं का उपयोग इन किसानों ने लगभग पूरी तरह छोड़ दिया है। अब वे गोबर, पत्ती आदि के बेहतर उपयोग से कंपोस्ट खाद बनाते हैं जबकि पहले गोबर का उपयोग होता भी था तो सावधानी से नहीं होता था। केंचुओं की खाद का भी वे अच्छा उपयोग कर रही हैं। तमाम गाँवों में किसान विद्यालयों की स्थापना की गई है जहां हर महीने एक निर्धारित तिथि को किसानों, विशेषकर महिला किसानों की सभा होती है और उनके प्रश्नों, समस्याओं का समाधान किया जाता है। स्वयं सहायता समूह बना कर महिलाओं ने साहूकारों पर निर्भरता समाप्त की और खेती के लिए अतिरिक्त भूमि प्राप्त करने, साग-सब्जी की खेती बढ़ाने, सब्जी की दुकान करने के लिए अपेक्षाकृत सस्ती दर पर कर्ज भी प्राप्त किए। ऐसे कई समूहों को जोड़कर संघ और फिर बड़ा संघ बनाया गया, जिससे महिलाएं व्यापक सरोकारों से भी जुड़ने लगीं।
इनमें से की महिलाएं टिकाऊ खेती की अच्छी प्रशिक्षक भी बन चुकी हैं। अपने क्षेत्र के गाँवों के अलावा उन्हें दूर-दूर के अनेक क्षेत्रों से भी प्रशिक्षण देने के लिए निमंत्रण मिलते रहते हैं। अच्छे प्रशिक्षक के रूप में उन्हें ख्याति मिली है। इन विभिन्न कार्यों से यहां की महिला किसानों में योग्यता और उपलब्धि पर आधारित आत्म-सम्मान बढ़ा है व उनका आपसी सहयोग, कठिनाई में एक-दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है।
यही कारण है कि इन गाँवों में प्रवासी मज़दूरों की अधिक प्रवृत्ति होने के बावजूद अब महिलाएं अपनी खेती और घर गृहस्थी को एक साथ काफी आत्मनिश्चय और कुशलता से संभाल रही हैं। अवधपुर गांव की उर्मिला के पति बाहर रहते हैं, पर वह अपनी घर-गृहस्थी और खेती संभालने के साथ कृषि सेवा केंद्र की ज़िम्मेदारी भी संभालती हैं। वह अपनी संघ की अध्यक्ष भी हैं। इसी गांव की धनेश्वरी देवी टिकाऊ खेती, केंचुए की खाद बनाने और संगठन कार्य में आगे रही हैं और उन्हें पुरस्कार भी मिले हैं। अगर मनरेगा के कार्य के बारे में उन्हें शिकायत हो तो सीधा लखनऊ की हेल्प लाइन पर अपने मोबाइल से फोन कर देती हैं। इसी गांव की सोनपति ने बताया कि आरंभ में उन्हें घर से बाहर निकलने में भी संकोच होता था, पर अब तो वह हानिकारक कीड़ों के नियंत्रण की प्रशिक्षक हैं और प्रशिक्षण देने दूर-दूर चली जाती हैं।
दुधई गांव (सरदार नगर ब्लाक) में प्रभावती देवी के पास डेढ़ एकड़ भूमि है, पर इस थोड़ी सी भूमि में वे एक ही वर्ष में लगभग 50 फसल प्राप्त करती हैं। जिस समय यह लेखक उनके खेत और बगीचे में गया तो उस समय वहां कम वर्षा के बावजूद धान, बाजरा, मड़ुवा, मूंगफली, तिल, लोबिया, तोरी(नेनुवा), नींबू, लौकी, कटहल, अमरूद, पपीता, आम, चकोतरा, जामुन, शहतूत, महुआ, नीम, मदार, कनेर, सागवान, अदरक, हल्दी, लौंग और बांस नजर आए। इसमें कीड़े और बीमारी से बचाने वाले औषधि महत्व के पेड़ जैसे नीम भी शामिल हैं। वे फ़सलों को कीड़ों और बीमारी से बचाने वाली दवा, गोबर और पत्ती की खाद, केंचुए की खाद वगैरह अपने खेत और बगीचे में ही तैयार करती हैं।
सरपतहा गांव (कैंपियरगंज ब्लाक) की रामरती ने बताया कि उनके पास मात्र एक एकड़ भूमि है और वह कभी-कभी आधा एकड़ अतिरिक्त भूमि बंटाई पर ले लेती हैं। पहले वह केवल गेंहू और चावल की खेती करती थीं, पर अब उन्होंने देशी खाद और दवा को अपनाकर विविधतापूर्ण खेती आरंभ की। अब गेंहू, चावल के अलावा वे अपने छोटे से खेत में गन्ना, केला, तोरी, आलू, फूलगोभी, बंदगोभी, रामदाना, राजमा, बाकला, मूंग, मटर, मेंथी, पालक, गन्ना, मूली, परवल, कुंदरु, करेला, लोबिया, मक्का, खीरा, ककड़ी, भिंडी, सरसों, अदरक, लहसून, अमरूद, आम, अनार, कटहल, मूंगफली, धनिया, जिमीकंद और अरबी उगाती हैं। इन महिला किसानों ने देशी खाद और दवा अपनाकर खर्च कम किया है। उत्पादन बढ़ाया है। उन्होंने अच्छी गुणवत्ता की सब्जी देकर लोगों को जहरघुली सब्जियों से बचने का विकल्प भी दिया है।
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