भारत डोगरा

भारत डोगरा
प्रगति की होड़ से उठता विप्लव
Posted on 03 Jun, 2010 03:03 PM

मनुष्यों की संख्या जहां बहुत बढ़ गई है, वहीं दूसरी ओर उनके बीच विषमता और भी अधिक बढ़ गई है। उनमें से अनेक की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं। अनेक लोग तरह-तरह के दुख-दर्द से त्रस्त हैं। आपसी संबंध अच्छे नहीं हैं। पारिवारिक संबंधों तक में टूटन व अन्याय है। जो थोड़े से लोग बहुत वैभव की जिंदगी जी रहे हैं, उनका जीवन दूसरों से छीना-छपटी व अन्याय पर आधारित है। इतना ही नहीं, सीमित संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर व ग्रीनहाऊस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन कर यह थोड़े से लोगों की जीवन-शैली भावी पीढ़ियों को खतरे में भी डाल रही हैं।

आज जहाँ एक ओर महानगरों की चमक-दमक बढ़ रही है व चंद लोगों के लिए भोग-विलास, आधुनिक सुख-सुविधाएं पराकाष्ठा पर पहंुच रही हैं, वहां दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग साफ हवा, पेयजल व अन्य बुनियादी जरूरतों से वंचित हो रहे हैं। पशु-पक्षी, कीट-पतंगे व अन्य जीव जितने खतरों से घिरे हैं उतने (डायनासोरों के लुप्त होने जैसे प्रलयकारी दौर को छोड़ दें तो) पहले कभी नहीं देखे गए। इस स्थिति में यह जानना बहुत जरूरी है कि प्रगति क्या है और विकास क्या है? इस पर गहराई से विचार किया जाए और उसके बाद ही सही दिशा तलाश कर आगे बढ़ा जाए।

उदाहरण के लिए 100 वर्ग किमी. के महानगरीय चमकदार क्षेत्रों के बारे में यदि हम जान सकें कि आज
×