अनुपम मिश्र

अनुपम मिश्र
जीवन का अर्थ : अर्थमय जीवन
Posted on 18 Jul, 2018 09:30 AM


आजकल अक्सर ऐसी बैठकों में, सभा सम्मेलनों के प्रारम्भ में एक दीपक जलाया जाता है। यह शायद प्रतीक है, अन्धेरा दूर करने का। दीया जलाकर प्रकाश करने का। इसका एक अर्थ यह भी है कि अन्धेरा कुछ ज्यादा ही होगा, हम सबके आसपास।

यह अन्धेरा बाकी समय उतना नहीं दिखता, जितना वह तब दिखता है जब हम अपने मित्रों के साथ ऐसी सभाओं में बैठते हैं। तो दीये से कुछ अन्धेरा दूर होता होगा और शायद आपस में इस तरह से बैठने से, कुछ अच्छी बातचीत से, विचार-विमर्श से भी अन्धेरा कुछ छँटता ही होगा। शायद साथ चाय, कॉफी पीने से भी।

ऐसा कहना थोड़ा हल्का लगे तो इसमें संस्कृत का वजन भी डाला जा सकता है: ओम सहना ववतु, सहनौ भुनक्तु आदि। दीया जलाने का यह चलन कब शुरू हुआ होगा, ठीक कहा नहीं जा सकता। इससे मिलती-जुलती प्रथा ऐसी थी कि जब ऐसी कोई सभा-गोष्ठी होती, अतिथियों के स्वागत में मंच के सामने पहले से ही एक दीया जलाकर रख दिया जाता था।

आओ करें बादलों से प्यार
Posted on 20 Dec, 2016 02:50 PM

राजस्थान के रेगिस्तान में बादल बहुत कम आते हैं। पर यहाँ के लोग बादलों से बहुत प्यार करते हैं। दरअसल वे पानी की हर बूँद की कीमत समझते हैं। इसलिये वे बारिश के पानी को बहुत करीने से बचाकर पूरे साल काम चलाते हैं।

 

पानी का व्यापार


आप सभी उद्यमी हैं। आप व्यापार की बारीकियों को अच्छी तरह समझते हैं। अच्छा उद्यमी वही है, जो छोटी पूँजी से बड़ा व्यापार करे। आज मैं आपसे राजस्थान के रेगिस्तान में होने वाले एक व्यापार के बारे में बात करुँगा। यह पानी का व्यापार है। उद्योग में दो चीजें अहम हैं- उत्पादक और उपभोक्ता। लेकिन, यहाँ तस्वीर अलग है। यहाँ उपभोक्ता और उत्पादक एक ही हैं।

अनुपम मिश्र
जल-समृद्धि के देश में क्यों है ऐसी प्यास
Posted on 02 Jul, 2016 12:51 PM

पिछले कई सालों से यह बात जुमले की तरह अक्सर सुनने को मिल जाती है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिये होगा। यह तो खैर कब होगा, क्या होगा, पर मैं तो यह याद दिलाना चाहता हूँ कि जो हो रहा है, वह ही कहाँ कम है। आज भी दो प्रदेशों के बीच युद्ध हो रहा है, दो देशों के बीच भी हो रहा है। बांग्लादेश और भारत पानी को लेकर लड़े। पंजाब से निकलने वाली नदियाँ, जो पाकिस्ता
शिक्षा: कितना सर्जन, कितना विसर्जन
Posted on 10 Jan, 2015 01:27 PM

.कोई एक सौ पचासी बरस पहले की बात है। सन् 1829 की। कोलकाता के शोभाबाजार नाम की एक जगह में एक पाठशाला क
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दाई के तालाब
Posted on 28 Jul, 2014 04:00 PM
कुछ समय पहले तक दरभंगा एक समृद्ध राज्य था। वहां के राजा बड़े लोकप्रिय थे। राज्य में लोग सुख-शांति से जीवन बिताते थे। कई बड़ी नदियां राज्य से होकर बहती थीं। इसके बावजूद दरभंगा में कई बार गर्मियों में पानी की थोड़ी कमी होने लगती थी। इसे छोड़ कर वहां के लोगों को कोई विशेष कष्ट नहीं था। जो मेहनत मजदूरी करते थे, उन्हें भर-पेट भोजन मिल जाता था और राज्य में काम और व्यापार फल-फूल रहा था।
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नए बसाएंगे तो पुराने शहरों का क्या करेंगे?
Posted on 12 Jul, 2014 04:06 PM

हमारे बड़े शहरों की परिभाषा यह हो गई है कि उनका पानी कितने किलोमीटर दूर से आता है। जिन शहरों को जितनी दूरी से पानी मिल रहा है, उन्हें उतना ही स्वावलंबी माना जा रहा है।

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चाल से खुशहाल
Posted on 29 Aug, 2013 03:13 PM

उत्तराखंड के उफरैंखाल में कुछ लोगों ने किसी सरकारी या बाहरी मदद के बिना जो किया है उसमें कई हिमालयी राज्यों के सुधार का हल छिपा है।

सबसे पहले लोगों ने अखरोट के पौधों की एक नर्सरी बनाई। इन पौधों की बिक्री प्रारंभ हुई। वहीं के गाँवों से वहीं की संस्था को पौधों की बिक्री से कुछ आमदनी होने लगी। यह राशि फिर वहीं लगने जा रही थी। एक के बाद एक शिविर लगते गए और धीरे-धीरे उजड़े वन क्षेत्रों में वनीकरण होने लगा। इन्हीं शिविरों में हुई बातचीत से यह निर्णय भी सामने आया कि हर गांव में अपना वन बने। वह सघन भी बने ताकि ईंधन, चारे आदि के लिए महिलाओं को सुविधा मिल सके। इस तरह हर शिविर के बाद उन गाँवों में महिलाओं के अपने नए संगठन उभरकर आए, ये ‘महिला मंगल दल’ कहलाए ये महिला दल कागजी नहीं थे।ढौंड गांव के पंचायत भवन में छोटी-छोटी लड़कियां नाच रही थीं। उनके गीत के बोल थे : ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, ना जा स्वामी परदेसा। ये बोल सामने बैठे पूरे गांव को बरसात की झड़ी में भी बांधे हुए थे। भीगती दर्शकों में ऐसी कई युवा और अधेड़ महिलाएं थीं जिनके पति और बेटे अपने जीवन के कई बसंत ‘परदेस’ में ही बिता रहे हैं। ऐसे वृद्ध भी इस कार्यक्रम को देख रहे थे जिन्होंने अपने जीवन का बड़ा भाग ‘परदेस’ की सेवा में लगाया है और भीगी दरी पर वे छोटे बच्चे-बच्चियां भी थे, जिन्हें शायद कल परदेस चले जाना है। एक गीत पहाड़ों के इन गाँवों से लोगों का पलायन भला कैसे रोक पाएगा? लेकिन गीत गाने वाली टुकड़ी गीत गाती जाती है। आज ढौंड गांव में है तो कल डुलमोट गांव में, फिर जंद्रिया में, भरनों में, उफरैंखाल में। यह केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं है। इसमें कुछ गायक हैं, नर्तक हैं, एक हारमोनियम, ढोलक है तो सैकड़ों कुदाल-फावड़े भी हैं जो हर गांव में कुछ ऐसा काम कर रहे हैं कि वहां बरसकर तेजी से बह जाने वाला पानी वहां कुछ थम सके, तेजी से बह जाने वाली मिट्टी वहीं रुक सके और इन गाँवों में उजड़ गए वन, उजड़ गई खेती फिर से संवर सके।
chalkhal
रावण सुनाए रामायण
Posted on 28 Jun, 2013 09:46 AM

सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेगा।

हमारे समाज ने गंगा को मां माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी। पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। प्रकृति का कैलेंडर और हमारे घर-दफ्तरों की दीवारों पर टंगे कैलेंडर/काल निर्णय/पंचाग को याद करें बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। हमारे कैलेंडर/संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। आज हम गंगा नदी पर बात करने यहां जमा हुए हैं तो हमें प्रकृति का, भूगोल का यह कैलेंडर भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम हमारा आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए।

गंगा मैली हुई है। उसे साफ करना है। सफाई की अनेक योजनाएं पहले भी बनी हैं। कुछ अरब रुपए इसमें बह चुके हैं- बिना कोई परिणाम दिए। इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएं बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए।

बेटे-बेटियां जिद्दी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री हो सकते हैं पर अपने यहां प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती, तो जरा सोचें कि जिस गंगा मां के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने कोई 30-40 बरस से प्रयत्न कर रहे हैं - वहां भी साफ क्यों नहीं होती।
Book cover Anupam Mishra
रहिमन पानी राखिए...
Posted on 05 Dec, 2012 05:21 PM
आज हम पानी की समस्या से जुझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कहीं भी और कभी भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में कुछ ऐसा होने वाला है जो पहले कभी नहीं हुआ। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ सबसे महंगी दालें मिलने वाली हैं – यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। महाभारत युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारिका जा रहे थे। उनका रथ मरुप्रदेश पार कर रहा था। आज के जैसलमेर के पास त्रिकुट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर वे मांगने को कहा। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। सचमुच ऋषि ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अभाव न रहे। एक दौर था जब मरुभूमि को इस तरह के आशीर्वाद की जरूरत थी। मरुभूमि के अलावा पानी की कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन हमने पानी की अहमियत नहीं समझी। आज पानी हमें परेशान कर रहा है। आज हमारे समाज के बड़े हिस्से को इस आशीर्वाद की जरूरत पड़ती है।
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