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दो अक्षर का छोटा-सा शीर्षक ‘पानी’ और कोई 30-32 पन्नों की छोटी-सी पुस्तिका। लेकिन यह अपने में पूरा संसार समेट लेती है। पानी की तरलता और सरलता की तरह ही पंकज शुक्ला इन 30-32 पन्नों में बिल्कुल सहज ढंग से हमें पानी की गहरी से गहरी बातों में उतारते जाते हैं, उसमें डुबोते नहीं, तैराते ले जाते हैं। इसमें पानी का ज्ञान है, पानी का विज्ञान भी है। वे हमें बताते हैं कि किस तरह पानी दो छोर जोड़ सकता है तो यह भी कि किस तरह पानी का उपयोग हम दो छोर तोड़ने में भी करने लगे हैं। कोई बताएगा कि तीसरा युद्ध पानी को लेकर होगा तो पंकज बता रहे हैं कि अरे, यह लड़ाई तो हर मुहल्ले में, हर प्रदेश में, प्रदेशों के बीच, देशों के बीच चल ही रही है।

पानी को लेकर चल रहे संघर्षों के बीच यह पुस्तिका एक ऐतिहासिक युद्ध के बीच भाई घनैया की प्रेरणादायी कहानी भी पाठक के सामने रख देती है। घायलों को अपनी भिश्ती से पानी पिलाने वाले भाई घनैया अपने और पराये का भेद मिटा देते हैं। शिकायत होने पर जब उन्हें गुरू के सामने पेश किया जाता है तो वे बस इतना ही उत्तर देते हैं कि मुझे तो केवल प्यासा भर दिखता है। यह पुस्तिका कौए और मटके की कहानी नहीं दुहराती, एक छोटे से चित्र के माध्यम से हमें उसकी सार्थकता की याद दिला जाती है। बिना कंकड़ डाले आप पन्ने भर पलटते जाएँ, पानी ऊपर उठने लगता है-अपनी प्यास बुझा सकते हैं आप।

एक तरफ, पंकज शुक्ला डरावने तथ्यों से परिचित कराते जाते हैं तो साथ ही ऐसी ‘लुभाने’ वाली जानकारियाँ भी देते जाते हैं कि यदि आप चाहें तो अपने घर, अपने मुहल्ले या गाँव-शहर में पानी के संकट का एक छोटा-सा हल भी खोज सकते हैं और फिर हिम्मत बँधा सकें दूसरों की तो एक समर्थ आंदोलन का रास्ता भी पकड़ सकते हैं। हल बताते समय पुस्तिका पूरी सावधानी भी बरती है। वह नहीं चाहती कि भूजल के रूप में एकत्र वर्षों की धरोहर को हम अपने उत्साह में प्रदूषित कर बैंठे। यों जल पर पुस्तकों/पुस्तिकाओं की कोई कमी नहीं है फिर भी ‘पानी’ की इस नई बूँद का एक अलग ही स्वाद है।

अनुपम मिश्र
गाँधी शांति प्रतिष्ठान,
221/3 दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-2

 

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