अगर धीरे चलो,
वह तुम्हे छू लेगी,
दौड़ो दूर छूट जाएगी नदी!
केदारनाथ सिंह
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने क्या प्रलय की पूर्व सूचना जारी कर दी है? इस विध्वंस को रोका जा सकता था या नहीं? यह मानव निर्मित है या प्रकृति जनित है? जैसे अनेक सवाल हवा में तैर रहे हैं, मगर मजाल है कहीं से कोई भविष्य के प्रति आशान्वित करने वाला बयान आया हो। प्रधानमंत्री भी उत्तराखंड हो आए हैं और ताबड़तोड़ एक हजार करोड़ की राहत की घोषणा भी कर चुके हैं। इस धन से एक बार पुनः उत्तराखंड का वैसा ही विकास होगा जो कि इस लघु प्रलय का कारण बना है। आवश्यकता इस बात की थी कि मानवीय सहायता पहुंचाने के बाद सारी आर्थिक विकासात्मक गतिविधियों पर रोक लगाकर एक स्वतंत्र इकाई से इस पूरे क्षेत्र के भौतिक विकास की आवश्यकताओं के आकलन को कहा जाता! हमें अब यह हिसाब लगाना होगा कि उत्तराखंड में एक किलोमीटर सड़क बनाने में कितने पहाड़ों को नष्ट करना पड़ता है। यानि विनाश का चक्र विकास के चक्र पर सवार रहेगा और यह विकास का सालाना उत्सव बन जाएगा।
श्रीमद् भागवत में लिखा है, “साक्षात भगवान यज्ञ पुरुष त्रिविक्रम के (तीन डगों से) पृथ्वी, स्वर्गादि आदि को लांघते हुए वामपद के अंगुष्ठ (अंगूठे) से निकलकर उनके चरण पंकज का अवनेजन करती हुई भगवती गंगा जगत के पाप को नष्ट करती हुई स्वर्ग से हिमालय के ब्रह्म सदन में अवतीर्ण हुई। वहां से सीता, अलकनंदा, चक्षु एवं भद्रा चारों दिशाओं में प्रवाहित हुई। भारत की ओर आने वाली अलकनंदा कहलाई। जो हेमकुट आदि पर्वतों को लांघती हुई भारत के दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बहकर समुद्र की ओर बढ़ती है।” यानि भारत की बड़ी आबादी गंगा के आश्रम में है, लेकिन हमने तो उत्तराखंड में ही इसे इतनी जगह रोकने की अव्यवस्था बना दी है कि जैसे सारे भारत की बिजली यही बन जाएगी और हम रोशनी से नहा जाएंगे। जबकि वास्तविकता यह है कि टिहरी जैसे बांधों का पानी दिल्ली सरीखे शहरों के निवासियों के शौचालयों को साफ कर यमुना नदी को गंदे नाले में बदलने के काम में लाया जा रहा है।
अब भारत के मौसम विभाग ने स्पष्ट कर दिया है कि हिमालय क्षेत्र में बादल नहीं फटे थे, बल्कि लगातार तेज बारिश से ही यह कहर बरपा है और जिसकी विधिवत पूर्व सूचना दो दिन पूर्व दी जा चुकी थी। इसरो के सूत्र (गुमनामी की शर्त पर क्योंकि अब इस देश में वैज्ञानिकों का सच बोलना भी शायद गुनाह मान लिया गया है।) बताते हैं कि अंतरिक्ष से खींची गई तस्वीरें बता रही हैं कि पिछले एक दशक में इस इलाके में हजारों नए भवन निर्मित किए गए हैं और नदी मार्ग में रुकावटें खड़ी की गई हैं। इससे नदी बेसिन में पानी का प्रवाह अवरुद्ध हुआ है। केदारनाथ नगर में आई बाढ़ के लिए वे यहां से 6 किलोमीटर ऊपर स्थित हिमनद (ग्लेशियर) वे केदार गुंबज के एक टुकड़े के टूटने को जिम्मेदार बता रहे हैं।
बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था। लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं। पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं कि महाराष्ट्र में पिछले 50 वर्षों का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके। पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण हैं। इंदौर में भी यही हुआ। इसको पढ़कर प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जिन्होंने उत्तराखंड के दुर्गमतम इलाकों का पैदल भ्रमण किया है और वे आज भी इन स्थानों की दूरी मील या किलोमीटरों में नहीं बल्कि दिनों में गिनाते हैं, ने अपने अनूठे निबंध “गौना ताल: प्रलय का शिलालेख” में लिखा है, “सन् 1893 में उत्तराखंड के समीप स्थित एक सकरी घाटी के मुंह पर एक चट्टान गिरकर अड़ गई थी।
धीरे-धीरे उस गहरी घाटी में पीछे से आकर बिरही और सहायक नदियों का पानी इकट्ठा होने लगा। इस पर अंग्रेजों ने यहां एक तारघर स्थापित कर दिया और उसके माध्यम से ताल के जलस्तर की निगरानी करते रहे।
(नोट: अनुपम जी ने बताया कि उन्हें इस गांव में पहुंचने हेतु सड़क छोड़ देने के बाद तीन दिन पैदल चलना पड़ा था।) एक साल तक नदियां ताल में पानी भरती रहीं। जलस्तर 100 गज उपर उठ गया। तार घर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया। ताल सन् 1894 में फूट पड़ा। किनारे के गांव खाली करा लिए गए थे। प्रलय को झेलने की तैयारी थी। फूटने के बाद 400 गज का जलस्तर 300 फुट मात्र रह गया था। ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था।”
वो स्थान आज भी तारघर कहलाता है। अंग्रेज विदेशी शासक थे लेकिन उन्होंने अपने तारबाबू पर विश्वास किया था और प्रलय को समेट लिया था। लेकिन आज तो स्थितियां भयावह रूप लेती जा रही हैं और हमारी व्यवस्था मान रही है कि प्रकृति उनकी गुलाम है और उसकी इतनी औकात नही है कि वह चूं-चपड़ भी कर सके। तभी तो मौसम विभाग जब अपने आधुनिकतम यंत्रों से प्राप्त सूचनाओं को संबंधित विभागों तक पहुंचाता है तो वे उस पर गौर नहीं करते। उत्तराखंड में मची हालिया तबाही के बाद जब उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन मंत्री श्री आर्य से इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब था, “ऐसी चेतावनियां तो जारी होती रहती हैं” यानि उन्हें जिस विभाग की जिम्मेदारी दी गई है उसे लेकर वे कतई गंभीर नहीं है और मौसम विभाग की भविष्यवाणियों या पूर्व सूचनाओं को वे “भेड़िया आया-भेड़िया आया” जैसी कहानी से ज्यादा कुछ नहीं मानते। शायद उन्होंने इस कहानी का अंत नहीं पढ़ा, जिससे एक दिन सच में भेड़िया आ भी जाता है। आपदा प्रबंधन विभाग को तो भेड़िए के आने तक सतर्कता बरतना अनिवार्य है।
वैसे यहां की कांग्रेस सरकार ने सन् 2012 में भागीरथी नदी से गोमुख तक के 100 कि.मी. पूरे हिस्से को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचित भी कर दिया था तथा इस क्षेत्र में खनन, बांध, सड़कों के निर्माण एवं पेड़ काटने पर रोक लगा दी थी। यदि समाचार माध्यमों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया। बीजेपी की ठेकेदार और बिल्डर लॉबी ने स्थानीय जनता को साधा और इस कार्यवाही को जनविरोधी बताया गया। गंगा अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों, एवं सहायक नदियों पर 70 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। सोचने वाली बात यह है कि इन बांधों को निर्माण सामग्री तो इसी इलाके से आएगी और डायनामाइट के विस्फोटों ने पूरे उत्तराखंड को युद्ध भूमि के सदृश्य बना दिया है। बारिश के बिना भी यहां पहाड़ों का टूटना जारी रहता है। इस बाढ़ के साथ आई गाद ने बांध को 15 वर्षों जितना एक दिन में भर दिया है।
बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था। लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं। पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं कि महाराष्ट्र में पिछले 50 वर्षों का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके। पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण हैं। इंदौर में भी यही हुआ। यहां के एक पुराने तालाब पीपल्यापाला के आसपास पुराने “टाइप” के बगीचे को अत्याधुनिक सीमेंट कांक्रीट के बगीचे में बदल दिया गया। इसमें प्रवेश शुल्क भी लगा दिया गया। बाहर सैकड़ों कारों के लिए पार्किंग की व्यवस्था भी कर दी गई। सब वाह-वाह कर रहे थे। लेकिन हाल में जब बारिश आई तो सारे बाहरी इलाके तालाब बन गए थे, लेकिन तालाब में पानी नहीं गया, क्योंकि पानी जाने के रास्ते पर सड़क बन गई थी। ऐसा विकास हर शहर हर गांव में हो रहा है। इसी के साथ हमें छोटे राज्यों के गठन, उनकी आर्थिक व्यवहार्यता को भी देखना होगा। उत्तराखंड जैसे राज्यों की पर्यटक जिसमें धार्मिक पर्यावरण भी शामिल है पर अत्यधिक निर्भरता को भी जांचना होगा। क्योंकि यहां अधिकांश निर्माण पर्यटन की दृष्टि से किए गए हैं।
गंगा गंगोत्री या गोमुख से निकलकर कोलकाता से करीब 130 कि.मी. दूर सागर द्वीप में गंगासागर में मिलती है। यहीं पर संक्रांति पर गंगासागर का मेला लगता है। जहां अभी मेला लगता है पहले वहीं पर गंगा समुद्र में मिलती थीं। लेकिन अब सागरद्वीप के पास गंगा की बहुत छोटी सी धारा समुद्र में मिलती है। यानि जो विकरालता उद्गम में नजर आती है वह गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते लुप्त या मात्र प्रतीकात्मक रह जाती है। दुनिया के अनेक देश आज प्राकृतिक संपदाओं को जीवित इकाई मानते हुए उन्हें मनुष्यों की ही तरह जीवन के अधिकार दे रहे हैं, लेकिन हम तो जैसे उत्तराखंड में ही नदियों की भ्रूण हत्या कर रहे हैं। क्या हम नदियों के बिना बच पाएंगे? हमें अमृत को जहर बनने से रोकना होगा।
वह तुम्हे छू लेगी,
दौड़ो दूर छूट जाएगी नदी!
केदारनाथ सिंह
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने क्या प्रलय की पूर्व सूचना जारी कर दी है? इस विध्वंस को रोका जा सकता था या नहीं? यह मानव निर्मित है या प्रकृति जनित है? जैसे अनेक सवाल हवा में तैर रहे हैं, मगर मजाल है कहीं से कोई भविष्य के प्रति आशान्वित करने वाला बयान आया हो। प्रधानमंत्री भी उत्तराखंड हो आए हैं और ताबड़तोड़ एक हजार करोड़ की राहत की घोषणा भी कर चुके हैं। इस धन से एक बार पुनः उत्तराखंड का वैसा ही विकास होगा जो कि इस लघु प्रलय का कारण बना है। आवश्यकता इस बात की थी कि मानवीय सहायता पहुंचाने के बाद सारी आर्थिक विकासात्मक गतिविधियों पर रोक लगाकर एक स्वतंत्र इकाई से इस पूरे क्षेत्र के भौतिक विकास की आवश्यकताओं के आकलन को कहा जाता! हमें अब यह हिसाब लगाना होगा कि उत्तराखंड में एक किलोमीटर सड़क बनाने में कितने पहाड़ों को नष्ट करना पड़ता है। यानि विनाश का चक्र विकास के चक्र पर सवार रहेगा और यह विकास का सालाना उत्सव बन जाएगा।
श्रीमद् भागवत में लिखा है, “साक्षात भगवान यज्ञ पुरुष त्रिविक्रम के (तीन डगों से) पृथ्वी, स्वर्गादि आदि को लांघते हुए वामपद के अंगुष्ठ (अंगूठे) से निकलकर उनके चरण पंकज का अवनेजन करती हुई भगवती गंगा जगत के पाप को नष्ट करती हुई स्वर्ग से हिमालय के ब्रह्म सदन में अवतीर्ण हुई। वहां से सीता, अलकनंदा, चक्षु एवं भद्रा चारों दिशाओं में प्रवाहित हुई। भारत की ओर आने वाली अलकनंदा कहलाई। जो हेमकुट आदि पर्वतों को लांघती हुई भारत के दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बहकर समुद्र की ओर बढ़ती है।” यानि भारत की बड़ी आबादी गंगा के आश्रम में है, लेकिन हमने तो उत्तराखंड में ही इसे इतनी जगह रोकने की अव्यवस्था बना दी है कि जैसे सारे भारत की बिजली यही बन जाएगी और हम रोशनी से नहा जाएंगे। जबकि वास्तविकता यह है कि टिहरी जैसे बांधों का पानी दिल्ली सरीखे शहरों के निवासियों के शौचालयों को साफ कर यमुना नदी को गंदे नाले में बदलने के काम में लाया जा रहा है।
अब भारत के मौसम विभाग ने स्पष्ट कर दिया है कि हिमालय क्षेत्र में बादल नहीं फटे थे, बल्कि लगातार तेज बारिश से ही यह कहर बरपा है और जिसकी विधिवत पूर्व सूचना दो दिन पूर्व दी जा चुकी थी। इसरो के सूत्र (गुमनामी की शर्त पर क्योंकि अब इस देश में वैज्ञानिकों का सच बोलना भी शायद गुनाह मान लिया गया है।) बताते हैं कि अंतरिक्ष से खींची गई तस्वीरें बता रही हैं कि पिछले एक दशक में इस इलाके में हजारों नए भवन निर्मित किए गए हैं और नदी मार्ग में रुकावटें खड़ी की गई हैं। इससे नदी बेसिन में पानी का प्रवाह अवरुद्ध हुआ है। केदारनाथ नगर में आई बाढ़ के लिए वे यहां से 6 किलोमीटर ऊपर स्थित हिमनद (ग्लेशियर) वे केदार गुंबज के एक टुकड़े के टूटने को जिम्मेदार बता रहे हैं।
बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था। लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं। पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं कि महाराष्ट्र में पिछले 50 वर्षों का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके। पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण हैं। इंदौर में भी यही हुआ। इसको पढ़कर प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जिन्होंने उत्तराखंड के दुर्गमतम इलाकों का पैदल भ्रमण किया है और वे आज भी इन स्थानों की दूरी मील या किलोमीटरों में नहीं बल्कि दिनों में गिनाते हैं, ने अपने अनूठे निबंध “गौना ताल: प्रलय का शिलालेख” में लिखा है, “सन् 1893 में उत्तराखंड के समीप स्थित एक सकरी घाटी के मुंह पर एक चट्टान गिरकर अड़ गई थी।
धीरे-धीरे उस गहरी घाटी में पीछे से आकर बिरही और सहायक नदियों का पानी इकट्ठा होने लगा। इस पर अंग्रेजों ने यहां एक तारघर स्थापित कर दिया और उसके माध्यम से ताल के जलस्तर की निगरानी करते रहे।
(नोट: अनुपम जी ने बताया कि उन्हें इस गांव में पहुंचने हेतु सड़क छोड़ देने के बाद तीन दिन पैदल चलना पड़ा था।) एक साल तक नदियां ताल में पानी भरती रहीं। जलस्तर 100 गज उपर उठ गया। तार घर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया। ताल सन् 1894 में फूट पड़ा। किनारे के गांव खाली करा लिए गए थे। प्रलय को झेलने की तैयारी थी। फूटने के बाद 400 गज का जलस्तर 300 फुट मात्र रह गया था। ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था।”
वो स्थान आज भी तारघर कहलाता है। अंग्रेज विदेशी शासक थे लेकिन उन्होंने अपने तारबाबू पर विश्वास किया था और प्रलय को समेट लिया था। लेकिन आज तो स्थितियां भयावह रूप लेती जा रही हैं और हमारी व्यवस्था मान रही है कि प्रकृति उनकी गुलाम है और उसकी इतनी औकात नही है कि वह चूं-चपड़ भी कर सके। तभी तो मौसम विभाग जब अपने आधुनिकतम यंत्रों से प्राप्त सूचनाओं को संबंधित विभागों तक पहुंचाता है तो वे उस पर गौर नहीं करते। उत्तराखंड में मची हालिया तबाही के बाद जब उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन मंत्री श्री आर्य से इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब था, “ऐसी चेतावनियां तो जारी होती रहती हैं” यानि उन्हें जिस विभाग की जिम्मेदारी दी गई है उसे लेकर वे कतई गंभीर नहीं है और मौसम विभाग की भविष्यवाणियों या पूर्व सूचनाओं को वे “भेड़िया आया-भेड़िया आया” जैसी कहानी से ज्यादा कुछ नहीं मानते। शायद उन्होंने इस कहानी का अंत नहीं पढ़ा, जिससे एक दिन सच में भेड़िया आ भी जाता है। आपदा प्रबंधन विभाग को तो भेड़िए के आने तक सतर्कता बरतना अनिवार्य है।
वैसे यहां की कांग्रेस सरकार ने सन् 2012 में भागीरथी नदी से गोमुख तक के 100 कि.मी. पूरे हिस्से को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचित भी कर दिया था तथा इस क्षेत्र में खनन, बांध, सड़कों के निर्माण एवं पेड़ काटने पर रोक लगा दी थी। यदि समाचार माध्यमों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया। बीजेपी की ठेकेदार और बिल्डर लॉबी ने स्थानीय जनता को साधा और इस कार्यवाही को जनविरोधी बताया गया। गंगा अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों, एवं सहायक नदियों पर 70 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। सोचने वाली बात यह है कि इन बांधों को निर्माण सामग्री तो इसी इलाके से आएगी और डायनामाइट के विस्फोटों ने पूरे उत्तराखंड को युद्ध भूमि के सदृश्य बना दिया है। बारिश के बिना भी यहां पहाड़ों का टूटना जारी रहता है। इस बाढ़ के साथ आई गाद ने बांध को 15 वर्षों जितना एक दिन में भर दिया है।
बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था। लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं। पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं कि महाराष्ट्र में पिछले 50 वर्षों का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके। पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण हैं। इंदौर में भी यही हुआ। यहां के एक पुराने तालाब पीपल्यापाला के आसपास पुराने “टाइप” के बगीचे को अत्याधुनिक सीमेंट कांक्रीट के बगीचे में बदल दिया गया। इसमें प्रवेश शुल्क भी लगा दिया गया। बाहर सैकड़ों कारों के लिए पार्किंग की व्यवस्था भी कर दी गई। सब वाह-वाह कर रहे थे। लेकिन हाल में जब बारिश आई तो सारे बाहरी इलाके तालाब बन गए थे, लेकिन तालाब में पानी नहीं गया, क्योंकि पानी जाने के रास्ते पर सड़क बन गई थी। ऐसा विकास हर शहर हर गांव में हो रहा है। इसी के साथ हमें छोटे राज्यों के गठन, उनकी आर्थिक व्यवहार्यता को भी देखना होगा। उत्तराखंड जैसे राज्यों की पर्यटक जिसमें धार्मिक पर्यावरण भी शामिल है पर अत्यधिक निर्भरता को भी जांचना होगा। क्योंकि यहां अधिकांश निर्माण पर्यटन की दृष्टि से किए गए हैं।
गंगा गंगोत्री या गोमुख से निकलकर कोलकाता से करीब 130 कि.मी. दूर सागर द्वीप में गंगासागर में मिलती है। यहीं पर संक्रांति पर गंगासागर का मेला लगता है। जहां अभी मेला लगता है पहले वहीं पर गंगा समुद्र में मिलती थीं। लेकिन अब सागरद्वीप के पास गंगा की बहुत छोटी सी धारा समुद्र में मिलती है। यानि जो विकरालता उद्गम में नजर आती है वह गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते लुप्त या मात्र प्रतीकात्मक रह जाती है। दुनिया के अनेक देश आज प्राकृतिक संपदाओं को जीवित इकाई मानते हुए उन्हें मनुष्यों की ही तरह जीवन के अधिकार दे रहे हैं, लेकिन हम तो जैसे उत्तराखंड में ही नदियों की भ्रूण हत्या कर रहे हैं। क्या हम नदियों के बिना बच पाएंगे? हमें अमृत को जहर बनने से रोकना होगा।
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