जवाहरलाल कौल

जवाहरलाल कौल
जब नदियां करने लगीं तांडव...
Posted on 09 Sep, 2014 12:58 PM
कश्मीर में बाढ़ एक सामान्य मौसमी बदलाव होता है जिससे कोई असाधारण भय या आशंका पैदा नहीं होती। घाटी में बहने वाली प्रमुख नदी वितस्ता या झेलम शायद ही कभी रौद्र रूप धारण करती हो। लोग इस सरल और शांत नदी के साथ जीना सीख गए हैं, वे भी जिनके तटवर्ती घरों के आंगन में बरसात में कभी-कभी यह प्रवेश कर ही जाती है। नदी का घरों में घुसना भी इतना शांत होता है मानो जैसे आने
रोको नहीं पानी को जाने दो
Posted on 25 Jul, 2013 01:28 PM
प्राचीन मनुष्य ने भी कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद सीखा कि कहां बस्ती बसानी चाहिए और कहां नहीं। वे भी प
जब पर्वत ही बह जाएं तो...
Posted on 18 Jun, 2013 12:55 PM
आश्चर्य होता है कि जिन सदानीरा नदियों में कुछ दिन पहले तक मीलों तक
नदियों, वनों और भूजल के रिश्तों को समझें
Posted on 15 Jun, 2012 10:44 AM
अनादिकाल से मनुष्य के जीवन में नदियों का महत्व रहा है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे विकसित हुई हैं। भारत में सिन्धु घाटी की सभ्यता इसका प्रमाण है। इसके अलावा भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास भी गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा तट का इतिहास है। ऐसा माना जाता है कि सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचायें रची गईं, तमसा नदी के तट पर क्रौंच-वध की घटना ने रामायण संस्कृति को जन्म दिया। उसी
सुनिए मधुमक्खी का संदेश
Posted on 13 Jan, 2012 03:52 PM

रेगिस्तान की सूचना पहाड़ में ग्लेशियर दे रहे हैं तो मैदानी इलाकों में मधुमक्खियों के छत्ते हमें बता रहे हैं कि हम संकट के मुहाने पर है। मधुमक्खियों के छत्ते इसलिए क्योंकि पर्यावरण का इससे सुंदर संकेतक दूसरा होना मुश्किल है। इन छत्तों को आप प्रकृति की सबसे अनूठी घड़ी भी कह सकते हैं। मधुमक्खियां अपने आस-पास के दो तीन किलोमीटर से पराग इकट्ठा करती हैं। यहां यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि हम केवल उन मधुमक्खियों की बात कर रहे हैं जो मानवीय बस्ती के आस-पास छत्ते लगाती हैं। यानी वे मधुमक्खियां जो मनुष्य के निकट हैं। लेकिन जैसे-जैसे पर्यावरण में बदलाव आता है ये मधुमक्खियां उत्तर की ओर खिसकने लगती हैं।

इंसान जैसे-जैसे विकसित हुआ है वह अकेला पड़ता गया है। प्रकृति में मौजूद दूसरे जीवजंतु, प्राणी, वनस्पतियां सब उससे लगातार दूर होते गये हैं। ऐसा कोई एक दिन में नहीं हुआ लेकिन यह क्रम कभी रूका भी नहीं। जीवजंतु तो न जाने कब के हमारे लिए पालतू हो गये थे। मनुष्य ने सबसे पहले जिस जानवर को पालतू बनाया वह संभवतः गाय थी। उसके पहले तक का जो इतिहास हम देखते हैं वह यही है कि अस्तित्व में बने रहने के लिए मनुष्य भी पशुओं को उसी तरह मारता था जैसे एक पशु दूसरे को मारता था। लेकिन जिसे विकसित मनुष्य कह सकते हैं उसने जो कुछ किया उससे केवल पशुओं के अस्तित्व पर ही नहीं बल्कि वनस्पतियों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया है। पहले मनुष्य ने पशुओं को मारा होगा लेकिन पशु उससे दूर नहीं भागे थे। लेकिन आज प्रकृति में मौजूद जीव धीरे-धीरे मनुष्य से दूर होते जा रहे हैं। याद करिए आखिरी बार आपने कब किसी घोसले को देखा था? याद करिए कि आपने अपने आस-पास किसी मधुमक्खी के छत्ते को कब देखा था?
जीवनधारा बचाने का अभियान
Posted on 30 Jun, 2011 09:38 AM

गंगा के बारे में कहा जाता है कि उसका पानी कभी खराब नहीं होता क्योंकि इसके पानी में किसी प्रकार

सबसे अलग और त्रासद बाढ़
Posted on 10 Aug, 2010 11:34 AM
दुनिया की छत पर बाढ़ एक असाधारण घटना है, लेकिन जब यह पता चले कि आम तौर पर वह इलाका बरसात में भी सूखा रहता है और वहां पूरे साल कुछ इंच पानी ही बरसता है तो यह घटना आश्चर्यजनक ही कही जाएगी। कहते हैं कि बादल फटे, बिजली गिरी और पानी ऐसे उतर आया जैसे किसी ने कोई बांध तोड़ दिया हो। बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं बरसात के दिनों में देश के कई भागों में अक्सर हुआ करती हैं।

उनसे कुछ तबाही भी होती है। पानी आता है, छोटी-छोटी नदियां अचानक विकराल
लेह बाढ़: पानी में बह कर कहीं पहुंचने की उम्मीद रहती है, कीचड़ में हाथ-पांव मारने की भी गुंजाइश नहीं रहती। कीचड़ हवा के सारे रास्ते सील कर देती है। वह व्यक्ति को सांस भी नहीं लेने देती है। इससे अनुमान लगाना आसान होगा कि लद्दाख की त्रासदी किसी आम बाढ़ की त्रासदी से कई गुना अधिक घातक और दर्दनाक है
प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा
Posted on 08 Jul, 2010 11:32 AM
जब से कृष्ण कथा प्रचलित हुई या जब से सावन-भादों का मुहावरा बना, मौसम का चक्र ठीक वैसा नहीं था जैसा आज होता है। अगर प्रकृति अपने ही कारणों से मौसम के चक्र को बदलती रहती है तो चिंता किस बात की?कहा जाता है कि भारतीय कृषि मॉनसून पर दांव लगाने पर निर्भर है। लग गया तो बढ़िया बरसात होगी। पासा उल्टा पड़ा तो सूखा और अकाल। जमाने से हम इस जुए के नियम-कायदे सीखते रहे हैं। अब तक तो हमने सारे के सारे रट भी लिए हैं। अधिक से अधिक हम अड़तालिस घंटे पहले से भविष्यवाणी करने लगते हैं, लेकिन चौबिस घंटे से पहले की भविष्यवाणी बस उम्मीद पर आधारित होती है और अक्सर निराश ही कर देती है। अपनी सारी जानकारी और अपने सारे विज्ञान को इस जुए में झोंक देने के बावजूद प्रकृति हमसे बड़ी खिलाड़ी सिद्ध हो गई है। उसने इस मॉनसून के नियम-कायदे ही बदल दिए हैं।
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