सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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सथ्यः चौपाल का अमृत
Posted on 16 Aug, 2010 11:48 AM

अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

बीते सभी जमाने इस बात की गवाही देते रहे हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम-सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है। जब भी कोई समाज अपने इतिहास-पुराण से कट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें अपनेपन की बजाय परायापन झांकने लगता है और फिर पराएपन को बनावटीपन में बदलते देर भी नहीं लगती। परायापन एक बेहद गंभीर समस्या होती है। फिर परायापन घर को हो या समाज का, उससे सबकी कमर झुकने लगती है।
एक उद्यमी किसान ऐसा भी
Posted on 12 Aug, 2010 09:16 AM किसानों की समस्याएं और सामाजिक कार्यों के चलते 1977 में निर्विरोध वार्ड पंच चुन लिया गया और 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। पूरे गांव की जमीन को एकत्रित कराकर जमीन की चकबंदी कराई और जमीन के टुकड़ों की समस्या को सदा के लिए दूर कर दिया।

मैंने होश संभाला तब पिताजी लाव-चरस से खेती करते थे। साठ बीघा जमीन थी लेकिन दो बीघा जमीन पर भी मुश्किल से खेती होती थी। ‘भारतीय कृषि मानसून का जूआ है।’ यह उन दिनों बिल्कुल सटीक बैठती थी। सातवीं कक्षा में ही बालक कैलाश के हाथ से कागज कलम छूट गये और हल फावड़े ने उसकी जगह ले ली। वक्त हाथ में कैद मिट्टी के कणों की तरह धीरे-धीरे फिसलता रहा।
हरी वादियों का चितेरा
Posted on 06 Aug, 2010 01:49 PM
अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने।
दीना का प्रेमवन
Posted on 24 Jul, 2010 10:14 AM


उसे यह नहीं मालूम है कि कोपेनहेगन में गरम हो रही धरती का ताप कम करने के लिये कवायद चली। उसे यह भी नहीं मालूम कि दुनिया भर से जंगल कम हो रहा है और उसे बचाने व नये सिरे से बसाने के प्रयास चल रहे हैं। उसे यह भी नहीं मालूम कि यदि जंगल बच भी गया तो उस पर कंपनियों की नज़र गड़ी है।

पर्यावरण का रखवाला जय श्रीराम
Posted on 19 Jul, 2010 02:40 PM
बख्तियारपुर (पटना) निवासी आरक्षी जितेंद्र शर्मा उ़र्फ जय श्रीराम उन चंद पुलिसकर्मियों में शामिल हैं, जिनके कार्य से प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता। पटना के यातायात थाने में तैनात बिहार पुलिस का यह जवान एक अलग कार्य संस्कृति और जीवनशैली के लिए मशहूर हो रहा है। जुनून की सीमा से काफी आगे जाकर जय श्रीराम अब तक तीस हजार पेड़ लगा चुका है। हैरानी की बात यह है कि इस आरक्षी ने कभी किसी से कोई आर्
प्राकृतिक खेती से पटखनी खाती आधुनिक खेती
Posted on 16 Jul, 2010 03:09 PM
मैं महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में कृषि कार्य करता हूं। वहां 1975 से आज तक मैं खेती कर रहा हूं। 1960 के बाद जो खेती में व्यवस्थाएं प्रारंभ हुईं, वहीं से मैंने शुरुआत की थी। अब तक मुझे कृषि विज्ञान दो स्वरूपों में दिखा है। जब मैंने खेती प्रारंभ की तो उस समय परावलंबन का विज्ञान था।

उस वक्त मैंने रासायनिक खाद, जहरीली दवाईयां और बाहर से बीज लाकर खेती प्रारंभ की थी। परिश्रम करने की मन में अत्यंत इच्छा थी। परिश्रम के बल पर मैंने खेती से बहुत उत्पाद निकाले। 1983 में मुझे कई अवार्ड मिले।
कायम है आशा की किरण
Posted on 14 Jul, 2010 03:20 PM
आज जब युवाओं पर भौतिकवादी होने का आरोप लगाया जाता है, अनेक युवा सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में कार्य करते हुए मिसाल बन रहे हैं। एक ऐसा ही नाम है आलिम हाजी का। अप्रवासी भारतीय आलिम का जन्म एवं शिक्षा अमेरिका में हुई है, लेकिन उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र राजस्थान के झुंझनु जिले के छोटे से गांव बगड़ को चुना है। आलिम के साथ करीब आधा दर्जन युवाओं को टीम ने बगड़ में देश के पहले महिला बीपीओ का आगाज क
जो सुख में सुमिरन करे
Posted on 26 Jun, 2010 04:46 PM अमेरिका के न्यूमेक्सिको के एक रेगिस्तानी शहर के नागरिकों ने पानी के अनुकूल जीवनशैली में परिवर्तन कर दुनिया के सामने एक उदाहरण रखा है। आवश्यकता इस बात की है कि विकासशील देश अपने संसाधनों को लेकर जागरूक हों और भविष्य की जल योजनाओं पर विचार करें। अमेरिका के राज्य न्यू मेक्सिको के उत्तरी रेगिस्तान में रहने वाली लुईस सप्ताह में सिर्फ तीन बार नहाती हैं, वह भी सैनिकों वाली शैली में कि शरीर को गीला करो, शावर बन्द करो, साबुन लगाओ, थोड़े से पानी से हल्का रगड़ो और बस!!!, लुईस अपने कॉफी और पानी के मग को कई दिनों तक बिना धोये उपयोग करती हैं। खाने की प्लेटों को धोने में लगने वाले पानी को वे पौधों में डाल देती हैं और शावर के बचे हुए ठण्डे पानी का टॉयलेट में उपयोग करती हैं। जहाँ एक अमेरिकी व्यक्ति प्रतिदिन कई सौ गैलन पानी खपाता है, वहीं लुईस मात्र दस गैलन में काम चला लेती हैं। लुईस एक मौसम परिवर्तन समाचार एजेंसी की संपादिका हैं। लुईस का कहना है कि “मैं पानी इसलिये बचाती हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि हमारी पृथ्वी मौत की तरफ बढ़ रही है, और मैं इस पाप में भागीदार नहीं बनना चाहती”।

शायद हम लुईस की तरह एक समर्पित पर्यावरणवादी न बन सकें। पर यह सही है कि सस्ते और पर्याप्त उपलब्ध होने वाले पानी के दिन अब लद गये हैं।
हम कावेरी के बेटे-बेटी
Posted on 08 May, 2010 08:40 AM

प्रकृति ने नदियों को बनाते, बहाते समय देश-प्रदेश नहीं देखे थे। लेकिन अब देश-प्रदेश अपनी नदियों के टुकड़े कर रहे हैं। कावेरी का विवाद तो कटुता की सभी सीमाएं पार कर गया है। यह झगड़ा आज का नहीं, सौ बरस पुराना है। लेकिन नया है इस कटु प्रसंग में सख्य, सहयोग और संवाद का प्रयास। इसे बता रहे हैं महादेवन रामस्वामि।

विश्व की सभी महान नदियां मानव-जाति की अनेक सुविख्यात सभ्यताओं की जन्म-भूमि रही हैं। इन नदियों के किनारे उभरी और विकसित हुई इन सभ्यताओं का अस्तित्व बस नदी से जुड़ा रहा है। नदी ने उन्हें दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के लिए जल प्रदान किया है। पीने का पानी, निस्तार के लिए पानी, सिंचाई के लिए पानी, पशुओं के लिए पानी, ऊर्जा के लिए पानी क्या नहीं दिया इनने। नदी पर नाव द्वारा प्रयाण करके उन्होंने अपनी आसपास की दुनिया के बारे में जाना और अन्य क्षेत्रों, पास और दूर के समाजों के साथ संबंध बनाया। मौसम व समय के अनुसार बदलती नदी की प्रणाली को आधार बनाकर इन सभ्यताओं ने अपनी जीवन-शैली, अपने रीति-रिवाज, लोक-कथाओं व मान्यताओं को ऐसे सुंदर तरीके से रचाया कि नदी का प्रवाह जीवन के हर काम में
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