पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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आठ मोहल्लों वाला-आठनेर
Posted on 03 Mar, 2010 08:55 AM बैतूल जिले का आठनेर यानि आठ मोहल्लों (नेर यानि मोहल्ला) और 16-17 हजार की जनसंख्या वाला विकासखंड मुख्यालय पानी के संकट से हमेशा ही जूझता रहा है। पहले आबादी कम थी और आस-पास के नदी नालों से हमेशा का आजमाया जाने वाला झिर या झिरियाँ का नुस्खा काम आता था। आठनेर विकासखंड के डेढ़ सौ गाँवों के इलाके में जंगलों और नतीजे में बरसात की कमी रही है। तथा पूरा इलाका गहरी चट्टानों से भी भरा पड़ा है। लेकिन फिर भी उथ
मलेरिया से बदनाम हुआ-भीमपुर
Posted on 03 Mar, 2010 08:47 AM बैतुल जिले का भीमपुर विकासखंड सितम्बर-1998 में पटवारी रिपोर्ट के अनुसार इमलीडोह गाँव के 12-13 आदिवासियों की मौतों के कारण उछला था। मलेरिया और उससे लगातार होने वाली मौतों के कारण इस इलाके को जाना जाता है। वर्षों से छोटे-मोटे नदी-नालों के किनारे झीरा या झिरिया खोदकर पानी लेने वाले आदिवासियों से भरे-पूरे इस इलाके का अपना लंबा इतिहास रहा है। विकासखण्ड के एक गाँव दूधियागढ़ में चार-पाँच सौ साल पुरानी सं
पूर्णा के उद्गम से जुड़ा-भैंसदेही
Posted on 03 Mar, 2010 08:42 AM बैतूल जिले की भैंसदेही तहसील पोखरणी के काशी तालाब से निकलने वाली इलाके की एक प्रमुख नदी पूर्णा के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ एक साथ 12 शिवलिंग और गणेशजी का एक मंदिर भी है। लेकिन 1998 में भैंसदेही की प्रसिद्धि का एक और भी दुःखद कारण पैदा हुआ था। सितम्बर-अक्टूबर के महीने में तहसील के परतवाड़ा मार्ग पर स्थित गुदगाँव रेस्ट हाउस के पास के गाँव गारपठार में दूषित पेयजल से एक साथ 15 आदिवासियों की मौतें हुई थी
पानी की हैसियत घटाता-सारणी
Posted on 02 Mar, 2010 01:09 PM सतपुड़ा पर्वत माला में मठारदेव की पहाड़ियों से घिरा सारणी एक जमाने में इसलिए प्रसिद्ध था क्योंकि मठारदेव गोंडों के महत्वपूर्ण देवता हैं। शाहपुर के पास असीरगढ़ के गोंड़ राजा मठारदेव को अपना गुरू मानते थे। डब्ल्यूसीएल यानि ‘वेस्टर्न कोल फील्ड्स’ की खदानों से निकले कोयले, सस्ते मजदूर और बारामासी जलस्रोतों के कारण यहां बिजली उत्पादन का यह कारखाना लगाया गया था। लेकिन खदानों और कारखानों ने मिलकर हर जलस्
दौड़ादेव के भरोसे रहा-शाहपुर
Posted on 02 Mar, 2010 12:52 PM बैतूल जिले की एक प्रमुख नदी माचना के किनारे पतौआपुरा और बरबटपुर मिलकर बना शाहपुर कस्बा, कहते हैं ढाई-तीन सौ साल पहले बसा था। तब पीने का पानी एक तो आदिवासी ढाने के झीराकुआँ यानि झिर वाला कुआँ और दूसरे दौड़ादेव के कुण्ड से लिया जाता था। आदिवासी देवता दौड़ादेव आज के बरबटपुर के रेलवे स्टेशन के रास्ते पर स्थित एक बहुत पुराने वृक्ष पर निवास करते हैं और कहा जाता है कि इसमें निवास कर रही किसी भली आत्मा की
फसलों का बैतूल बाजार
Posted on 02 Mar, 2010 12:38 PM साँपना नदी के पास, बैतूल के हिस्से की तरह बसा बैतूल बाजार कस्बा अपनी खेती के कारण पूरे जिले में मशहूर है। कहते हैं कि पिंडारियों ने बसाया था और अन्य जगहों की तरह यहाँ भी पानी के लिए असंख्य कुएँ हुआ करते थे। कहा जाता है कि पहले हर घर में एक या कहीं-कहीं तीन-चार तक निजी कुएँ और मंदिर हुआ करते थे। सम्पन्न किसानों के खेतों पर ‘आपसी यानि सिंचाई के कुएँ थे और चालीस फुट खोदने से अथाह पानी मिल जाया करता थ
बदनूर से बना बैतूल
Posted on 01 Mar, 2010 02:09 PM कहते हैं कि पिंडारियों ने या फिर लोककथा के एक राजा को ब्रह्म न दिखा पाने के बदले में लोगों के नाक-कान काट लिए गए थे। ये लोग खेड़ला के पास जा बसे वह जगह बदनूर या बेनूर कहलायी। रेल लाइन आने के कारण इस जगह से थोड़ा हटकर आज का बैतूल शहर बसा।
कोइतुरों का राज-काज
Posted on 01 Mar, 2010 02:06 PM गोंडों को दो तरह से विभक्त कर सकते हैं- एक राजगोंड जो राजा थे और दूसरे ‘धुर’ या ‘धूल’ जो साधारण गोंड थे। ‘धुर’ या ‘धूल’ गोंडों को हिन्दुओं में रावण वंशीय माना जाता था।
पानी जैसा साफ प्रशासन
Posted on 01 Mar, 2010 01:54 PM तालाब निर्माण के दौर में गोंड राजाओं ने प्रशासन की पद्धति भी विकसित की थी। वे मालगुजार की नियुक्ति करते थे जिसका काम राजस्व की वसूली करना और पूरे इलाके का सामान्य प्रशासन देखना था। मालगुजार को निर्धारित राजस्व राज्य के खजाने में देना पड़ता था अब यदि मालगुजार अधिक राजस्व उगाह लेता था तो उसे लाभ होता था लेकिन कम राजस्व उगाहने पर उसे अपनी तरफ से भरपाई करनी होती थी। इसलिए बेहतर उत्पादन की खातिर मालगुज
कैसे बनते थे, तालाब?
Posted on 01 Mar, 2010 01:41 PM तालाब की पाल बनाने के लिए काली मिट्टी, जिसे कनाकर माटी कहते हैं, का उपयोग किया जाता था। इस मिट्टी में पानी रोकने और कड़ी हो जाने का गुण होता है। तालाब की पाल एक बार में नहीं बनायी जाती थी। पहले पानी रोकने का उपयुक्त स्थान तय करके छोटी पाल बनाई जाती थी। इस तरह से पानी रोकने के कारण पाल की मिट्टी कड़ी हो जाती थी। यह प्रक्रिया पाल की ऊँचाई भी तय करती थी और उसे मजबूत भी बनाती थी। पाल की ऊँचाई कुछ साल
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