बैतूल जिले की भैंसदेही तहसील पोखरणी के काशी तालाब से निकलने वाली इलाके की एक प्रमुख नदी पूर्णा के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ एक साथ 12 शिवलिंग और गणेशजी का एक मंदिर भी है। लेकिन 1998 में भैंसदेही की प्रसिद्धि का एक और भी दुःखद कारण पैदा हुआ था। सितम्बर-अक्टूबर के महीने में तहसील के परतवाड़ा मार्ग पर स्थित गुदगाँव रेस्ट हाउस के पास के गाँव गारपठार में दूषित पेयजल से एक साथ 15 आदिवासियों की मौतें हुई थीं। अंग्रेजों को चिलकापुर गाँव का यह स्थान इतना अच्छा लगता था कि इसे वे ‘गुडगांव’ यानि अच्छा गाँव कहा करते थे। धीरे-धीरे यह चिलकापुर बदलकर गुदगांव के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
ज्यादा नहीं कुल 35-40 साल पहले तक भैंसदेही तहसील में खूब पानी था। पूर्णा नदी और कई कुएँ पानी की जरूरतों को पूरा किया करते थे। कहते हैं कि अंग्रेज तकाबी वसूलते थे और कुएँ खुदवाते थे। तब ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदों, कुटकी की कम पानी वाली फसलें होती थीं। भैंसदेही कस्बे में तीन स्तर की जमीनें हैं- पहली निचले इलाकों की जहाँ खूब कुएँ हैं, दूसरी बीच की जहाँ कहीं-कहीं कुएँ खोदे गए हैं और तीसरी उँचाई की जहाँ बिल्कुल कुएँ नहीं हैं। इनमें से एक बीच बाजार में बना धर्माल यानि लोकहित में बना कुआँ भी है जिसे उत्तरप्रदेश के रायबरेली से आकर यहाँ बसे किलेदार परिवार ने खुदवाया था। शाहपुर चिचौली में भी ऐसे धर्माल के कुओं को किलेदार परिवार की वहाँ बस गई शाखाओं के पूर्वजों ने बरसों पहले खुदवाया था। कहते हैं कि इस कुएँ की झिर पर लोहे का एक विशाल तवा रखा है और यदि उसे हटा दें तो इतना पानी आएगा कि पूरे भैंसदेही कस्बे को ही डुबो देगा। ईंटों से पाटकर बनाया गया यह अष्टकोणीय सुन्दर कुआँ किलेदार परिवार द्वारा सन् 1974 में कस्बे की जलप्रदाय योजना को सार्वजनिक रूप से दान कर दिया गया था। आज भी इस कुएँ से पाँच अश्वशक्ति की मोटर लगाकर पाँच-सात मिनट में वह टंकी लबालब भर दी जाती है जिससे एक विशाल आबादी को पानी पहुँचाया जाता है। ऐसे ही 1905 में भैंसदेही तहसील की कचहरी बनी थी और उसी के साथ खुदा कुआँ कचेहरी का कुआँ कहलाया था।
भैंसदेही तहसील के टेमनी, मेढापुर, सालेढाना, उछामा, निरुंग, सांवलमेढ़ा, भोजूढाना आदि कोरकू आदिवासियों के गाँवों में पाट व्यवस्था आज तक मौजूद है। इस तरीके से ऊँचाई पर नाला बाँधकर ऊँचे पहाड़ों तक पानी ले जाया जाता है। पश्चिम मध्यप्रदेश के भील, भिलालों के इलाके में यह पाट व्यवस्था बहुत प्रसिद्ध और आज भी प्रचलित है।
50 साल पहले भैंसदेही में बरसात भी औसतन 60 इंच हुआ करती थी। कहते हैं कि एक पुराने आमलेकर परिवार की मोठीबाई यानि बड़ी बहन सूर्य के दर्शन के बिना भोजन नहीं करती थीं। लेकिन कई बार बरसात के मौसम में लगने वाली झड़ी के कारण मोठीबाई को आठ-आठ दिन तक भूखे ही रहना पड़ता था। कस्बे के बुजुर्ग कहते हैं कि 1965 में बिजली आने के साथ ही पानी का अत्यधिक उपयोग और बर्बादी शुरू हुई, गंदगी बढ़ती गई और पानी भी प्रदूषित होता गया। 1974 में पाढर अस्पताल के सहयोग से 130 फुट का पहला नलकूप खुदा। धीरे-धीरे कुओं में मोटरें लगनी शुरू हुईं और तेजी से पानी खींचा जाने लगा। ज्यादा पानी और पैदावार वाली फसलें भी शुरू हुईं। पानी और उसके साथ रासायनिक खाद, दवाओं के ऐसे बहुतायत से हो रहे इस्तेमाल के बावजूद भैंसदेही में ही एक ऐसा परिवार भी है जो पिछले 25-30 सालों से बिना इन उपायों के गेहूँ सोयाबीन तक की फसलें ले रहा है। पानी संभवतः ऐसे लोगों के हाथों में ही बचेगा जो कह सकें कि उन्होंने ‘जमीन को बचाया है।’
ज्यादा नहीं कुल 35-40 साल पहले तक भैंसदेही तहसील में खूब पानी था। पूर्णा नदी और कई कुएँ पानी की जरूरतों को पूरा किया करते थे। कहते हैं कि अंग्रेज तकाबी वसूलते थे और कुएँ खुदवाते थे। तब ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदों, कुटकी की कम पानी वाली फसलें होती थीं। भैंसदेही कस्बे में तीन स्तर की जमीनें हैं- पहली निचले इलाकों की जहाँ खूब कुएँ हैं, दूसरी बीच की जहाँ कहीं-कहीं कुएँ खोदे गए हैं और तीसरी उँचाई की जहाँ बिल्कुल कुएँ नहीं हैं। इनमें से एक बीच बाजार में बना धर्माल यानि लोकहित में बना कुआँ भी है जिसे उत्तरप्रदेश के रायबरेली से आकर यहाँ बसे किलेदार परिवार ने खुदवाया था। शाहपुर चिचौली में भी ऐसे धर्माल के कुओं को किलेदार परिवार की वहाँ बस गई शाखाओं के पूर्वजों ने बरसों पहले खुदवाया था। कहते हैं कि इस कुएँ की झिर पर लोहे का एक विशाल तवा रखा है और यदि उसे हटा दें तो इतना पानी आएगा कि पूरे भैंसदेही कस्बे को ही डुबो देगा। ईंटों से पाटकर बनाया गया यह अष्टकोणीय सुन्दर कुआँ किलेदार परिवार द्वारा सन् 1974 में कस्बे की जलप्रदाय योजना को सार्वजनिक रूप से दान कर दिया गया था। आज भी इस कुएँ से पाँच अश्वशक्ति की मोटर लगाकर पाँच-सात मिनट में वह टंकी लबालब भर दी जाती है जिससे एक विशाल आबादी को पानी पहुँचाया जाता है। ऐसे ही 1905 में भैंसदेही तहसील की कचहरी बनी थी और उसी के साथ खुदा कुआँ कचेहरी का कुआँ कहलाया था।
भैंसदेही तहसील के टेमनी, मेढापुर, सालेढाना, उछामा, निरुंग, सांवलमेढ़ा, भोजूढाना आदि कोरकू आदिवासियों के गाँवों में पाट व्यवस्था आज तक मौजूद है। इस तरीके से ऊँचाई पर नाला बाँधकर ऊँचे पहाड़ों तक पानी ले जाया जाता है। पश्चिम मध्यप्रदेश के भील, भिलालों के इलाके में यह पाट व्यवस्था बहुत प्रसिद्ध और आज भी प्रचलित है।
50 साल पहले भैंसदेही में बरसात भी औसतन 60 इंच हुआ करती थी। कहते हैं कि एक पुराने आमलेकर परिवार की मोठीबाई यानि बड़ी बहन सूर्य के दर्शन के बिना भोजन नहीं करती थीं। लेकिन कई बार बरसात के मौसम में लगने वाली झड़ी के कारण मोठीबाई को आठ-आठ दिन तक भूखे ही रहना पड़ता था। कस्बे के बुजुर्ग कहते हैं कि 1965 में बिजली आने के साथ ही पानी का अत्यधिक उपयोग और बर्बादी शुरू हुई, गंदगी बढ़ती गई और पानी भी प्रदूषित होता गया। 1974 में पाढर अस्पताल के सहयोग से 130 फुट का पहला नलकूप खुदा। धीरे-धीरे कुओं में मोटरें लगनी शुरू हुईं और तेजी से पानी खींचा जाने लगा। ज्यादा पानी और पैदावार वाली फसलें भी शुरू हुईं। पानी और उसके साथ रासायनिक खाद, दवाओं के ऐसे बहुतायत से हो रहे इस्तेमाल के बावजूद भैंसदेही में ही एक ऐसा परिवार भी है जो पिछले 25-30 सालों से बिना इन उपायों के गेहूँ सोयाबीन तक की फसलें ले रहा है। पानी संभवतः ऐसे लोगों के हाथों में ही बचेगा जो कह सकें कि उन्होंने ‘जमीन को बचाया है।’
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