कहते हैं कि पिंडारियों ने या फिर लोककथा के एक राजा को ब्रह्म न दिखा पाने के बदले में लोगों के नाक-कान काट लिए गए थे। ये लोग खेड़ला के पास जा बसे वह जगह बदनूर या बेनूर कहलायी। रेल लाइन आने के कारण इस जगह से थोड़ा हटकर आज का बैतूल शहर बसा।
बैतूल कस्बे में 1960 के पहले तक कुएँ ही पानी के प्रमुख स्रोत थे। ढीमर लोग कावड़ों से घर-घर पानी पहुँचाते थे। तब संभवतः निजी और सार्वजनिक मिलाकर 50 बड़े कुएँ रहे होंगे। सार्वजनिक कुँओं में कुछ खासतौर पर याद किए जाते हैं जैसे सर्किट हाउस के पीछे का कुआँ, शिक्षा विभाग के कार्यालय के पास का कुआँ, तहसील (जहां आजकल एक स्कूल का कुंआ है) का कुआँ। तहसील का कुंआ पहले 12 घिर्री का हुआ करता था, बाद में 1950-60 के बीच धँसकने के कारण जगत फैल गई और यह पचास घिर्री का हो गया। इसी तरह सर्किट हाउस का कुआँ पहले साफ और दूधिया पानी से दालें पकाने के काम आता था। निस्तार के लिए बैतूल में चार तालाब भी थे-काशी तालाब, फूटा तालाब, शंकर मंदिर के पास कोठी बाजार का बड़ा तालाब और सोनाघाटी के पास का तालाब। उन दिनों बैतूल की औसत वर्षा 60 इंच हुआ करती थी और मानसून में सूर्य के दर्शन उत्सव का माहौल बना देते थे। शहर और उसके आस-पास घने जंगल थे।
बैतूल की जलवायु समशीतोष्ण है, अधिकतम तापमान 43.4 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 1.5 डिग्री सेल्सियस है। जिले का उत्तरी भाग समतल और बाकी पहाड़ी है। जिनमें से ताप्ती, माचना, मोरंड, पूर्णा तथा बेल सरीखी बड़ी नदियाँ अनेकों छोटे-बड़े नदी-नालों के साथ निकलती और बहती हैं। जिले की पीली, रेतीली मिट्टी के ‘मटमर्रा’ कहे जाने वाले मैदानी क्षेत्रों के 4.14 लाख हेक्टेयर में खेती की जाती है जिसमें से 1.64 लाख हेक्टेयर में आजकल यहाँ की प्रमुख फसल का दर्जा प्राप्त सोयाबीन बोयी जाती है। रबी में इससे बहुत कम 82 हजार हेक्टेयर में गेंहूँ की बोनी होती है।
इस बड़े पैमाने पर की जा रही आधुनिक खेती के लिए सिंचाई एक अनिवार्य जरूरत होती है। बैतूल जिले में पानी का मुख्य स्रोत आज भी कुआँ ही है। लगभग 48 हजार कुएँ सिंचित जमीनों के 66 प्रतिशत हिस्से को पानी देते हैं। वैसे जिले में खेती योग्य जमीन का कुल 8 प्रतिशत ही सिंचित है और बाकी के 92 प्रतिशत पर सूखी खेती होती है।
आठनेर, मुलताई, पट्टन, भैंसदेही विकासखण्डों में कुओं में 45 या 60 फुट से अधिक पर और नलकूपों में 360 से 400 फुट पर पानी मिलता है। आमला और चिचोली विकासखण्डों का कुछ इलाका है जहाँ नलकूप सफल हैं। जिले की जनसंख्या लगभग 11 लाख है और इसमें से करीब 7 लाख किसान हैं। कहा जाता है कि कुओं की संख्या भी लगभग किसानों की संख्या के बराबर है। बैतूल जिले में लगभग हर साल 600 कुएँ खोदे जाते हैं। इस तरह हर साल नलकूप के लगभग 200 आवेदन प्राप्त होते हैं। सरकारी ताम-झाम में बिना किसी जाँच के खोदने की अनुमति और राजनीतिक कारणों से सब्सिडी अनुदान दे दिया जाता है। 2000 गैलन या 200 लीटर प्रति घण्टा की आपूर्ति हो तो ऐसा नलकूप 50 वर्ष तक चलता है। लेकिन पानी के अलावा किन्हीं और कारणों से खोदे गए कुएँ और नलकूप ऐसी कोई शर्त पूरी नहीं करते। हालाँकि 92 प्रतिशत गाँवों में सन् 1970 के बाद आयी बिजली के कारण 29 हजार कुओं में मोटरें भी लग गई हैं।
पीने के पानी के लिए भी जिले में 262 गाँवों में 380 सफल नलकूप खोदकर 378 हैंडपंप और 2 विद्युत पम्प स्थापित किए गए हैं। 5 आँशिक रूप से पूर्ण और 23 अतिरिक्त नल-जल प्रदाय योजनाएँ पेयजल उपलब्ध करवा रही हैं। इसी तरह शहरी क्षेत्रों के लिए 33 हैंडपम्प तथा एक जलप्रदाय योजना बनाई गई है।
बैतूल की नगर पालिका परिषद् भी 38 वार्डों में फैली है और अपनी लगभग 72800 की अनुमानित जनसंख्या के लिए पेयजल और निस्तार की किसी तरह व्यवस्था कर पाती है। सन् 1963-64 में शहर में आयी बिजली और 60 के दशक में ही माचना नदी पर बनाए गए एनीकट से यह व्यवस्था और भी तेज हो गई थी।
मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने यूनीसेफ की मदद से 1968-69 में जल प्रदाय विकास कार्यक्रम हाथ में लिया था। इस कार्यक्रम का मुख्य आधार हैंडपम्प ही थे। दरअसल यूनीसेफ ने हैंडपम्प से पानी देने के कार्यक्रम में बहुत योगदान किया है। उनका एक पम्प इंडिया मार्क-2 है जो गाँव गाँव में देखा जा सकता है। यह मॉडल भारत के ‘शोलापुर वेल सर्विस’ का सुधरा हुआ रूप है। स्वीडन के इंजीनियरों द्वारा विकसित एक और मॉडल है जिसे ‘पेट्रोपंप’ कहा जाता है।
इस विशाल तामझाम की मदद से एक तरफ पूरे गोंडवाने में असंख्य नलकूप खोदे गए और दूसरी तरफ कुओं के गहरीकरण का काम किया गया।
पानी के विकास के इन कार्यक्रमों का क्या नतीजा हुआ? जिले के किसानों और आम नागरिकों का कहना है कि 60 के दशके के बाद भू-गर्भीय जलस्तर तेजी से घटा है। पहले जहाँ ज्यादा से ज्यादा 30-40 फुट पर पानी आ जाता था वहीं आजकल 300-400 और कहीं-कहीं तो 700 फुट तक खोदना पड़ता है। पूरे भारत में लगे नलकूपों में से कुल जमा 20 से 30 प्रतिशत ही सफल यानि कार्यरत पाए गए हैं। हैंडपम्प या नलकूपों का रख-रखाव सिर्फ तकनीक भर न होकर उस इलाके की आमतौर पर बहुत पेचीदी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी होती हैं।
हालाँकि नलकूप का पानी साफ शुद्ध होता है। लेकिन जब जलप्रदाय व्यवस्थाएं भंग हो जाती हैं तो ग्रामीण वापस अपने पारम्परिक तरीकों पर लौट जाते हैं जो न तो साफ रहते हैं और न ही पूरे पड़ते हैं। बैतूल जिले में उद्योगों, पेयजल और सिंचाई के लिए भू-गर्भीय जल का ही उपयोग किया जाता है। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 1974 में हुए नागपुर अधिवेशन के लिए किए गए शोध में बताया गया कि नाइट्रेट के घनत्व की वजह मानवीय गतिविधियाँ हैं और कई बार नलकूपों के कथित बेहतर पानी में उतनी ही खराबी पायी जाती है जितनी कि पारम्परिक स्रोतों में।
एक अध्ययन के जरिए हैण्डपम्पों की खराबी के कुछ कारण भी उजागर हुए हैं। इसके अनुसार हैंडपम्प खोदते समय किसी ग्रामीण से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जाता कि उन्हें इसकी जरूरत है भी या नहीं। आमतौर पर हैंडपम्प मुफ्त में लगा दिए जाते हैं। इसी तरह हैंडपम्प को मुफ्त में सुधार दिया जाता है। जिसमें ग्रामीणों की कोई रुचि नहीं रहती। वे साफ पानी और स्वास्थ्य के रिश्ते को नहीं समझते और हैण्डपम्प खस्ता हालतों के कारण आमतौर पर ज्यादा काम भी नहीं कर पाते। बेहद कठिन और उबाऊ काम होने के कारण ग्रामीणों को हैंडपम्प के सुधारने में भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। इस अध्ययन से एक बात उभरती है कि हैण्डपम्प या नलकूप सरीखे आधुनिक ताने-बाने को गाँव-समाज अपनी नहीं बना पाया है और नतीजे में ये सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं के बनकर रह गए हैं.
स्वीडन के लुण्ड विश्वविद्यालय की एक शोध-छात्रा लिन्नी एन्डरसन हॉन का कहना है कि ‘पानी के स्रोतों के लिए नलकूप एकमात्र विकल्प नहीं हैं। इसे खोदने के पहले के पहले दूसरे विकल्पों मसलन नदी-नालों पर छोटे बंधान या कुओं आदि को सुधारना बनाना चाहिए।’
बैतूल जिले में पानी के उपयोग और उसके लिए स्रोत विकसित करने के तरीकों को देखें तो समझा जा सकता है कि पानी कैसे समाज के हाथों से खिसकता जा रहा है। प्रदेश और देश के दूसरे इलाकों में भी ऐसी ही प्रक्रियाएँ जारी हैं और नतीजों में सभी का पानी सूखता जा रहा है।
बैतूल कस्बे में 1960 के पहले तक कुएँ ही पानी के प्रमुख स्रोत थे। ढीमर लोग कावड़ों से घर-घर पानी पहुँचाते थे। तब संभवतः निजी और सार्वजनिक मिलाकर 50 बड़े कुएँ रहे होंगे। सार्वजनिक कुँओं में कुछ खासतौर पर याद किए जाते हैं जैसे सर्किट हाउस के पीछे का कुआँ, शिक्षा विभाग के कार्यालय के पास का कुआँ, तहसील (जहां आजकल एक स्कूल का कुंआ है) का कुआँ। तहसील का कुंआ पहले 12 घिर्री का हुआ करता था, बाद में 1950-60 के बीच धँसकने के कारण जगत फैल गई और यह पचास घिर्री का हो गया। इसी तरह सर्किट हाउस का कुआँ पहले साफ और दूधिया पानी से दालें पकाने के काम आता था। निस्तार के लिए बैतूल में चार तालाब भी थे-काशी तालाब, फूटा तालाब, शंकर मंदिर के पास कोठी बाजार का बड़ा तालाब और सोनाघाटी के पास का तालाब। उन दिनों बैतूल की औसत वर्षा 60 इंच हुआ करती थी और मानसून में सूर्य के दर्शन उत्सव का माहौल बना देते थे। शहर और उसके आस-पास घने जंगल थे।
बैतूल की जलवायु समशीतोष्ण है, अधिकतम तापमान 43.4 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 1.5 डिग्री सेल्सियस है। जिले का उत्तरी भाग समतल और बाकी पहाड़ी है। जिनमें से ताप्ती, माचना, मोरंड, पूर्णा तथा बेल सरीखी बड़ी नदियाँ अनेकों छोटे-बड़े नदी-नालों के साथ निकलती और बहती हैं। जिले की पीली, रेतीली मिट्टी के ‘मटमर्रा’ कहे जाने वाले मैदानी क्षेत्रों के 4.14 लाख हेक्टेयर में खेती की जाती है जिसमें से 1.64 लाख हेक्टेयर में आजकल यहाँ की प्रमुख फसल का दर्जा प्राप्त सोयाबीन बोयी जाती है। रबी में इससे बहुत कम 82 हजार हेक्टेयर में गेंहूँ की बोनी होती है।
इस बड़े पैमाने पर की जा रही आधुनिक खेती के लिए सिंचाई एक अनिवार्य जरूरत होती है। बैतूल जिले में पानी का मुख्य स्रोत आज भी कुआँ ही है। लगभग 48 हजार कुएँ सिंचित जमीनों के 66 प्रतिशत हिस्से को पानी देते हैं। वैसे जिले में खेती योग्य जमीन का कुल 8 प्रतिशत ही सिंचित है और बाकी के 92 प्रतिशत पर सूखी खेती होती है।
आठनेर, मुलताई, पट्टन, भैंसदेही विकासखण्डों में कुओं में 45 या 60 फुट से अधिक पर और नलकूपों में 360 से 400 फुट पर पानी मिलता है। आमला और चिचोली विकासखण्डों का कुछ इलाका है जहाँ नलकूप सफल हैं। जिले की जनसंख्या लगभग 11 लाख है और इसमें से करीब 7 लाख किसान हैं। कहा जाता है कि कुओं की संख्या भी लगभग किसानों की संख्या के बराबर है। बैतूल जिले में लगभग हर साल 600 कुएँ खोदे जाते हैं। इस तरह हर साल नलकूप के लगभग 200 आवेदन प्राप्त होते हैं। सरकारी ताम-झाम में बिना किसी जाँच के खोदने की अनुमति और राजनीतिक कारणों से सब्सिडी अनुदान दे दिया जाता है। 2000 गैलन या 200 लीटर प्रति घण्टा की आपूर्ति हो तो ऐसा नलकूप 50 वर्ष तक चलता है। लेकिन पानी के अलावा किन्हीं और कारणों से खोदे गए कुएँ और नलकूप ऐसी कोई शर्त पूरी नहीं करते। हालाँकि 92 प्रतिशत गाँवों में सन् 1970 के बाद आयी बिजली के कारण 29 हजार कुओं में मोटरें भी लग गई हैं।
पीने के पानी के लिए भी जिले में 262 गाँवों में 380 सफल नलकूप खोदकर 378 हैंडपंप और 2 विद्युत पम्प स्थापित किए गए हैं। 5 आँशिक रूप से पूर्ण और 23 अतिरिक्त नल-जल प्रदाय योजनाएँ पेयजल उपलब्ध करवा रही हैं। इसी तरह शहरी क्षेत्रों के लिए 33 हैंडपम्प तथा एक जलप्रदाय योजना बनाई गई है।
शहर में पानी
बैतूल की नगर पालिका परिषद् भी 38 वार्डों में फैली है और अपनी लगभग 72800 की अनुमानित जनसंख्या के लिए पेयजल और निस्तार की किसी तरह व्यवस्था कर पाती है। सन् 1963-64 में शहर में आयी बिजली और 60 के दशक में ही माचना नदी पर बनाए गए एनीकट से यह व्यवस्था और भी तेज हो गई थी।
हैंडपम्प का पानी
मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने यूनीसेफ की मदद से 1968-69 में जल प्रदाय विकास कार्यक्रम हाथ में लिया था। इस कार्यक्रम का मुख्य आधार हैंडपम्प ही थे। दरअसल यूनीसेफ ने हैंडपम्प से पानी देने के कार्यक्रम में बहुत योगदान किया है। उनका एक पम्प इंडिया मार्क-2 है जो गाँव गाँव में देखा जा सकता है। यह मॉडल भारत के ‘शोलापुर वेल सर्विस’ का सुधरा हुआ रूप है। स्वीडन के इंजीनियरों द्वारा विकसित एक और मॉडल है जिसे ‘पेट्रोपंप’ कहा जाता है।
इस विशाल तामझाम की मदद से एक तरफ पूरे गोंडवाने में असंख्य नलकूप खोदे गए और दूसरी तरफ कुओं के गहरीकरण का काम किया गया।
पानी के विकास के इन कार्यक्रमों का क्या नतीजा हुआ? जिले के किसानों और आम नागरिकों का कहना है कि 60 के दशके के बाद भू-गर्भीय जलस्तर तेजी से घटा है। पहले जहाँ ज्यादा से ज्यादा 30-40 फुट पर पानी आ जाता था वहीं आजकल 300-400 और कहीं-कहीं तो 700 फुट तक खोदना पड़ता है। पूरे भारत में लगे नलकूपों में से कुल जमा 20 से 30 प्रतिशत ही सफल यानि कार्यरत पाए गए हैं। हैंडपम्प या नलकूपों का रख-रखाव सिर्फ तकनीक भर न होकर उस इलाके की आमतौर पर बहुत पेचीदी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी होती हैं।
हालाँकि नलकूप का पानी साफ शुद्ध होता है। लेकिन जब जलप्रदाय व्यवस्थाएं भंग हो जाती हैं तो ग्रामीण वापस अपने पारम्परिक तरीकों पर लौट जाते हैं जो न तो साफ रहते हैं और न ही पूरे पड़ते हैं। बैतूल जिले में उद्योगों, पेयजल और सिंचाई के लिए भू-गर्भीय जल का ही उपयोग किया जाता है। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 1974 में हुए नागपुर अधिवेशन के लिए किए गए शोध में बताया गया कि नाइट्रेट के घनत्व की वजह मानवीय गतिविधियाँ हैं और कई बार नलकूपों के कथित बेहतर पानी में उतनी ही खराबी पायी जाती है जितनी कि पारम्परिक स्रोतों में।
एक अध्ययन के जरिए हैण्डपम्पों की खराबी के कुछ कारण भी उजागर हुए हैं। इसके अनुसार हैंडपम्प खोदते समय किसी ग्रामीण से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जाता कि उन्हें इसकी जरूरत है भी या नहीं। आमतौर पर हैंडपम्प मुफ्त में लगा दिए जाते हैं। इसी तरह हैंडपम्प को मुफ्त में सुधार दिया जाता है। जिसमें ग्रामीणों की कोई रुचि नहीं रहती। वे साफ पानी और स्वास्थ्य के रिश्ते को नहीं समझते और हैण्डपम्प खस्ता हालतों के कारण आमतौर पर ज्यादा काम भी नहीं कर पाते। बेहद कठिन और उबाऊ काम होने के कारण ग्रामीणों को हैंडपम्प के सुधारने में भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। इस अध्ययन से एक बात उभरती है कि हैण्डपम्प या नलकूप सरीखे आधुनिक ताने-बाने को गाँव-समाज अपनी नहीं बना पाया है और नतीजे में ये सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं के बनकर रह गए हैं.
स्वीडन के लुण्ड विश्वविद्यालय की एक शोध-छात्रा लिन्नी एन्डरसन हॉन का कहना है कि ‘पानी के स्रोतों के लिए नलकूप एकमात्र विकल्प नहीं हैं। इसे खोदने के पहले के पहले दूसरे विकल्पों मसलन नदी-नालों पर छोटे बंधान या कुओं आदि को सुधारना बनाना चाहिए।’
बैतूल जिले में पानी के उपयोग और उसके लिए स्रोत विकसित करने के तरीकों को देखें तो समझा जा सकता है कि पानी कैसे समाज के हाथों से खिसकता जा रहा है। प्रदेश और देश के दूसरे इलाकों में भी ऐसी ही प्रक्रियाएँ जारी हैं और नतीजों में सभी का पानी सूखता जा रहा है।
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