गोंडों को दो तरह से विभक्त कर सकते हैं- एक राजगोंड जो राजा थे और दूसरे ‘धुर’ या ‘धूल’ जो साधारण गोंड थे। ‘धुर’ या ‘धूल’ गोंडों को हिन्दुओं में रावण वंशीय माना जाता था।
राजगोंडों ने अपने ‘खालसा’ क्षेत्र को किलों में विभक्त किया था। हरेक किला किलेदार या दीवान की निगरानी में रहता था और उसकी सहायता के लिए देशमुख, देशपांडे और सरमुकद्दम रहते थे। ये अधिकारी किलेदार और ग्रामीण अधिकारियों के बीच की कड़ी माने जाते थे। गाँवों में पटेल सबसे महत्वपूर्ण रहता था जिसे स्थानांतरण या और किसी तरह से बदला नहीं जा सकता था, इसलिए पटेल का पद आमतौर पर पिता से पुत्र को मिल जाता था। पटेल राजस्व इकट्ठा करने और कुछ कानूनी अधिकारों के पालन करवाने का काम करता था। पटेल को अपने काम के बदले कर मुक्त जमीन और राजस्व का एक चौथाई हिस्सा दिया जाता था। पटेल की मदद के लिए पांडिया (गाँव का लेखाकार) और कोटवार (गाँव का चौकीदार) रहते थे। गाँव की सारी जमीनें पटेल द्वारा किसानों को लीज पर दी जाती थीं।
सतपुड़ा की विशाल पर्वत श्रृंखलाओं पर गोंड राजाओं ने अपने किले और उनमें पेयजल तथा निस्तार की आपूर्ति के लिए तालाब और बावड़ी सरीखे ढाँचे बनवाए थे। भंवरगढ़, असीरगढ़, हिरदेनगर, रामगढ़, सांवलीगढ़, शेरगढ़, देवगढ़, रामनगर आदि किलों और महलों के खण्डहरों में आज भी कठिन ऊँचाईयों पर ये तालाब या बावड़ियाँ देखे जा सकते हैं। सांवलीगढ़ किला बैतूल जिले के चिचोली कस्बे के पास है जिसमें, कहा जाता है कि नौ तालाब थे जिनमें से एक सूख गया है, लेकिन बाकी के आठ तालाब आज भी मौजूद हैं। इस किले में राजस्थानी वेशभूषा वाली मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। 11 वीं शताब्दी में बने ये तालाब बेहद साफ-सुथरे हैं और इनमें नीचे जाने के लिए सुन्दर सीढ़ियाँ भी बनी है। असीर का मतलब कैदखाना होता है। कहते हैं कि ‘मुझे ख्याल करें या आसीर करें, मेरे ख्यालों को बेड़ी नहीं पहना सकते।’ रामपुर-भतोड़ी के पास बने असीरगढ़ किले का शायद कैदखाने की तरह ही उपयोग होता होगा परन्तु वहाँ भी पेयजल व निस्तार के लिए तालाब मौजूद हैं। शाहपुर कस्बे से लगे हुए पावरझण्डा के पास भंवरगढ़ किला है जिसमें तालाब हैं। इसी तरह मुलताई-अष्टा मार्ग पर शेरगढ़ किले में तालाब हैं, देवगढ़ में मोतीटांका है और हिरदेनगर में एक विशाल तालाब है। रामनगर के महल के बीचोंबीच 50 फुट लम्बा और इतना ही चौड़ा और 10 फुट गहरा एक विशाल कुण्ड और बावड़ी है। मंडला किले के बुर्ज के पास एक सुन्दर बावड़ी है हाँलाकि किले से सटकर नर्मदा भी गुजरती हैं। रामगढ़ में 1857 में बनी एक बावड़ी आज भी मौजूद है। शाहपुर के पास पाहावाड़ी गाँव में गोंड राजाओं के सरदार रहते थे। वहाँ एक बावड़ी है जिसे नारू रोग के डर के कारण आजकल ढँक दिया गया है।
आज के बदले हुए समाज में पिछड़े, निरक्षर माने जाने वाले गोंड आदिवासी एक जमाने में रानी-राजा थे और अपने राजधर्म में प्रजा और प्राकृतिक संसाधनों, स्रोतों के रख-रखाव व संरक्षण को शामिल मानते थे। यह समझ ही थी जिसके चलते हमारा समाज जल, जंगल और जमीन के अकाल के इस दौर मे भी कम से कम खड़ा है। लेकिन हम इस समझदारी के बदले उन्हें क्या देते, समझते हैं?
राजगोंडों ने अपने ‘खालसा’ क्षेत्र को किलों में विभक्त किया था। हरेक किला किलेदार या दीवान की निगरानी में रहता था और उसकी सहायता के लिए देशमुख, देशपांडे और सरमुकद्दम रहते थे। ये अधिकारी किलेदार और ग्रामीण अधिकारियों के बीच की कड़ी माने जाते थे। गाँवों में पटेल सबसे महत्वपूर्ण रहता था जिसे स्थानांतरण या और किसी तरह से बदला नहीं जा सकता था, इसलिए पटेल का पद आमतौर पर पिता से पुत्र को मिल जाता था। पटेल राजस्व इकट्ठा करने और कुछ कानूनी अधिकारों के पालन करवाने का काम करता था। पटेल को अपने काम के बदले कर मुक्त जमीन और राजस्व का एक चौथाई हिस्सा दिया जाता था। पटेल की मदद के लिए पांडिया (गाँव का लेखाकार) और कोटवार (गाँव का चौकीदार) रहते थे। गाँव की सारी जमीनें पटेल द्वारा किसानों को लीज पर दी जाती थीं।
सतपुड़ा की विशाल पर्वत श्रृंखलाओं पर गोंड राजाओं ने अपने किले और उनमें पेयजल तथा निस्तार की आपूर्ति के लिए तालाब और बावड़ी सरीखे ढाँचे बनवाए थे। भंवरगढ़, असीरगढ़, हिरदेनगर, रामगढ़, सांवलीगढ़, शेरगढ़, देवगढ़, रामनगर आदि किलों और महलों के खण्डहरों में आज भी कठिन ऊँचाईयों पर ये तालाब या बावड़ियाँ देखे जा सकते हैं। सांवलीगढ़ किला बैतूल जिले के चिचोली कस्बे के पास है जिसमें, कहा जाता है कि नौ तालाब थे जिनमें से एक सूख गया है, लेकिन बाकी के आठ तालाब आज भी मौजूद हैं। इस किले में राजस्थानी वेशभूषा वाली मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। 11 वीं शताब्दी में बने ये तालाब बेहद साफ-सुथरे हैं और इनमें नीचे जाने के लिए सुन्दर सीढ़ियाँ भी बनी है। असीर का मतलब कैदखाना होता है। कहते हैं कि ‘मुझे ख्याल करें या आसीर करें, मेरे ख्यालों को बेड़ी नहीं पहना सकते।’ रामपुर-भतोड़ी के पास बने असीरगढ़ किले का शायद कैदखाने की तरह ही उपयोग होता होगा परन्तु वहाँ भी पेयजल व निस्तार के लिए तालाब मौजूद हैं। शाहपुर कस्बे से लगे हुए पावरझण्डा के पास भंवरगढ़ किला है जिसमें तालाब हैं। इसी तरह मुलताई-अष्टा मार्ग पर शेरगढ़ किले में तालाब हैं, देवगढ़ में मोतीटांका है और हिरदेनगर में एक विशाल तालाब है। रामनगर के महल के बीचोंबीच 50 फुट लम्बा और इतना ही चौड़ा और 10 फुट गहरा एक विशाल कुण्ड और बावड़ी है। मंडला किले के बुर्ज के पास एक सुन्दर बावड़ी है हाँलाकि किले से सटकर नर्मदा भी गुजरती हैं। रामगढ़ में 1857 में बनी एक बावड़ी आज भी मौजूद है। शाहपुर के पास पाहावाड़ी गाँव में गोंड राजाओं के सरदार रहते थे। वहाँ एक बावड़ी है जिसे नारू रोग के डर के कारण आजकल ढँक दिया गया है।
आज के बदले हुए समाज में पिछड़े, निरक्षर माने जाने वाले गोंड आदिवासी एक जमाने में रानी-राजा थे और अपने राजधर्म में प्रजा और प्राकृतिक संसाधनों, स्रोतों के रख-रखाव व संरक्षण को शामिल मानते थे। यह समझ ही थी जिसके चलते हमारा समाज जल, जंगल और जमीन के अकाल के इस दौर मे भी कम से कम खड़ा है। लेकिन हम इस समझदारी के बदले उन्हें क्या देते, समझते हैं?
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