बैतूल जिले की एक प्रमुख नदी माचना के किनारे पतौआपुरा और बरबटपुर मिलकर बना शाहपुर कस्बा, कहते हैं ढाई-तीन सौ साल पहले बसा था। तब पीने का पानी एक तो आदिवासी ढाने के झीराकुआँ यानि झिर वाला कुआँ और दूसरे दौड़ादेव के कुण्ड से लिया जाता था। आदिवासी देवता दौड़ादेव आज के बरबटपुर के रेलवे स्टेशन के रास्ते पर स्थित एक बहुत पुराने वृक्ष पर निवास करते हैं और कहा जाता है कि इसमें निवास कर रही किसी भली आत्मा की कृपा से पेड़ की जड़ों से लगातार पानी झिरकर नीचे बने कुण्ड में पहुँचता रहता है। सन् 1968-72 तथा 72-73 के बीच दो बार सूखे पड़े थे, जब नदी भी सूख गई थी लेकिन दौड़ादेव के पानी में कमी नहीं आयी। उस जमाने में पानी की ज्यादा जरूरत होने पर नदी किनारे मिट्टी हटाकर झिरियाँ बना लेते थे। ऐसी झिरियाँ पहाड़ों की तराई में भी बना ली जाती थीं और उन्हें स्थाई तथा कूड़ा-करकट, मिट्टी आदि से बचाने के लिए पत्थर, लकड़ी आदि से पाट दिया जाता था। कहते हैं कि 60-70 साल पहले अकाल पड़ा था तब यह झीरा या झिरियाँ ही काम आयी थीं। पास के रायपुर गाँव में तो ऐसी ही एक झिर से निकलने वाली झिरना नदी पर बाँध, जिसे सब लोग डेम कहते हैं, बनाया गया जिससे करीब एक हजार एकड़ जमीन की सिंचाई होती है। शाहपुर में झिरियों के पानी का आज भी दो से पांच प्रतिशत लोग उपयोग करते हैं।
कभी-कभार की अल्प-वर्षा और आबादी के बढ़ते जाने से कुओं की पुख्ता व्यवस्था बननी शुरू हुई। लगभग हर दो-चार गाँवों और कभी-कभी इनसे भी अधिक के बीच एकाध कुआँ या झिरियां हुआ करते थे जो कठिन समय में सबका काम चलाते थे। शाहपुर में 100-150 साल पहले आमवाले कुएँ खोदे गए जिनसे आज भी शुद्ध और मीठा पानी मिलता है। कहते हैं कि इनके पानी से नहाने पर चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। 1978 में पहले तक शाहपुर कस्बे में 30-35 कुएँ थे जिनमें से तीन-चार का पानी मीठा था। पास के रायपुर गाँव में सात से पंद्रह हाथ गहरे चार कुएँ थे जिनमें पानी खींचने के लिए ‘गराड़’ या घिर्री लगी थी। बीचढाना या बड़ाढाना की आठ, नौ सौ की आबादी के लिए आठ-दस कुएँ थे।
इसी तरह कछार गाँव के कोलियापुरा ढाने में एक कुआँ है जो आसपास के कोयलाबुडड्डी, जोड़ियामहू, कछार, चिखल्दा, कोचामहू, झिरियाँ डोल आदि सात-आठ गाँवों को पानी पुराता था। सन् 1928-30 के बीच एक बार पानी की कमी हुई थी और तब एक गड्ढे को खोदकर झिरियाँ या झिर में बदल दिया गया। ‘बड़ा कुआँ’ कहलाने वाले इस पुरुष-भर (पांच-छह फुट) से कुँए को पाट कर उसमें उम्दा चांदा या जगत भी बनाया गया था। इसके पानी को ‘गंगा की धारा’ कहने-मानने वाले बुजुर्ग बताते हैं कैसे कोयलाबुद गाँव के रहने वाले कछार पंचायत के सरपंच ने सुधरवाने के नाम पर एक बड़ी आबादी को पानी पिलाने वाले इस कुएँ को तुड़वा दिया। इसी बीच गाँव में सरकारी अनुदान से हैंडपंप खुदे और नतीजे में यह पुराना जलस्रोत बेसरम की झाड़ियों, कचरे और मिट्टी से पुरकर अनुपयोगी हो गया। लेकिन गाँव के लोग बताते हैं कि अब भी कभी पानी की कमी होने पर इसकी झिर खोदकर ही काम चलाया जाता है।
शाहपुर इलाके में कुछ साल पहले तक काफी जंगल थे और बरसात भी ठीक-ठाक होती थी। 1997-98 में कई साल बाद 70-72 इंच की असामान्य बरसात हुई थी लेकिन आमतौर पर यहाँ की औसत वर्षा 30-40 इंच ही रहती है। आसपास कई छोटे-मोटे बारामासी नदी-नाले रहे हैं जिनके किनारे झिरियाँ खोदकर लोगों की पेयजल आपूर्ति होती थी। कस्बे के बीच से गुजरने वाली माचना नदी के पानी का आज भी खूब उपयोग होता है। कई जगह बंगाल और छत्तीसगढ़ में प्रचलित बाँस या लकड़ी के एक सिरे पर पत्थर और दूसरे पर बाल्टी या पीपा बाँधकर पानी निकालने का ‘टेढ़ा” यहाँ भी कई गाँवों में देखा जा सकता है। असल में पास के रामपुर-भतौड़ी के जंगलों के चौपन इलाके में लोग सुगंधित बाबर घास काटने की मजूरी के लिए जाते हैं। वहां बसे बंगाली शरणार्थियों से ‘टेढ़ा’ बनाने की पद्धति सीखकर यहाँ घोरीडाबर सरीखी छोटी-मोटी नदियों से आसपास के खेतों में पानी देने के लिए इसे उपयोग किया जा रहा है। दो-चार साल पहले आया ‘टेढ़ा’ निरक्षर कहे जाने वाले आदिवासियों की सीखने और उसे अपना लेने की क्षमता का एक उदाहरण है।
ग्रामीण आदिवासियों की पहल का एक और उदाहरण कोचामहू गाँव के पास पहाड़ी नाले जामुनलोड पर पंद्रह-बीस साल पहले बनाया गया बाँध भी है। सिंचाई और निस्तार के लिए पानी रोकने की बात गाँव के युवकों ने सोची थी लेकिन फिर तीस घरों की लगभग 160 आबादी वाली बस्ती कोचामहू के सभी लोगों ने मिलकर दो महीने में यह छोटा बाँध खड़ा कर दिया। बाद में पंचायत ने श्रमदान के बदले लोगों को 8 क्विंटल 81 किलो अनाज दिया था। इस बाँध में पम्प और पाइप आदि का जुगाड़ न हो पाने से सिर्फ दो-तीन एकड़ में ही सिंचाई की जा रही है। गाँव में ‘जलग्रहण क्षेत्र मिशन’ का काम शुरू होने के बावजूद इस छोटे बाँध का मुँह तक बंद नहीं किया गया है और इसलिए बरसात का समूचा पानी बह जाता है।
60 के दशक में खुदे हैंडपम्पों, कुओं और घटती बरसात के चलते भू-गर्भीय पानी भी कम होता गया और झिरियाँ पुरती गईं। कहते हैं कि हैण्डपम्प के कारण कुओं का कबाड़ा हुआ है, वे पुर गए हैं या फिर उनके पानी से नहाया तक नहीं जा सकता। पानी की इस कमी से निपटने के लिए 1973-77 के बीच 9 नलकूप खोदे थे लेकिन चट्टानों पर खोदे जाने के कारण ये सभी असफल हो गए। 1975 में पाढर की स्वयंसेवी संस्था ईएलसी के ‘जल विकास कार्यक्रम’ के अंतर्गत माचना नदी के तल में नलकूप खोदने की कोशिश की गई लेकिन भौगोलिक बनावट के कारण यह कोशिश भी सफल नहीं हो पायी। इसी बीच लोक स्वास्थ यांत्रिकी विभाग ने नलकूपों के विकल्प की तरह सतही जल के लिए सर्वेक्षण करवाया लेकिन इसमें पता चला कि ऐसी योजना बेहद महँगी और पंचायतों के बस की नहीं होगी। तब ‘जल विकास कार्यक्रम’ की ओर से अप्रैल 1974 में इलाके का एक विस्तृत भू-गर्भीय अध्ययन किया गया। इससे पता चला कि माचना नदी के उत्तर की तरफ एक विशाल फॉल्ट यानि दरार है जहाँ कुएँ खोदे जाने की संभावनाएँ हैं। इसी अध्ययन के परिणामस्वरूप पतौआपुरा में मई 1978 में 73 मीटर गहरा एक नलकूप खोदा गया। इस नलकूप से न सिर्फ माचना के दक्षिण का शाहपुर, उत्तर का पतौआपुरा और बरबटपुर के लिए दो टंकियाँ बनाकर जल प्रदाय योजना शुरू की गयी। पतौआपुरा के बाजार में एक और नलकूप खोदा गया लेकिन इसका पानी खारा निकला। इस पहल से उत्साहित होकर बस्ती में और भी लोंगों ने 4-5 निजी नलकूप खुदवाए।
इस सारे तामझाम के बावजूद 1998 में सुबह एक घण्टे के लिए दिनभर का पानी दिया जाने लगा और कस्बे में जलसंकट के दृश्य हर कहीं दिखने लगे। भू-गर्भीय जल को मशीनों से लगातार खींचना और 30 से 40 प्रतिशत को बर्बाद करना इसका मुख्य कारण है। गाँव के वरिष्ठ लोग बताते हैं कि नलों से सीधे टुल्लू पम्प लगाकर पानी खींचकर निरर्थक बगराया जाता है। हालाँकि इसके भी कई लोग अपवाद हैं जो किसी तरह की मोटर का उपयोग ही नहीं करते। पानी के प्रति ऐसी लापरवाही से चिंतित कुछ बुजुर्गों का कहना है कि एक तो हैण्डपंप के आसपास का गंदा पानी जहरीला होता है। और हैण्डपम्पों के छोटे पाइपों से वापस नलकूप में चला जाता है। दूसरे नलकूपों के कारण पुराने कुएँ, झीरा या झिरियाँ सूख गए हैं। नलकूप के गहरे और हैंडपम्प के गंदे पानी के कारण सिरदर्द, अपच, पेटदर्द, दस्त, बुखार आदि बीमारियाँ होने लगी हैं।
कभी-कभार की अल्प-वर्षा और आबादी के बढ़ते जाने से कुओं की पुख्ता व्यवस्था बननी शुरू हुई। लगभग हर दो-चार गाँवों और कभी-कभी इनसे भी अधिक के बीच एकाध कुआँ या झिरियां हुआ करते थे जो कठिन समय में सबका काम चलाते थे। शाहपुर में 100-150 साल पहले आमवाले कुएँ खोदे गए जिनसे आज भी शुद्ध और मीठा पानी मिलता है। कहते हैं कि इनके पानी से नहाने पर चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। 1978 में पहले तक शाहपुर कस्बे में 30-35 कुएँ थे जिनमें से तीन-चार का पानी मीठा था। पास के रायपुर गाँव में सात से पंद्रह हाथ गहरे चार कुएँ थे जिनमें पानी खींचने के लिए ‘गराड़’ या घिर्री लगी थी। बीचढाना या बड़ाढाना की आठ, नौ सौ की आबादी के लिए आठ-दस कुएँ थे।
इसी तरह कछार गाँव के कोलियापुरा ढाने में एक कुआँ है जो आसपास के कोयलाबुडड्डी, जोड़ियामहू, कछार, चिखल्दा, कोचामहू, झिरियाँ डोल आदि सात-आठ गाँवों को पानी पुराता था। सन् 1928-30 के बीच एक बार पानी की कमी हुई थी और तब एक गड्ढे को खोदकर झिरियाँ या झिर में बदल दिया गया। ‘बड़ा कुआँ’ कहलाने वाले इस पुरुष-भर (पांच-छह फुट) से कुँए को पाट कर उसमें उम्दा चांदा या जगत भी बनाया गया था। इसके पानी को ‘गंगा की धारा’ कहने-मानने वाले बुजुर्ग बताते हैं कैसे कोयलाबुद गाँव के रहने वाले कछार पंचायत के सरपंच ने सुधरवाने के नाम पर एक बड़ी आबादी को पानी पिलाने वाले इस कुएँ को तुड़वा दिया। इसी बीच गाँव में सरकारी अनुदान से हैंडपंप खुदे और नतीजे में यह पुराना जलस्रोत बेसरम की झाड़ियों, कचरे और मिट्टी से पुरकर अनुपयोगी हो गया। लेकिन गाँव के लोग बताते हैं कि अब भी कभी पानी की कमी होने पर इसकी झिर खोदकर ही काम चलाया जाता है।
शाहपुर इलाके में कुछ साल पहले तक काफी जंगल थे और बरसात भी ठीक-ठाक होती थी। 1997-98 में कई साल बाद 70-72 इंच की असामान्य बरसात हुई थी लेकिन आमतौर पर यहाँ की औसत वर्षा 30-40 इंच ही रहती है। आसपास कई छोटे-मोटे बारामासी नदी-नाले रहे हैं जिनके किनारे झिरियाँ खोदकर लोगों की पेयजल आपूर्ति होती थी। कस्बे के बीच से गुजरने वाली माचना नदी के पानी का आज भी खूब उपयोग होता है। कई जगह बंगाल और छत्तीसगढ़ में प्रचलित बाँस या लकड़ी के एक सिरे पर पत्थर और दूसरे पर बाल्टी या पीपा बाँधकर पानी निकालने का ‘टेढ़ा” यहाँ भी कई गाँवों में देखा जा सकता है। असल में पास के रामपुर-भतौड़ी के जंगलों के चौपन इलाके में लोग सुगंधित बाबर घास काटने की मजूरी के लिए जाते हैं। वहां बसे बंगाली शरणार्थियों से ‘टेढ़ा’ बनाने की पद्धति सीखकर यहाँ घोरीडाबर सरीखी छोटी-मोटी नदियों से आसपास के खेतों में पानी देने के लिए इसे उपयोग किया जा रहा है। दो-चार साल पहले आया ‘टेढ़ा’ निरक्षर कहे जाने वाले आदिवासियों की सीखने और उसे अपना लेने की क्षमता का एक उदाहरण है।
ग्रामीण आदिवासियों की पहल का एक और उदाहरण कोचामहू गाँव के पास पहाड़ी नाले जामुनलोड पर पंद्रह-बीस साल पहले बनाया गया बाँध भी है। सिंचाई और निस्तार के लिए पानी रोकने की बात गाँव के युवकों ने सोची थी लेकिन फिर तीस घरों की लगभग 160 आबादी वाली बस्ती कोचामहू के सभी लोगों ने मिलकर दो महीने में यह छोटा बाँध खड़ा कर दिया। बाद में पंचायत ने श्रमदान के बदले लोगों को 8 क्विंटल 81 किलो अनाज दिया था। इस बाँध में पम्प और पाइप आदि का जुगाड़ न हो पाने से सिर्फ दो-तीन एकड़ में ही सिंचाई की जा रही है। गाँव में ‘जलग्रहण क्षेत्र मिशन’ का काम शुरू होने के बावजूद इस छोटे बाँध का मुँह तक बंद नहीं किया गया है और इसलिए बरसात का समूचा पानी बह जाता है।
60 के दशक में खुदे हैंडपम्पों, कुओं और घटती बरसात के चलते भू-गर्भीय पानी भी कम होता गया और झिरियाँ पुरती गईं। कहते हैं कि हैण्डपम्प के कारण कुओं का कबाड़ा हुआ है, वे पुर गए हैं या फिर उनके पानी से नहाया तक नहीं जा सकता। पानी की इस कमी से निपटने के लिए 1973-77 के बीच 9 नलकूप खोदे थे लेकिन चट्टानों पर खोदे जाने के कारण ये सभी असफल हो गए। 1975 में पाढर की स्वयंसेवी संस्था ईएलसी के ‘जल विकास कार्यक्रम’ के अंतर्गत माचना नदी के तल में नलकूप खोदने की कोशिश की गई लेकिन भौगोलिक बनावट के कारण यह कोशिश भी सफल नहीं हो पायी। इसी बीच लोक स्वास्थ यांत्रिकी विभाग ने नलकूपों के विकल्प की तरह सतही जल के लिए सर्वेक्षण करवाया लेकिन इसमें पता चला कि ऐसी योजना बेहद महँगी और पंचायतों के बस की नहीं होगी। तब ‘जल विकास कार्यक्रम’ की ओर से अप्रैल 1974 में इलाके का एक विस्तृत भू-गर्भीय अध्ययन किया गया। इससे पता चला कि माचना नदी के उत्तर की तरफ एक विशाल फॉल्ट यानि दरार है जहाँ कुएँ खोदे जाने की संभावनाएँ हैं। इसी अध्ययन के परिणामस्वरूप पतौआपुरा में मई 1978 में 73 मीटर गहरा एक नलकूप खोदा गया। इस नलकूप से न सिर्फ माचना के दक्षिण का शाहपुर, उत्तर का पतौआपुरा और बरबटपुर के लिए दो टंकियाँ बनाकर जल प्रदाय योजना शुरू की गयी। पतौआपुरा के बाजार में एक और नलकूप खोदा गया लेकिन इसका पानी खारा निकला। इस पहल से उत्साहित होकर बस्ती में और भी लोंगों ने 4-5 निजी नलकूप खुदवाए।
इस सारे तामझाम के बावजूद 1998 में सुबह एक घण्टे के लिए दिनभर का पानी दिया जाने लगा और कस्बे में जलसंकट के दृश्य हर कहीं दिखने लगे। भू-गर्भीय जल को मशीनों से लगातार खींचना और 30 से 40 प्रतिशत को बर्बाद करना इसका मुख्य कारण है। गाँव के वरिष्ठ लोग बताते हैं कि नलों से सीधे टुल्लू पम्प लगाकर पानी खींचकर निरर्थक बगराया जाता है। हालाँकि इसके भी कई लोग अपवाद हैं जो किसी तरह की मोटर का उपयोग ही नहीं करते। पानी के प्रति ऐसी लापरवाही से चिंतित कुछ बुजुर्गों का कहना है कि एक तो हैण्डपंप के आसपास का गंदा पानी जहरीला होता है। और हैण्डपम्पों के छोटे पाइपों से वापस नलकूप में चला जाता है। दूसरे नलकूपों के कारण पुराने कुएँ, झीरा या झिरियाँ सूख गए हैं। नलकूप के गहरे और हैंडपम्प के गंदे पानी के कारण सिरदर्द, अपच, पेटदर्द, दस्त, बुखार आदि बीमारियाँ होने लगी हैं।
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