प्रेमशंकर शुक्ला

प्रेमशंकर शुक्ला
नदी एक गीत है
Posted on 23 Apr, 2011 12:16 PM
नदी एक गीत हैः
जो पहाड़ के कण्ठ से निकल
समुद्र की जलपोथी में छप जाती है
जिस के मोहक अनुरणन से हरा-भरा रहता है
घाटी-मैदान

अपने घुटने मोड़ जिसे पीती है बकरी
हबो-हबो कहने पर पी लेते हैं जिसे गाय-गोरू
खेत-खलिहान की मेहनत की प्यास में
पीते हैं जिसे मजूर-किसान
नदियों में पानी है तो सदानीरा है जुबान

रेत में हाँफती नदियाँ
पानी बहता है
Posted on 22 Apr, 2011 12:19 PM
पानी बहता है
चाहे कहीं भी हो पानी
वह बह रहा है

पत्ते पर रखा बूँद बह रहा है
बादल में भी पानी बह रहा है

झील-कुआँ का पानी
बहने के सिवा और वहाँ
कर क्या रहा होता है!

गिलास में रखा पानी भी
दरअसल बह रहा है

घूँट में भी पानी
बह कर ही तो पहुँचता है प्यास तक

सूख रहा पानी भी बह रहा है
अपने पानीपन के लिए
एक गिलास पानी
Posted on 21 Apr, 2011 11:08 AM
एक गिलास पानी
घूँट-घूँट भर जाता है जिस से
प्यास का दरिया
और फैल जाती है तृप्ति की लहर

एक गिलास पानी न होता
तो कितना गूँगा होता हमारा प्यार
और रात पार करा देने वाले लम्बे किस्सों का
सूखने से कैसे बचता कण्ठ

एक गिलास पानी कभी-कभी
लेकर आता है यादों का समंदर
जिसमें गिलास को थामे हथेली पर
मुस्कुराहट की धूप पड़ रही है
पानी
Posted on 20 Apr, 2011 02:27 PM
पानी है तो धरती पर संगीत हैः
झील-झरनों-नदियों-समुद्र का,
बूँद का-घूँट का!

पानी है तो बानी है
पदार्थ हैं इसलिए कि पानी है
और गूँगे नहीं हैं रंग पानी है
इसीलिए पृथ्वी में घूमने का बल है

पानी भी जब पानी माँग ले
तो समझो कीच-कालिख की
गिरफ़्त में है वक़्त

जि़न्दगानी को जो नोच-खाय
तो जानो उसके आँख का पानी मर गया!
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