पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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राजस्थान – एक परिचय
Posted on 02 Feb, 2014 02:17 PM राजस्थान एक कृषि प्रधान राज्य है। सन् 1991 की जनगणना में लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने कृषि को अपना मुख्य व्यवसाय बताया। ग्रामीण क्षेत्
ये नदियां
Posted on 03 Jan, 2014 03:12 PM ये नदियां
बहती जाती हैं
दिन रात अनवरत
अनहद राग गूंजता
रहता है फिर भी
दिखती हैं शांत ...
चलती रहती हैं
अबला नारी सी
लाज समेटे
अपने ही में मग्न
निर्द्वन्द्व निर्विकार
कोई रोके तो
लजाती सी
चुपचाप मार्ग बदल
निकल जाती हैं
या फिर शांत हो
रुक जाती हैं
प्रतीक्षा करती हैं
और गहन हो
अबला से सबला
मेरे शहर की नदी
Posted on 09 Dec, 2013 03:20 PM मेरे शहर से होकर
जाती है एक नदी
कभी बहती है
कभी रूकती है
रोती ही रहती है
अपनी दुर्दशा पर
गंदे नाले जो गिरते हैं
इस नदी में उन्होंने
नदी को ही अपने जैसा
बना लिया है
मेरा शहर जो कि
दिल है मेरे देश का
देश को जीवंत करता है
उसकी नदी का
जीवन कहीं खो गया है
जिस सूर्य सुता का जल
सत्ता के अभिनव दुर्ग के
जीवन की जीत
Posted on 08 Dec, 2013 10:51 AM राजाराम रावत ‘पीड़ित’ पहाड़ी (चिरगांव)बहती जाती थी वेत्रवती, उर विकल किंतु करती कल-कल।
कहती जाती थी वेत्रवती, जागृत जन से चल-चल, चल-चल।।
गति रोक न पल-भर को अपनी, मत कर विराम की तनिक चाह।
जीवन बस तब तक जीवन है, जब तक है उसमें कुछ प्रवाह।।
बनती-मिटती लहरें मानों, बोधित करती है बार-बार।
बनने-मिटने को मत समझो, जीवन की अपनी जीत-हार।।
अपूर्व छटा छिटकाती हुई
Posted on 08 Dec, 2013 10:31 AM अचला वृत्त है अचला जिसपै बनराजि छटा दिखला रही है।
विटपावलि पुष्पित हो करके निज सौरभ पुंज लुटा रही है।।
द्रुम पल्लवों में छिपी श्यामा जहां मन-मोहन गान-सुना रही है।
सिखला रही राग-विहाग भरा अनुराग का पाठ पढ़ा रही है।।
गिरि बिन्ध्य की गोद सजाती हुई सुख प्राणियों में सरसाती हुई।
गुण गाती हुई मनभावन के इठलाती हुई बलखाती हुई।।
मेरे वतन पै, बेतवा
Posted on 08 Dec, 2013 10:26 AM सीने में दिल है एक तो, “मायूसियां” हजार।
मेरे वतन पै, बेतवा हंसती है बार-बार।।
आबादियों से दूर चट्टानों के सिलसिले-
राहों में कच्चे-पक्के मकानों के काफिले।
ढोरों के गोल लौटते जंगल से दिन ढले,
जंगल के और बस्ती के ’महदूद’ फासले।।
पेड़ों की छांव में टूटे हुए मजार।
आता है याद मुझको उजड़ा हुआ ‘दयार’।।
यह ‘ईसुरी’ का देश है, केशव की ‘वादियां’,
‘सर्वोच्च देवि, ओ वेत्रवती’
Posted on 08 Dec, 2013 10:22 AM तेरा अक्षय सौभाग्य सिंधु, प्रतिबिंबित जिसमें भानु-इंदु,
मणि है तारों के बिंब, अंब, नीले-पीले-पट पर आनंद-कंद।

श्रृंगार संजोए प्रकृति नटी, तुंग-तरंगिनि, मानवती।
ऊषा का शुभ सिंदूर दिए, कंघा, समीर का ललित लिए,
तट-विटप-केश को लहराकर, लख रही मांग, नभ-मुकुर किए।

ओ बन-वासिनि! ओ पुण्यवृती, पग-पग पर बढ़ हुई क्रांतिवती।।
धन्न, बेतवा-माई
Posted on 06 Dec, 2013 10:38 AM टोरन टोर, दौर के आई, धन्न, बेतवा माई।
पार-पारियां, कूंदत-फांदत, अपनी गैल बनाई,
भरत-चौकरीं, हिन्नन जैसी, जन-गन मन पै छाई।
ऐसी छनक-बनक ना देखी, लख नागिन सकुचाई,
चकाचौंध हो गए ‘गुन-सागर’, कवि-मन मो लए माई।।
गंगा-माता कल-जुग बारी, जीवन-प्रान हमारी।
धरम-पंथ-मत एक करत तुम, सांची गैल तुमारी,
आन ओंड़छे में कासी सौ, सुख सरसावे वारी।
जब चली बेतवा घर से
Posted on 06 Dec, 2013 10:34 AM जननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी।
कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।।
कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर।
करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।।
व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते।
सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।।
जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।
तरंग
Posted on 06 Dec, 2013 10:33 AM सजनि ! मत्त ग्रीवालिंगन में कर शत-शत श्रृंगार,
मिलने आकर खिंच जाती फिर किस ब्रीडा के भार?
अगणित कंठों से गा-गाकर अस्फुट मौलिक गान,
प्रात पहनकर तरणि-किरण का तितली-सा परिधान,
बुदबुद-दल की दीपावली में भर-भर स्नेह अपार,
तिमिर-नील शैवाल-विपिन में करती नित अभिसार।
बरवै छंदों-सी ऋतु, कोमल, तू लघु सानुप्रास,
सहृदय कवि से सलिल हृदय में उमड़ रही सविलास।
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