जब चली बेतवा घर से

जननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी।
कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।।
कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर।
करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।।
व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते।
सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।।
जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।
जन्मभूमि के गिरि-सर-निर्झर किसे न सपनों में सपनाते।।
देव-दनुज, नर-किन्नर क्यों फिर उसका पावन-प्रेम बिसारें।
जन्म-जन्म में जन्मभूमि पर क्यों न जन्म अपने न्योछारें।।
करे न वह भी निज संतति को कभी अनादृत या कि उपेक्षित।
खोटे-खरे भाव बिसराकर सबके हित-चित करे व्यवस्थित।।
दुतकारे भी कहीं कोई तो बच्चे मां तज किसे पुकारें।।
कौन विपत्ति निवारे उनकी आशान्वित हो जिसे निहारें।।
किंतु भाग्य-लिपि में बिटिया के जाने क्या लिखती वैमाता।
जो कि जोड़ना होता उसको परवश हो पर घर से नाता।।
कैसा भी हो बिटिया के हित नहीं बाप का घर है अपना।
सपना ही होता है उसका उसके लिए संजोया सपना।।
नहीं सृष्टि में कोई बिटिया सदा बाप के पेट समाई।
गेही और अगेही सबने थाती उसको कहा पराई।।
मैं ही फिर अपवाद बनूं क्यों अपने पावन-संस्कारों का।
श्रेयस्कर होता है सबको पालन अपने आचारों का।।
तब फिर भाग्य-विधाता मेरे ले चल हमें जहां मन भावे।
प्रस्तुत हम बहनें बहने को जैसा भी तू हमें बहावे।।
पूज्य पिताश्री पारियात्र को श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर।
आशुतोष शिव क्षेत्रपाल का पावन चरणामृत सिर पर धर।।
लह-लही वनस्पति की लहरों से उत्प्राणित हर लहर-लहर कर।
पथ-विघ्नों से जूझ जीतने का दृढ़-पाषाणी संबल धर।।
रुद्धकंठ प्रस्तुत हूं लो मैं रहे भले, कल-कल स्वर विह्वल।
प्रस्थित होती भीगी पलकों के अनजाने पथ की चल-चल।।
पर यह क्या? नियराती ज्यों-ज्यों मेरी विषम विदा की वेला।
त्यों-त्यों जुड़ता जाता विस्मृत-स्मृति का मेला।।
कभी भुलाए, भूलेंगे क्या शैशव के वे साथी-संगी।
जिनकी जीवन-गति जीवन में रमी बनी जीवन रस-रंगी।।
जिनकी पुलक-प्रेरणाओं से उत्प्राणित-उल्लसित रही हूं।
ओ मेरे दुर्दैव बता क्यों? रह न सकी मैं उन्हें वहीं हूं।।
प्यार-दुलार किया जो अब तक सिर का भार बना क्यों अब है।
चिंतित-कंपित होता है जो, घर, पुर-परिजन सबका मन है।।
अर्जुन, अशोक, अश्वस्थ, खैर-बेरी, बरगद, ऊमर विशाल।
तेदूं, अचार, कीकर, पाकर-महुआ दीनों के कुटुम-पाल।।
करधई, करौंदी, कांकारो, कचनार, कदंबो कंठ मिलो।
सेमर, सहिजन, सागौन, सिरिस, जामुन, रसाल, आमलो-फलो।।
ओ हरसिंगार! शीशम, बबूल, दुर्गा के पावन-धाम नीम।
कांटे कडुआहट जगती के जो सब अपने में करें लीन।।
लज्जावंती, शंखाहूली, ऊंदफलू, गोखुरू फैल चलो।
अलसित मन को उल्लास मिले, यह भव्य-भाव भर हिलो-मिलो।।
अन-गिनते वृक्ष-वनस्पति से जो हरी-भरी शोभायमान।
उस धर्म-धारिणी धरती को शत-शत बंदन, शत-शत प्रणाम।।
दे अपने मूल-फूल फल-दल रखना भू-अंचल हरा-भरा।
घन जिसे देखकर घिरें-झिरें, हो नहीं निरस यह सरस धरा।।
मैं कैसी भी रह रहूं कहीं, पर तुम सबकी निश्च्छल छाया।
तट-तरु बन जीवन का संबल सरसाए निज ममता-माया।।
बस एक इसी आशा बल पर विश्वास तुम्हें देती अपना।
तुम सबकी लोल-लहरियां ही होंगी इन लहरों की ललना।।
गिरि-निर्झर वृक्ष-वनस्पतियों को करके फिर-फिर सादर प्रणाम।
चलती कल-कल, चल-चल अविरल, ले निर्बल का बल राम-नाम।।
पर यह क्या? दो डग धरूं कि उठने लगी हृदय में नई हूक।
यह सारस-मोर-कपोत-कोक कोकिलें, काक क्यों रहे कूक।।
ओ खंजन, मन-रंजन मेरे तुमसे कैसे क्या कहूं कहो।
उल्लास बना मेरा अपना मेरी लहरों में रमे रहो।।
तुम रहे न मेरे संग कहीं तो जीवन में क्या शेष रहा।
यह ‘पारियात्र’ का ‘क्षेत्र पाल‘ का पावन परिमल-व्यर्थ बहा।।
ओ रीछ, तेंदुओ, मृग, सिहो, ओ शशक सियारों शांत रहो।
दो निज गर्जन दो निज उड़ान जो मेरा हृदय अशांत न हो।।
क्या तुम-सब विदा यहीं दोगे या होगे संग उमंग भरे।
तुम सबका कलोल-बल ही यह मेरी तरल-तरंग धरे।।
ओ दादुर कच्छप, मकर, उरग, कर्कट मेरे जीवन-सिंगार।
तुम सबके बल-बूते ही तो, हो रही मीन पर मैं सवार।।
तुम सब ही तो मुझ में आया जहां-तहां का दूषण पी।
लाज बचाए रक्खोगे मेरी वा ‘गंगा-जीजी’ की।।
ओ बूढ़े-बड़े शुभैषिजनो! ओ सम-वयस्क भाई मेरे।
आयुस आशीष भरे भेंटों, डगमगा न जाएं डग मेरे।।
जननि जन्म-भूमि सिख दो जो शीत-भीत, आतप में तप।
रख सकूं उभय कुल का गौरव, कल-कल चल-चल में जप-सा जप।।
हां, समझ रही किस हेतु हो रही है यह प्रस्थिति मेरी।
आज परों से भी निजस्व की गांठ जुड़ रही है क्यों मेरी।।
मेरे प्रवाह मिस खूंट-खूंट को एक बनाने का यह उपक्रम।
अपने और पराएपन का भेद-भाव धोने बढ़ते हम।।
भय-विघ्नों के गिरि-गह्वर सब उलझ उछलकर काट-पाट कर।
अविश्रांत गति बढ़ी चलूं जगती का जीवन-पथ प्रसस्त कर।।
अहो भाग्य जो यह गति-गति ले जगती बढ़ती चली चले।
मेरे पाषाणी में घुल सबके मन का मैल धुले।।
मेरे कूल-कंदराओं में फले साधना तपोधनों की।
दूर-दूर तक युगों-युगों तक बहे सुवास सुकूत सुमनों की।।
तीर-तीर पर मेरे अपने पावन श्रद्धा-धाम बने हों।
शुभ्र-सनेह सलिल में सबके अपने-अपने राम रमें हो।।
विजयी भी मेरे अंचल में बन विरक्त निज बोध प्रचारें।
बनें अशोक, शोकसंहारक मंगल-मूलक मंत्र प्रसारें।।
काया कल्प करे प्राणी का, योग वनस्पतियों का मेरा।
किंकर्तव्यविमूढ़ बना दे आततायियों को तट मेरा।।
धनी, धर्म-धन के धोरी हर घाट-बाट में जाएं निहारे।
राग-रंग में, गान-तान में, मान-पान में हों अनयारे।।
मैं व्यस्त, किंतु आश्वस्त हुई तुम सबके सुखद सिखापन से।
धूमिल-धरती, धानी करना अपने सनेह-श्रम सिंचन से।।
सबके रीते कोठार भरे कृषकों के बल मेरे कछार।
वन-उपवन सब लह-लहे, करे यह पारियात्र की धवल-धार।।
अंतस में जले भले ज्वाला पर ऊपर वह रस-धार बहे।
जिससे अलसे उन्मन मन में नव-स्फूर्ति, नव प्यार रहे।।
कर सकी अगर यह इतना मैं तो समझूंगी जीवन कृतार्थ।
कल-कल में मेरे ध्वनित रहे अपना सब कुछ सबके हितार्थ।
ओ बहन, भाइयो! आ भेंटो फिर मेरे कूल-दुकूलों से।
उन्मुक्त न हूं, उन्मन न बनूं मैं वर्ष-शोक में भूलों से।।
फिर कहती हूं सबसे बिसूर सुधि मेरी बिसरे तुम्हें नहीं।
मैं बनूं और कुछ कहीं किंतु यह मेरा शैशव रहे यहीं।।
नर ही नारायण हो मेरे मानवीय आदर्श ग्रहण कर।
जीव-मात्र की सिद्धि-वृद्धि का बल दें मुझे प्रकृति-परमेश्वर।।
बस इन्हीं भव्य-भावों से भर लो चलती हूं अपने पथ पर।
दे सत्य साथ तो इति में भी होऊं अथ-सी ही शिव-सुंदर।।
“हो प्रस्थिति मंगल-मयी तेरी गुंजरित हो उठी वन-स्थली।
गिरि, निर्झर से तृण-तरुवर से, बेतवा-चली बेतवा-चली।।”
‘बेतवा की निजवाती’ पुस्तक से एक अंश

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