तरंग

सजनि ! मत्त ग्रीवालिंगन में कर शत-शत श्रृंगार,
मिलने आकर खिंच जाती फिर किस ब्रीडा के भार?
अगणित कंठों से गा-गाकर अस्फुट मौलिक गान,
प्रात पहनकर तरणि-किरण का तितली-सा परिधान,
बुदबुद-दल की दीपावली में भर-भर स्नेह अपार,
तिमिर-नील शैवाल-विपिन में करती नित अभिसार।
बरवै छंदों-सी ऋतु, कोमल, तू लघु सानुप्रास,
सहृदय कवि से सलिल हृदय में उमड़ रही सविलास।
नर्त्तकि! अपने मृदुल अधर पर रख अंगुली सुकुमार
किस विश्रब्ध नवोढ़ा-सी तू करती मृदु संचार?
पहन भंगिमय कंबु-कंठ में ताराओं के हार,
करने आती अपर पुलिन से खद्योतों को प्यार।
अपने कर में लेकर उसका पुलकित बाहु-मृणाल
सुप्त सरसिजों से इंगित में कहती कुछ तत्काल।
तरल नृत्य ज्योत्स्ना-छाया में, आतप में मुस्कान,
रच शैवाल-तिरस्करणी में अभिनय-पट अम्लान।
प्रात पुलिन के रंगमंच पर इच्छाओं-सी मौन
अहमहमिकया, चिर-यौवनामयी आती है तू कौन?
पुलिन-पतित निर्मुक्त शुक्ति से कर कुछ मौनालाप,
निठुर नियति पर, तन्वि! तानती निज आयत भ्रू-चाप
मलय-समीरण की थपकी का पाकर सुरभित प्यार
वन्य बालिके! सोते-सोते जग जाती उस पार।
हृदय दोल पर कभी झुलाकर शत जाग्रह उडु-वाल,
सुला रही गा मृदुल लोरियां अपलक, देती ताल।
सरिता को अविरल पुलकावलि, मीनो की मुसकान
शत कटाक्ष चिर-शून्य प्रकृति की तू, आदान-प्रदान।
तरुणि ! नित्य तेरे अंचल में भर निज स्वर्ण महान्
विरल नखत चिर-शून्य मार्ग में छिप जाता दिनमान,
श्याम गगन की पंचवटी में जब संध्या-साकार,
आती है तब तू नूपुर-सी मुखरित बारंबार।
नृत्य, गान, उत्थान-पतन, गति-लय आदान-प्रदान,
शैशव-यौवन, तम-प्रकाश की तू साकृति अनुमान।

“द्वेदी अभिनंदन ग्रंथ” से

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