‘सर्वोच्च देवि, ओ वेत्रवती’

तेरा अक्षय सौभाग्य सिंधु, प्रतिबिंबित जिसमें भानु-इंदु,
मणि है तारों के बिंब, अंब, नीले-पीले-पट पर आनंद-कंद।

श्रृंगार संजोए प्रकृति नटी, तुंग-तरंगिनि, मानवती।
ऊषा का शुभ सिंदूर दिए, कंघा, समीर का ललित लिए,
तट-विटप-केश को लहराकर, लख रही मांग, नभ-मुकुर किए।

ओ बन-वासिनि! ओ पुण्यवृती, पग-पग पर बढ़ हुई क्रांतिवती।।
हो परिवर्तन बेला में अधीर, बहु-सुत उपजाए बांध नीर,
है कृत्रिम कहाता नदी-नीर, बहता यद्यपि तब हृदय-चीर।

‘रहबहे’ बहा बहु स्वस्तिमती, की सुजला-सुफला, नीरस, धरती
सर्वोच्च देवि ओ वेत्रवती।।

- कवि श्री राममूर्ति बबेले, सैदनगर-कोटरा (जालौन)

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