हरगोविंद गुप्त

हरगोविंद गुप्त
धन्न, बेतवा-माई
Posted on 06 Dec, 2013 10:38 AM
टोरन टोर, दौर के आई, धन्न, बेतवा माई।
पार-पारियां, कूंदत-फांदत, अपनी गैल बनाई,
भरत-चौकरीं, हिन्नन जैसी, जन-गन मन पै छाई।
ऐसी छनक-बनक ना देखी, लख नागिन सकुचाई,
चकाचौंध हो गए ‘गुन-सागर’, कवि-मन मो लए माई।।
गंगा-माता कल-जुग बारी, जीवन-प्रान हमारी।
धरम-पंथ-मत एक करत तुम, सांची गैल तुमारी,
आन ओंड़छे में कासी सौ, सुख सरसावे वारी।
जब चली बेतवा घर से
Posted on 06 Dec, 2013 10:34 AM
जननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी।
कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।।
कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर।
करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।।
व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते।
सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।।
जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।
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