जयकिशोर नारायण सिंह

जयकिशोर नारायण सिंह
तरंग
Posted on 06 Dec, 2013 10:33 AM
सजनि ! मत्त ग्रीवालिंगन में कर शत-शत श्रृंगार,
मिलने आकर खिंच जाती फिर किस ब्रीडा के भार?
अगणित कंठों से गा-गाकर अस्फुट मौलिक गान,
प्रात पहनकर तरणि-किरण का तितली-सा परिधान,
बुदबुद-दल की दीपावली में भर-भर स्नेह अपार,
तिमिर-नील शैवाल-विपिन में करती नित अभिसार।
बरवै छंदों-सी ऋतु, कोमल, तू लघु सानुप्रास,
सहृदय कवि से सलिल हृदय में उमड़ रही सविलास।
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