जहाँ उत्तराखंड की सरकार आपदा के बाद पुनःनिर्माण की योजना बना रही है वहीं आपदाग्रस्त क्षेत्रों में इन दिनों पलायन की भी चर्चा जोरों पर है। सरकार को सावधानी से इससे निपटने के सुझाव दे रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश भाई की एक रिपोर्ट-
चर्चा गहरी हो गई है कि यहाँ से कहीं दूसरी जगह ही पलायन हो। इससे सावधान रहने के लिए वर्तमान में राज्य को कठिन प्रतिज्ञा करनी चाहिए। राज्य सरकार ने यह निर्णय लेकर कि नदियों के किनारे कोई निर्माण नहीं होगा, इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सका है। क्या इसका अर्थ इस नाम पर लिया जाय कि नदियों के किनारों की दूर तक की आबादी को खाली करवाना है, या नदियों के किनारों को सुदृढ़ ही नहीं करना है। यदि ऐसा है तो जो नदियों के किनारों की आबादी है वह भविष्य में अधिक खतरे की जद में आने वाली है। ऐसी स्थिति पैदा करने से पलायन बढ़ेगा। गंगा, यमुना, भागीरथी, अलकनंदा जैसी पवित्र नदियों के संगम व इनके तटों पर निवास करने वाले लोग कभी बड़े भाग्यशाली माने जाते थे। इसमें ऐसी भी कहावत है कि इन नदियों के तटों पर जो एक रात्रि भी विश्राम करे, वह पुण्य का भागीदार माना जाता है। लेकिन अब स्थिति भिन्न होती नजर आ रही है। नदियों के पास रहने वाले समाज को अनुभव हो रहा है कि उनके आने वाले दिन संकट में गुजरेंगे। हर बरसात में औसत दो गांव और दो ऐसी आबादी वाले क्षेत्र तबाह होते नजर आ रहे हैं, जहाँ पर लोग तीर्थ स्थलों तक पहुँचने से पहले चाय, पानी पीकर विश्राम लेते थे। बरसात में पहाड़ी राज्यों में खासकर उत्तराखंड़, हिमाचल, जम्मू कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों में भी लोगों को अपने पाँव के नीचे की ज़मीन असुरक्षित नजर आ रही है। आखिर ऐसा पिछले वर्षों में क्या हो गया कि लोग अकस्मात पहाड़ी क्षेत्रों में अब अपने को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
Posted on 01 Aug, 2013 09:11 AM जहां तक जलविद्युत परियोजनाओं से बिजली और रोज़गार के स्थानीय लाभ का सवाल है, तो हकीक़त और भी हास्यास्पद है। बतौर केन्द्रीय मंत्री श्री के एल राव ने खुद माना था कि जलविद्युत परियोजनाओं से स्थानीय लोगों को बिजली नहीं मिलती। टिहरी व भाखड़ा इसके पुख्ता उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण धौली गंगा परियोजना का है। इसकी क्षमता 280 मेगावाट। इसका पहला आपूर्ति सब स्टेशन बरेली है। परियोजना के नज़दीक मुनस्यारी को एक मेगावाट बिजली नहीं दे पा रहे। यह इलाक़ा अक्सर अंधेरे में डूबा रहता है। हम सब जानते हैं कि परियोजना निर्माण में आधुनिक तकनीक व मशीनों का उपयोग होता है। पानी से पैदा बिजली स्वच्छ, स्वस्थ और सबसे सस्ती होती है। जलविद्युत परियोजनाओं में जो ‘पीकिंग पावर’ होती है। ताप विद्युत की तरह धुआं फैलाकर यह वायुमंडल को प्रदूषित नहीं करती। परमाणु विद्युत उत्पादन इकाइयों से विकरण जैसी आशंका से भी जलविद्युत परियोजनाएं मुक्त हैं। ‘रन ऑफ द रिवर’ परियोजनाएं तो पूरी तरह सुरक्षित हैं। आम ही नहीं खास पर्यावरण कार्यकर्ताओं की धारणा है कि इनमें कोई बांध नहीं बनता। नदी को इनसे कोई नुकसान नहीं होता। अतः ‘रन ऑफ द रिवर’ जल विद्युत परियोजनाएं बनाई जानी चाहिए। जलविद्युत के पक्ष में दिए जाने वाले ये दावे महज दावे हैं या हकीक़त ? जलविद्युत परियोजनाओं की जद में आने वाली आबादी के लिए यह जानना आज बेहद जरूरी है; खासकर तब, जब उत्तराखंड पुनर्निर्माण की दिशा तय हो रही हो।
उत्तराखंड में आज 98 जलविद्युत परियोजनाएं कार्यरत हैं और 111 निर्माणरत। वर्तमान कार्यरत परियोजनाओं की कुल स्थापना क्षमता 3600 मेगावाट है। 21,213 मेगावाट की 200 परियोजनाएं योजना में हैं। ये उत्तराखंड जलविद्युत निगम के आंकड़े हैं।
Posted on 28 Jul, 2013 02:48 PMचालीस साल पहले तक उत्तराखंड की राजनीति में लकड़ी और लीसे के ठेकेदार हावी थे। आज यहां शराब और पानी का माफिया राज कर रहा है। पहाड़ों में बन रही जल विद्युत परियोजनाएं इन राजनीतिक दलों के लिए पैसा उगल रही हैं। पूरे उत्तराखंड में 558 जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिनमें अकेले भागीरथी और अलकनंदा में ही 53 परियोजनाएं हैं। अनुमान है कि इन योजनाओं के बनने पर पूरे उत्तराखंड में नदियों को करीब 1500 किलोमीटर सुरंगों के भीतर बहना होगा। मनेरी से उत्तरकाशी तक भागीरथी 10 किलोमीटर सुरंग में कैद हो गई है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालय का निर्माण यूरेशियन और एशियन प्लेट्स की आपसी टक्कर का नतीजा है। अरबों साल पहले गोंडवाना लैंड (वर्तमान अफ्रीका और अंटार्कटिका) से टूटकर आए भारतीय उपमहाद्वीप का ऊपरी हिस्सा ही हिमालय है। हिमालय अब तक मूल स्थान से दो हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुका है और अभी भी दो सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से चीन की तरफ धंस रहा है। इस भूगर्भीय हलचल के कारण हिमालय क्षेत्र में ज़बरदस्त तनाव रहता है। इस तनाव को कम करने का उपाय भी प्रकृति के ही पास है। बार-बार 6 रिक्टर स्केल का भूकंप आता रहे तो यह भूगर्भीय हलचल कम हो जाती है और इससे अधिक तीव्र स्तर का भूकंप आने की आशंका कम हो जाती है। पिछले सौ वर्ष से यहां आठ या उससे अधिक शक्ति का भूकंप नहीं आया है, इसलिए ऐसा भूकंप आने की आशंका बहुत अधिक है। पूरा उत्तराखंड ही भूकंप के मामले में संवेदनशील है। यहां के नौ जिले-पिथौरागढ़ अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी और रुद्रप्रयाग जोन पांच में और शेष चार, देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर और नैनीताल के कुछ हिस्से जोन चार में आते हैं।
Posted on 27 Jul, 2013 12:46 PMउत्तराखंड की तबाही में हुई जान-माल की क्षतिपूर्ति असंभव है। मगर इससे सबक लेकर विचार तो किया ही जाना चाहिए कि ऐसी आपदाओं से बचाव के उपाय क्या हो सकते हैं। नदियों के प्राकृतिक रास्तों में अतार्किक निर्माण की वजह से वहां त्रासदी ने ज्यादा विकराल रूप धारण कर लिया। इसके भौगोलिक और वैज्ञानिक कारणों की पड़ताल कर रहे हैं खड्गसिंह वल्दिया।
दो ढालों के बीच नदी की चौड़ी घाटी उसका स्वाभाविक मार्ग है। उसे ‘फ्लड-वे’ कहते हैं। उस प्राकृतिक चौड़े मार्ग पर कभी भी बाढ़ का पानी बह सकता है। अपने फ्लड-वे यानी प्राकृतिक मार्ग में नदी अपनी धारा बदलती रहती है, पुरानी वाहिकाओं को छोड़कर नई वाहिकाएं बना लेती है। नदी कभी दाएं किनारे बहती है, कभी बाएं और कभी बीच में। बाढ़ की स्थिति में तो अपनी धारा बदलती ही है। अनेक स्थलों पर नदियां अपना बहाया हुआ मलबा जमा कर देती हैं। कच्चे मलबे के अंबार बढ़ते चले जाते हैं और वेदिकाओं में बदलती जाती है। स्थानीय बोली में ऐसी वेदिकाओं को ‘बगड़’ कहते हैं।उत्तुंग केदारनाथ, चौखंबा (बदरीनाथ), त्रिशूल, नंदादेवी और पंचचूली शिखरों वाले वृहद हिमालय (या हिमाद्रि) की विकट दक्षिणी ढाल सदा से भारी वर्षा की मार झेलती रही है। लेकिन पिछले सात-आठ सालों से अतिवृष्टि और भूस्खलनों की न थमने वाली आपदाओं से पिट रही है और बार-बार क्षत-विक्षत हो रही है। सीमित क्षेत्रों में अल्प अवधि में होने वाली अतिवृष्टि (बादल फटने) के कारण वृहद हिमालय की तलहटी की पट्टी के हजारों गांव बार-बार प्राकृतिक विपदाओं की त्रासदी भोग रहे हैं। संयोग से यही वह पट्टी है, जो जब-तब भूकंपों से डोलने लगती है और टूटते हैं पहाड़, सरकती हैं ढालें, और धंसती है धरती। 2009 में जिला पिथौरागढ़ के मुनस्यारी-तेजम क्षेत्र में और 2010 और 2012 में गढ़वाल की भागीरथी और अलकनंदा घाटियों में प्रकृति के अकल्पनीय प्रकोप को कभी भुलाया नहीं जा सकता। मौसम विज्ञानी वर्षों से कह रहे हैं कि आबोहवा में बदलाव के कारण अब देश में मानसूनी वर्षा असमान रूप से होगी और अतिवृष्टि और अनावृष्टि का दुश्चक्र चलेगा।
Posted on 27 Jul, 2013 09:25 AM मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें। यहाँ तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है। जिसके कारण नदियों के आर-पार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकंप की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। उत्तराखंड हिमालय से निकलने वाली पवित्र नदियां, भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, पिंडर, रामगंगा आदि के उद्गम से आगे लगभग 150 किमी तक सन् 1978 से लगातार जलप्रलय की घटनाओं की अनदेखी होती रही है। 16-17 जून 2013 को केदारनाथ में हजारों तीर्थ यात्रियों के मरने से पूरा देश उत्तराखंड की ओर नजर रखे हुए है। इस बीच ऐसा लगा कि मानो इससे पहले यहाँ कोई त्रासदी नहीं हुई होगी, जबकि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पिछले 35 वर्षों में बाढ़, भूकंप से लगभग एक हजार से अधिक लोग मारे गए। 1998 में ऊखीमठ और मालपा, 1999 में चमोली आदि कई स्थानों पर नजर डालें तो 600 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मरे हैं। 2010-12 से तो आपदाओं ने उत्तराखंड को अपना घर जैसा बना दिया है। इन सब घटनाओं को यों ही नजरअंदाज करके आपदा के नाम पर प्रभावित समाज की अनदेखी की जा रही है।
Posted on 14 Jul, 2013 10:48 AM पिछले कुछ वर्षों में कावड़ यात्रा, चारधाम यात्रा हेमकुंड सहित की यात्रा में अप्रत्याषित वृद्धि हुई है। जिन धार्मिक संगठनों ने इन्हें बढ़ावा दिया है। उन्होंने भी कभी गंगा जी के स्वास्थ्य को इन यात्राओं से जोड़कर नहीं देखा। आस्था के नाम पर, जिसमें आस्था है उसे ही रौंद दिया। ना यात्रियों की सुरक्षा पर कोई ध्यान दिया गया। सरकार को तो आज हम सब दोष दे ही रहे थे। वैसे सरकार अपने इस गैर जिम्मेदार व्यवहार के लिए, यात्रियों की इतनी परेशिानियों और मौंतों के दोष से सरकार बच नहीं सकती। उत्तराखंड में आई आपदा ने, जिसे मेधापाटकर जी ने ‘काफी हद तक शासन निर्मित’ करार दिया है, उत्तराखंड का नक्शा बदल दिया है। नदियों पर बने पुल टूटे और रास्ते बदले हैं। अब उत्तराखंड के पुननिर्माण में पिछली सब गलतियों को ध्यान में रखना होगा। दिल्ली जैसे तथाकथित विकास को एक तरफ करके ग्राम आधारित विकास की रणनीति बनानी होगी। केदारनाथ मंदिर निर्माण के साथ उत्तराखंड निर्माण पर ध्यान देना होगा। केदारनाथ मंदिर की स्थापत्य कला को देखे तो मालूम पड़ेगा कि पुराने समय में इंजिनीयरिंग हमसे कहीं आगे थी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जी का कहना है कि भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की सलाह मंदिर बनाने के लिए ली जाएगी साथ में केदारनाथ यमुनोत्री के लिए पंजीकरण कराने का प्रस्ताव है। पर गंगोत्री और बद्रीनाथ के लिए हमें किसी आपदा का इंतजार नहीं करना चाहिए वहां भी इस समय काफी बर्बादी हुई है। पंजीकरण चारोधाम के लिए अनिर्वाय करना चाहिए।