विकास बना विनाश

चालीस साल पहले तक उत्तराखंड की राजनीति में लकड़ी और लीसे के ठेकेदार हावी थे। आज यहां शराब और पानी का माफिया राज कर रहा है। पहाड़ों में बन रही जल विद्युत परियोजनाएं इन राजनीतिक दलों के लिए पैसा उगल रही हैं। पूरे उत्तराखंड में 558 जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिनमें अकेले भागीरथी और अलकनंदा में ही 53 परियोजनाएं हैं। अनुमान है कि इन योजनाओं के बनने पर पूरे उत्तराखंड में नदियों को करीब 1500 किलोमीटर सुरंगों के भीतर बहना होगा। मनेरी से उत्तरकाशी तक भागीरथी 10 किलोमीटर सुरंग में कैद हो गई है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालय का निर्माण यूरेशियन और एशियन प्लेट्स की आपसी टक्कर का नतीजा है। अरबों साल पहले गोंडवाना लैंड (वर्तमान अफ्रीका और अंटार्कटिका) से टूटकर आए भारतीय उपमहाद्वीप का ऊपरी हिस्सा ही हिमालय है। हिमालय अब तक मूल स्थान से दो हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुका है और अभी भी दो सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से चीन की तरफ धंस रहा है। इस भूगर्भीय हलचल के कारण हिमालय क्षेत्र में ज़बरदस्त तनाव रहता है। इस तनाव को कम करने का उपाय भी प्रकृति के ही पास है। बार-बार 6 रिक्टर स्केल का भूकंप आता रहे तो यह भूगर्भीय हलचल कम हो जाती है और इससे अधिक तीव्र स्तर का भूकंप आने की आशंका कम हो जाती है। पिछले सौ वर्ष से यहां आठ या उससे अधिक शक्ति का भूकंप नहीं आया है, इसलिए ऐसा भूकंप आने की आशंका बहुत अधिक है। पूरा उत्तराखंड ही भूकंप के मामले में संवेदनशील है। यहां के नौ जिले-पिथौरागढ़ अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी और रुद्रप्रयाग जोन पांच में और शेष चार, देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर और नैनीताल के कुछ हिस्से जोन चार में आते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भू-वैज्ञानिकों ने 2000 से 2009 के बीच पांच हजार से अधिक छोटे और मझोले (1 से 4 तक की तीव्रता के) झटके रिकॉर्ड किए।

याद रहे कि विश्व में जापान भूकंप की नजर से सबसे अधिक संवेदनशील देश है। लेकिन लगातार भूकंप झेलने के बावजूद जापान ने कभी आपदा का रोना नहीं रोया। सुनामी से हुई तबाही के बावजूद वह तत्काल उठ कर खड़ा हो गया। इसका कारण यह है कि उसने प्रकृति से सामंजस्य बिठा कर विपदाओं को कम करने का प्रयास किया है। लेकिन भारत में और उत्तराखंड में इसके विपरीत होता रहा है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के पीछे अपने प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की अवधारणा थी। मगर इस प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में आ गया, जिन्होंने प्रकृति की लूट को विकास का मूल मंत्र मान लिया। यहां तक कि भूमि कानूनों तक में संशोधन नहीं किया गया। इसके उलट ऐसे कानून बना दिए, जिससे जमीनें यहां के स्थानीय निवासियों के हाथ से निकलती रहें।

इस तथाकथित विकास के अहंकार ने ही आज उत्तराखंड में ज़बरदस्त तबाही मचाई है। पूर्वजों का अनुभव था कि अहंकारशून्यता से ही जीवन की मूलभूत समस्याएं हल हो सकती हैं। प्रकृति आत्मीयता की पर्याय है और आत्मीयता सब समस्याओं का हल कर सकती है। उत्तराखंड में प्रकृति से आत्मीयता का प्रतीक ‘चिपको’ आंदोलन था, जिसने पूरे विश्व में जंगलों के प्रति चेतना पैदा की। हालांकि उस वक्त भी अहंकारी वैज्ञानिक, ठेकेदार और राजनेता पेड़ों के अनियंत्रित कटान को विकास का पैमाना मानते थे। उसी तरह आज उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा जैसे लोग यहां की नदियों में बांध बनाने को ही विकास का पैमाना मानते हैं। इस विकास ने न सिर्फ हजारों लोगों की जानें लीं, बल्कि उत्तराखंड की पूरी अर्थव्यस्था ही चौपट हो गई।

कथा है कि पार्वती को केदारनाथ मंदिर का महत्व बताते हुए शिव जी कहते हैं- केदारनाथ मुझे अत्यंत प्रिय हैं। ... केदारनाथ ने मुझे इतना मोहित किया कि मैं इसे न कभी छोड़ूंगा और न कभी भूलूंगा। यह मेरे लिए अत्यंत पवित्र है। यहां जो भी मृत्यु को प्राप्त होता है, वह शिव में विलीन हो जाता है। उसी केदारनाथ में आज मृत्यु का सन्नाटा पसरा है। मानवीय लालच से पैदा हुई तबाही ने लोगों की आस्था पर भी कुठाराघात किया। केदारनाथ का प्राकृतिक सौंदर्य स्थाई रहे, इसके लिए हमारे पूर्वजों ने इसे धार्मिक आस्थाओं के साथ जोड़ा। एक प्रचलित कथा के मुताबिक एक बार एक शिकारी हिमालय में भारी संख्या में हिरणों का शिकार करते हुए केदारनाथ पहुंचा, जहां उसने अनेक लोगों को ध्यान में लिप्त पाया। वह थोड़ी दूर से उन लोगों के क्रियाकलापों को निहार ही रहा था कि एक स्वर्णवर्ण सुंदर हिरण उसके पास से गुजरा। इससे पहले कि शिकारी अपने धनुष की प्रत्यंचा खींच पाता, हिरण ग़ायब हो गया। परेशान शिकारी आगे बढ़ा तो उसे त्रिशूलधारी, जटायुक्त सर्पों की माला धारण किए शिव और उनके अनुचरों के दर्शन हुए। कुछ और आगे जाने पर शिकारी को नारद मुनि मिले, जिन्होंने उसे बताया कि केदार इतना पवित्र स्थल है कि यहां ऐसी विचित्र घटनाएँ होती रहती हैं। अगर किसी को मोक्ष पाना है तो उसे केदारनाथ आना चाहिए, भले ही उसने कितने भी पाप क्यों न किए हों। एटकिंसन ने इस कथा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि हिमालय में लोगों की आस्था इतनी अटूट है कि यहां जल, जंगल, ज़मीन तो छोड़ें, यहां पशु-पक्षियों से भी छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अगर छेड़छाड़ होगी तो उसके नतीजे के लिए भी तैयार रहें।

मान्यता है कि गंगा जब पृथ्वी पर अवतरित हुईं, शिव ने अपनी जटाओं में उन्हें रोक लिया। आज पहाड़ों में शिव की वे जटाएं, पेड़-पौधे नहीं हैं, नदियों में रेत नहीं हैं। पानी के वेग को कौन रोकेगा? इसीलिए केदारनाथ से उतर कर मंदाकिनी ने रौद्र रूप दिखाते हुए अपने रास्ते में आने वाले सारे अवरोधों को तहस-नहस कर दिया। केदार भूमि में कब्ज़ा करने वाले, मंदाकिनी के रास्ते में बड़े-बड़े होटल और रिजॉर्ट बनाने वाले निश्चित रूप से सामान्य लोग तो नहीं ही होंगे। पंडे, नौकरशाह, राजनेता और ठेकेदार ही ऐसा कर सकते हैं। जिस प्रदेश में नेता अपने रिश्तेदारों को अवैध रूप से भूमि उपलब्ध कराने में लगे हों, वहां यह उम्मीद क्यों की जाए कि सरकार की रुचि केदारनाथ को बचाने में होगी।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक खड्गसिंह वल्दिया कहते हैं कि हमारे पुरखे इतने समझदार थे कि उन्होंने केदारनाथ का मंदिर एक कठोर चट्टान के ऊपर बनाया। इसीलिए इस दुर्घटना के बाद भी मंदिर अपने स्थान पर खड़ा है। एटकिंसन ने भी कमिश्नर ट्रेल की प्रशंसा की है कि उन्होंने केदारनाथ जाने के लिए जो मार्ग बनाया, उसके चारों ओर पेड़ लगाए। मगर हमने केदारनाथ को एक पिकनिक स्थल बना कर, उसके रास्ते में अवरोध खड़े कर एक प्राकृतिक घटना को भीषण मानवीय आपदा में बदल दिया।

चालीस साल पहले तक उत्तराखंड की राजनीति में लकड़ी और लीसे के ठेकेदार हावी थे। आज यहां शराब और पानी का माफिया राज कर रहा है। पहाड़ों में बन रही जल विद्युत परियोजनाएं इन राजनीतिक दलों के लिए पैसा उगल रही हैं। पूरे उत्तराखंड में 558 जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिनमें अकेले भागीरथी और अलकनंदा में ही 53 परियोजनाएं हैं। अनुमान है कि इन योजनाओं के बनने पर पूरे उत्तराखंड में नदियों को करीब 1500 किलोमीटर सुरंगों के भीतर बहना होगा। मनेरी से उत्तरकाशी तक भागीरथी 10 किलोमीटर सुरंग में कैद हो गई है। जोशियाड़ा से 15 किलोमीटर तक भागीरथी का किनारा उजाड़ हो गया है, लेकिन यही स्थान बरसात में तबाही का सबब बनता है।

रुद्रप्रयाग जनपद में इस बार की अतिवृष्टि ने जबरदस्त तबाही मचाई। यहां मंदाकिनी पर बन रही जल विद्युत परियोजनाएं न सिर्फ तबाह हो गईं, बल्कि इस क्षेत्र में हुई तबाही का कारण भी बनीं। इन परियोजनाओं के खिलाफ जनता ने लगातार आंदोलन किया था और सुशीला भंडारी और जगमोहन झिंक्वाण ने 65 दिन की जेल भी काटी। ऐसा ही जोशीमठ के पास बन रही 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना और 520 मेगावाट की तपोवन जल विद्युत परियोजनाओं के साथ भी हुआ। दरअसल परियोजनाओं के लिए अनुमति देने वाली सरकारों को कथित रूप से प्रतिमेगावाट एक करोड़ की रिश्वत मिलती है। इस रिश्वत के आधार पर उन्हें पहाड़ों के साथ हर तरह का अत्याचार करने की खुली छूट मिल जाती है। यह छेड़खानी पहाड़ के लिए घातक होती है।

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