मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें। यहाँ तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है। जिसके कारण नदियों के आर-पार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकंप की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। उत्तराखंड हिमालय से निकलने वाली पवित्र नदियां, भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, पिंडर, रामगंगा आदि के उद्गम से आगे लगभग 150 किमी तक सन् 1978 से लगातार जलप्रलय की घटनाओं की अनदेखी होती रही है। 16-17 जून 2013 को केदारनाथ में हजारों तीर्थ यात्रियों के मरने से पूरा देश उत्तराखंड की ओर नजर रखे हुए है। इस बीच ऐसा लगा कि मानो इससे पहले यहाँ कोई त्रासदी नहीं हुई होगी, जबकि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पिछले 35 वर्षों में बाढ़, भूकंप से लगभग एक हजार से अधिक लोग मारे गए। 1998 में ऊखीमठ और मालपा, 1999 में चमोली आदि कई स्थानों पर नजर डालें तो 600 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मरे हैं। 2010-12 से तो आपदाओं ने उत्तराखंड को अपना घर जैसा बना दिया है। इन सब घटनाओं को यों ही नजरअंदाज करके आपदा के नाम पर प्रभावित समाज की अनदेखी की जा रही है।
यहां की नदियों के किनारे बसे हुए लोग कभी बड़े भाग्यशाली माने जाते थे, क्योंकि उन्हें पेयजल, खेतों की सिंचाई और घराटों को चलाने के लिए पानी आसानी से मिल जाता था। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि खेती की जमीन और घराट तेजी से मलबे मे बदल रही हैं। 1991 और 1999 के भूकंप ने उत्तराखंड के लगभग 800 लोगों को मारा है। इसके कारण ढालदार पहाड़ियों पर दरारें आई हैं। इन दरारों के आसपास हजारों गांव बसे हुए हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे एक हजार से अधिक गांव को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की बात भी कही थी। लेकिन इसके बावजूद भी उत्तराखंड में पिछले एक दशक से विकास के नाम पर पहाड़ों की कमर तोड़ने वाली विकास योजनाओं का क्रियान्वयन केवल मुनाफाखोर कंपनियों के हितों में हो रहा है।
मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें। यहाँ तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है। जिसके कारण नदियों के आर-पार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं। सड़क निर्माण का मलबा नदियों, गाड़ गदेरों, जलस्रोतों, ग्रामीण बस्तियों के बीच में उड़ेला जा रहा है। इसी तरह उत्तराखंड में उद्गम से ही बन रहे श्रृंखलाबद्ध सुरंग बांधों के निर्माण से लाखों टन मलबा जिसमें मिट्टी, पत्थर, पेड़ बेहिचक नदियों में फेंके जा रहे है। कोई भी उत्तराखंड में मानवजनित विकास के नाम पर इन त्रासदियों की प्रत्यक्ष तस्वीर देख सकता है, जहां बिना बारिश के भी पहाड़ टूटते नजर आ रहे हैं। उत्तरकाशी में 2003 में वरुणावत त्रासदी की घटना भी सितंबर-अक्टूबर में हुई थी।
सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहुंचाई जा रही बड़ी-बड़ी मशीनों ने भी पहाड़ में कंपन पैदा कर दिया है। यहां वनों में बार-बार आग की घटनाओं ने मिट्टी को नीचे की ओर बहने के लिए मजबूर कर दिया है। नदियों के किनारे बिना रोक टोक बन रहे होटलों, रेंस्तराओं व ढ़ाबों के निर्माण से निकलने वाला मलबा भी नदियों में ही गिरता है। इन सबके चलते न तो तीर्थयात्रियों की सुरक्षा का ध्यान होता है और न ही पहाड़ों के गांवों में हो रहे भू-धंसाव व बाढ़ के दुस्प्रभाव पर कोई बात हो पाती है।
इस बार की बाढ़ में तीर्थयात्रियों के मारे जाने की वजह से उत्तराखंड में किए जा रहे अनियोजित, अविवेकपूर्ण कार्य का पर्दाफास हो गया, जबकि बाढ़ से पिछले 4 वर्षों में जितना नुकसान हुआ है उसे तो भुला ही दिया गया था। सन् 2008 में जब नदी बचाओ वर्ष मनाया गया तब से आज तक निर्माणाधीन, प्रस्तावित सुरंग बांधों के विरोध को दबाने के लिए बाकायदा बांध समर्थक तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक लॉबी बनाकर पक्ष में खड़ा करके नासमझ बहस पैदा करने की कोशिशें करते रहते हैं, जिसका नतीजा प्रकृति के इस रौद्र रूप ने सामने ला दिया है। अब राज्य सरकार भी प्रस्ताव पास कर रही है कि वे नदियों के किनारे निर्माण कार्य नहीं होने देंगे। यह याद बहुत देर से आ रही है, वैसे इसकी पुष्टि तो भविष्य में ही हो पाएगी।
उत्तराखंड में टिहरी बांध के विरोध का सिलसिला अभी आगे थकता नजर नहीं आ रहा है। अब रन ऑफ द रीवर का मुगालता देकर डायवर्टिंग ऑफ द रीवर के महाविनाश का चेहरा किसी से छिपा नहीं है। इस बाढ़ ने यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड में नदी बचाओ अभियान की आवाज एक बार बुलंद हो गई है। जहां-जहां पर उत्तराखंड में इस तरह के बांध बन रहे हैं। वहां पर गांवों के नीचे से खोदी जा रही सुरंग के कारण आवासीय मकानों पर दरारें आ गई हैं, जल स्रोत सूख गए हैं। खेती की जमीन अधिगृहीत हो गई हैं। जंगल काटे जा रहें हैं। गांव में आने-जाने के रास्ते विस्फोटों के कारण संवेदनशील हो गए हैं। अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि धरती माता का सब्र का बांध टूट चुका है। इसी का परिणाम है जलप्रलय, बाढ़ और भूस्खलन। ऐसी विषम स्थिति में राज्य की लालसा को देखें तो उसने ऊर्जा प्रदेश का सपना भी नदियों के स्वरूप को अवरुद्ध करके संजोया हुआ है। जबकि यहां नदियों के पास रहने वाले समाज ने चिपको, रक्षासूत्र, पानी राखो और नदी बचाओ चलाकर प्रकृति के साथ एक रिश्ता बनाकर रखा है। यहां आज भी कई गांवों में महिलायें जब जंगल जाती हैं तो तौलकर चारापत्ती लाती हैं। राज्य में खिट्टा खलड़गांव, कुडि़यालगांव, धनेटी आदि ऐसे सैकडो़ं गांव हैं, जहां पर लोगों ने ऐसी व्यवस्था बनाई है।
विकास और पर्यावरण के बीच अघोषित युद्ध ने समाज और प्रकृति के रिश्तों की उपेक्षा की है। उत्तराखंड में अगर 558 बांध बन गए तो इसके कारण ही बनने वाली लगभग 1,500 किमी लम्बी सुरंगों के ऊपर लगभग 1,000 गांव आ सकते हैं। यहां पर लगभग 30 लाख लोग निवास करते हैं। विस्फोटों के कारण जर्जर हो रहे गांव की स्थिति आने वाले भूकम्पों से कितनी खतरनाक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता है। उत्तरकाशी जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग धरासू से डुण्डा तक लगभग 10 किमी के चौड़ीकरण के कारण अब तक एक दर्जन से अधिक लोग मर गए हैं और कई गाड़ियां यहां पर क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। विस्फोटों से हुए इस निर्माण के कारण पिछले 5-6 वर्षों से इस मार्ग से गंगोत्री पंहुचने वाले तीर्थ यात्री घंटों फंसे रहते हैं। यही स्थिति बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री की तरफ जाने वाले सभी राजमार्गों की है। इस विषम स्थिति में ही चारधाम यात्रा होती है। इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 (394 MW), अशीगंगा पर निर्मणाधीन फेज-1, फेज-2 (5 MW) ने सन् 2012 में भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा की है। दुःख इस बात का है कि मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 का गेट वर्षाकाल के समय रात को बंद रहते हैं, जिसे ऊपर से बाढ़ आने पर अकस्मात खोल दिया जाता है। इसी के कारण उत्तरकाशी में तबाही हुई है। यही सिलसिला केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी नदी पर निर्मणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी (90 MW), फाटा व्यूंग (75 MW), अलकनंदा पर श्रीनगर (330 MW), तपोवन विष्णुगाड़ (520 MW), विष्णुगाड़ (400 MW), आदि दर्जनों परियोजनाओं ने तबाही की रेखा यहां के लोगों के माथे पर खींची गई है।
2008 में राज्य सरकार ने नदी बचाओ अभियान के साथ खड़ा होकर कहा था वे बड़े सुरंग बांधों के निर्माण की स्वीकृति नहीं देंगे। इसके स्थान पर सुझाए गए विचारों के अनुसार कहा गया था कि प्रदेश में बिना सुरंग वाली छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट से अधिक पैदा करने की क्षमता है। इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती है। यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाए तो, उत्तराखंड की बेरोजगारी समाप्त होगी। मौजूदा स्थिति में उत्तराखंड में 16 हजार सिंचाई नहरें हैं जो निष्क्रिय पड़ी रहती हैं। इन्हें बहुआयामी दृष्टि से संचालित करके इनसे सिंचाई और विद्युत उत्पादन दोनों पैदा की जा सकती है। केवल इन्हीं सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है। उत्तराखंड राज्य की आवश्यकता तो 1,500 मेगावाट से पूरी हो जाती है। शेष बिजली से यहां के लोगों की भाग्य की तस्वीर बदल सकती है और उत्तराखंड से पलायन हो चुके लगभग 35 लाख लोगों को अपने घरों में पुर्नस्थापित करके रोजगार दिया जा सकता है और बाकी बिजली निश्चित ही देश को मिलेगी। इसी तरह सड़कों का निर्माण ग्रीन कंस्ट्रक्शन के आधार पर होना चाहिए। जिसमें सड़कों के निर्माण से निकलने वाले मलबे से नई जमीन का निर्माण हो। पहाड़ी ढ़लानों के गड्डों को इस मलबे से पाट दिया जाए और लोगों की टेढ़ी-मेढ़ी जमीन में भी सड़कों के निर्माण से निकलने वाली उपजाऊ मिट्टी से कृषि क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार की नई जमीन पर होर्टीकल्चर का निर्माण हो सकता है।
1. वर्ष 1978 : उत्तरकाशी जिले की कनौड़िया गाड़ में भारी भूस्खलन से उत्तरकाशी शहर को भारी नुकसान। 25 लोग मरे।
2. वर्ष 1980 : उत्तरकाशी के ज्ञानसू कस्बे में बादल फटने से 28 लोगों की मौत व संपति का भारी नुकसान।
3. वर्ष 1991 : उत्तरकाशी जिले में भूकंप से भारी तबाही, करीब 1000 लोगों की मौत व हजारों मकान ध्वस्त।
4. वर्ष 1998 : तत्कालीन चमोली जिले में ऊखीमठ के मनसूना गांव में भूस्खलन से पूरा गांव जमींदोज, 69 लोगों की मौत।
5. वर्ष 1998 : पिथौरागढ़ के मालपा क्षेत्र में भूस्खलन से भारी तबाही, 350 लोगों की मौत।
6. वर्ष 1999 : चमोली जिले में भूकंप से भारी तबाही, चमोली, उत्तरकाशी व टिहरी में करीब 110 लोगों की मौत।
7. वर्ष 2002 : टिहरी में बूढ़ाकेदार के समीप अंगुडा गांव में भारी भूस्खलन से लगभग पूरा गांव तबाह, 28 लोगों की मौत।
8. वर्ष 2003 : उत्तरकाशी में वरुणावत में भारी भूस्खलन से शहर के दर्जनों होटल व अन्य भवन जमींदोज।
9. वर्ष 2012 : उत्तरकाशी जिले में अस्सी गंगा व भागीरथी घाटी में बादल फटने से भारी तबाही, 39 लोगों की मौत, 600 करोड़ की संपति बर्बाद।
10. वर्ष 2012 : रुद्रप्रयाग जिले की ऊखीमठ तहसील में भूस्खलन से भारी तबाही, 76 लोगों की मौत, तीन गांव के दर्जनों मकान जमींदोज।
हिमालयी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर आक्रामक स्वरूप विकास नीतियों का प्रभाव सामने दिखाई दे रहा है। विस्थापन जनित विकास पर नियंत्रण करना सरकारों के बलबूते से बाहर है। बार-बार केन्द्र पर निर्भर यहाँ का तंत्र हिमालय की गंभीरता और हिमालय से चल सकने वाली स्थाई जीवन शैली एवं जीविका को भी भुलाते जा रहे हैं। स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि इस क्षेत्र के वन निवासियों के पारंपरिक अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के तरीकों की जबरदस्त अनदेखी है। आयातित योजनाओं एवं परियोजनाओं ने हिमालय में अतिक्रमण, प्रदूषण व आपदाओं की स्थिति पैदा कर दी है जिसके कारण हिमालय टूट रहा है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। इसमें 45.2 प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं।
यहां नदियों, पर्वतों के बीच में निवास करने वाली जनसंख्या के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान मौजूद है। इस संबंध में कई बार घुमक्कड़ों, पर्यावरण प्रेमियों, लेखकों ने विभिन्न साहित्यों, शोध पत्रों के साथ कई हिमालयी घोषणा पत्रों के द्वारा सचेत किया हैं। इस ओर हिमालयी क्षेत्र में हो रहे जन अभियानों और तथा समुदायों के रचनात्मक कामों ने भी, सरकार का ध्यान कई बार आकर्षित किया है। भारतीय हिमालय राज्यों में आमतौर पर 11 छोटे राज्य हैं, जहां से सांसदों की कुल संख्या 36 है, लेकिन अकेले बिहार में 39, मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 तथा गुजरात में 26 सांसद है। इस संदर्भ का अर्थ यह है कि देश का मुकुट कहे जाने वाले हिमालयी भू-भाग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय पहुंच पार्लियामेंट में भी कमजोर दिखाई देती है, जबकि सामरिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालयी राज्यों को पूरे देश और दुनिया के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
हमारे देश की सरकार को पांचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई थी, जो हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से एक योजना चलाई जाती थी, इसी के विस्तार में हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विभक्त किया गया है, लेकिन विकास के मानक आज भी मैदानी हैं, जिसके फलःस्वरूप हिमालय का शोषण बढ़ा है। प्राकृतिक संशाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं। ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों, जैविक विविधताओं की दृष्टि से संपन्न हिमालयी संस्कृति और प्रकृति का ध्यान योजनाकारों को विशेष रूप से करना चाहिए था। सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है।
इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिए हैं। इसका अर्थ यही है कि हिमालयी क्षेत्र की जीवन एवं जीविका को ध्यान में रखते हुए हिमालयी संस्कृति, समाज एवं पर्यावरण को बचाए रखने के लिए ‘‘हिमालय नीति’’ की आवश्यकता है। हिमालय देश और दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहे, इसे ध्यान में रखकर के हिमालयवासियों द्वारा ‘‘हिमालय लोक नीति’’ प्रस्तुत की गई है।
(लेखक उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं तथा वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।
यहां की नदियों के किनारे बसे हुए लोग कभी बड़े भाग्यशाली माने जाते थे, क्योंकि उन्हें पेयजल, खेतों की सिंचाई और घराटों को चलाने के लिए पानी आसानी से मिल जाता था। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि खेती की जमीन और घराट तेजी से मलबे मे बदल रही हैं। 1991 और 1999 के भूकंप ने उत्तराखंड के लगभग 800 लोगों को मारा है। इसके कारण ढालदार पहाड़ियों पर दरारें आई हैं। इन दरारों के आसपास हजारों गांव बसे हुए हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे एक हजार से अधिक गांव को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की बात भी कही थी। लेकिन इसके बावजूद भी उत्तराखंड में पिछले एक दशक से विकास के नाम पर पहाड़ों की कमर तोड़ने वाली विकास योजनाओं का क्रियान्वयन केवल मुनाफाखोर कंपनियों के हितों में हो रहा है।
मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें। यहाँ तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है। जिसके कारण नदियों के आर-पार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं। सड़क निर्माण का मलबा नदियों, गाड़ गदेरों, जलस्रोतों, ग्रामीण बस्तियों के बीच में उड़ेला जा रहा है। इसी तरह उत्तराखंड में उद्गम से ही बन रहे श्रृंखलाबद्ध सुरंग बांधों के निर्माण से लाखों टन मलबा जिसमें मिट्टी, पत्थर, पेड़ बेहिचक नदियों में फेंके जा रहे है। कोई भी उत्तराखंड में मानवजनित विकास के नाम पर इन त्रासदियों की प्रत्यक्ष तस्वीर देख सकता है, जहां बिना बारिश के भी पहाड़ टूटते नजर आ रहे हैं। उत्तरकाशी में 2003 में वरुणावत त्रासदी की घटना भी सितंबर-अक्टूबर में हुई थी।
सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहुंचाई जा रही बड़ी-बड़ी मशीनों ने भी पहाड़ में कंपन पैदा कर दिया है। यहां वनों में बार-बार आग की घटनाओं ने मिट्टी को नीचे की ओर बहने के लिए मजबूर कर दिया है। नदियों के किनारे बिना रोक टोक बन रहे होटलों, रेंस्तराओं व ढ़ाबों के निर्माण से निकलने वाला मलबा भी नदियों में ही गिरता है। इन सबके चलते न तो तीर्थयात्रियों की सुरक्षा का ध्यान होता है और न ही पहाड़ों के गांवों में हो रहे भू-धंसाव व बाढ़ के दुस्प्रभाव पर कोई बात हो पाती है।
इस बार की बाढ़ में तीर्थयात्रियों के मारे जाने की वजह से उत्तराखंड में किए जा रहे अनियोजित, अविवेकपूर्ण कार्य का पर्दाफास हो गया, जबकि बाढ़ से पिछले 4 वर्षों में जितना नुकसान हुआ है उसे तो भुला ही दिया गया था। सन् 2008 में जब नदी बचाओ वर्ष मनाया गया तब से आज तक निर्माणाधीन, प्रस्तावित सुरंग बांधों के विरोध को दबाने के लिए बाकायदा बांध समर्थक तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक लॉबी बनाकर पक्ष में खड़ा करके नासमझ बहस पैदा करने की कोशिशें करते रहते हैं, जिसका नतीजा प्रकृति के इस रौद्र रूप ने सामने ला दिया है। अब राज्य सरकार भी प्रस्ताव पास कर रही है कि वे नदियों के किनारे निर्माण कार्य नहीं होने देंगे। यह याद बहुत देर से आ रही है, वैसे इसकी पुष्टि तो भविष्य में ही हो पाएगी।
उत्तराखंड में टिहरी बांध के विरोध का सिलसिला अभी आगे थकता नजर नहीं आ रहा है। अब रन ऑफ द रीवर का मुगालता देकर डायवर्टिंग ऑफ द रीवर के महाविनाश का चेहरा किसी से छिपा नहीं है। इस बाढ़ ने यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड में नदी बचाओ अभियान की आवाज एक बार बुलंद हो गई है। जहां-जहां पर उत्तराखंड में इस तरह के बांध बन रहे हैं। वहां पर गांवों के नीचे से खोदी जा रही सुरंग के कारण आवासीय मकानों पर दरारें आ गई हैं, जल स्रोत सूख गए हैं। खेती की जमीन अधिगृहीत हो गई हैं। जंगल काटे जा रहें हैं। गांव में आने-जाने के रास्ते विस्फोटों के कारण संवेदनशील हो गए हैं। अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि धरती माता का सब्र का बांध टूट चुका है। इसी का परिणाम है जलप्रलय, बाढ़ और भूस्खलन। ऐसी विषम स्थिति में राज्य की लालसा को देखें तो उसने ऊर्जा प्रदेश का सपना भी नदियों के स्वरूप को अवरुद्ध करके संजोया हुआ है। जबकि यहां नदियों के पास रहने वाले समाज ने चिपको, रक्षासूत्र, पानी राखो और नदी बचाओ चलाकर प्रकृति के साथ एक रिश्ता बनाकर रखा है। यहां आज भी कई गांवों में महिलायें जब जंगल जाती हैं तो तौलकर चारापत्ती लाती हैं। राज्य में खिट्टा खलड़गांव, कुडि़यालगांव, धनेटी आदि ऐसे सैकडो़ं गांव हैं, जहां पर लोगों ने ऐसी व्यवस्था बनाई है।
विकास और पर्यावरण के बीच अघोषित युद्ध ने समाज और प्रकृति के रिश्तों की उपेक्षा की है। उत्तराखंड में अगर 558 बांध बन गए तो इसके कारण ही बनने वाली लगभग 1,500 किमी लम्बी सुरंगों के ऊपर लगभग 1,000 गांव आ सकते हैं। यहां पर लगभग 30 लाख लोग निवास करते हैं। विस्फोटों के कारण जर्जर हो रहे गांव की स्थिति आने वाले भूकम्पों से कितनी खतरनाक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता है। उत्तरकाशी जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग धरासू से डुण्डा तक लगभग 10 किमी के चौड़ीकरण के कारण अब तक एक दर्जन से अधिक लोग मर गए हैं और कई गाड़ियां यहां पर क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। विस्फोटों से हुए इस निर्माण के कारण पिछले 5-6 वर्षों से इस मार्ग से गंगोत्री पंहुचने वाले तीर्थ यात्री घंटों फंसे रहते हैं। यही स्थिति बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री की तरफ जाने वाले सभी राजमार्गों की है। इस विषम स्थिति में ही चारधाम यात्रा होती है। इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 (394 MW), अशीगंगा पर निर्मणाधीन फेज-1, फेज-2 (5 MW) ने सन् 2012 में भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा की है। दुःख इस बात का है कि मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 का गेट वर्षाकाल के समय रात को बंद रहते हैं, जिसे ऊपर से बाढ़ आने पर अकस्मात खोल दिया जाता है। इसी के कारण उत्तरकाशी में तबाही हुई है। यही सिलसिला केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी नदी पर निर्मणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी (90 MW), फाटा व्यूंग (75 MW), अलकनंदा पर श्रीनगर (330 MW), तपोवन विष्णुगाड़ (520 MW), विष्णुगाड़ (400 MW), आदि दर्जनों परियोजनाओं ने तबाही की रेखा यहां के लोगों के माथे पर खींची गई है।
2008 में राज्य सरकार ने नदी बचाओ अभियान के साथ खड़ा होकर कहा था वे बड़े सुरंग बांधों के निर्माण की स्वीकृति नहीं देंगे। इसके स्थान पर सुझाए गए विचारों के अनुसार कहा गया था कि प्रदेश में बिना सुरंग वाली छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट से अधिक पैदा करने की क्षमता है। इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती है। यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाए तो, उत्तराखंड की बेरोजगारी समाप्त होगी। मौजूदा स्थिति में उत्तराखंड में 16 हजार सिंचाई नहरें हैं जो निष्क्रिय पड़ी रहती हैं। इन्हें बहुआयामी दृष्टि से संचालित करके इनसे सिंचाई और विद्युत उत्पादन दोनों पैदा की जा सकती है। केवल इन्हीं सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है। उत्तराखंड राज्य की आवश्यकता तो 1,500 मेगावाट से पूरी हो जाती है। शेष बिजली से यहां के लोगों की भाग्य की तस्वीर बदल सकती है और उत्तराखंड से पलायन हो चुके लगभग 35 लाख लोगों को अपने घरों में पुर्नस्थापित करके रोजगार दिया जा सकता है और बाकी बिजली निश्चित ही देश को मिलेगी। इसी तरह सड़कों का निर्माण ग्रीन कंस्ट्रक्शन के आधार पर होना चाहिए। जिसमें सड़कों के निर्माण से निकलने वाले मलबे से नई जमीन का निर्माण हो। पहाड़ी ढ़लानों के गड्डों को इस मलबे से पाट दिया जाए और लोगों की टेढ़ी-मेढ़ी जमीन में भी सड़कों के निर्माण से निकलने वाली उपजाऊ मिट्टी से कृषि क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार की नई जमीन पर होर्टीकल्चर का निर्माण हो सकता है।
आपदाओं की कुछ प्रमुख घटनाएं
1. वर्ष 1978 : उत्तरकाशी जिले की कनौड़िया गाड़ में भारी भूस्खलन से उत्तरकाशी शहर को भारी नुकसान। 25 लोग मरे।
2. वर्ष 1980 : उत्तरकाशी के ज्ञानसू कस्बे में बादल फटने से 28 लोगों की मौत व संपति का भारी नुकसान।
3. वर्ष 1991 : उत्तरकाशी जिले में भूकंप से भारी तबाही, करीब 1000 लोगों की मौत व हजारों मकान ध्वस्त।
4. वर्ष 1998 : तत्कालीन चमोली जिले में ऊखीमठ के मनसूना गांव में भूस्खलन से पूरा गांव जमींदोज, 69 लोगों की मौत।
5. वर्ष 1998 : पिथौरागढ़ के मालपा क्षेत्र में भूस्खलन से भारी तबाही, 350 लोगों की मौत।
6. वर्ष 1999 : चमोली जिले में भूकंप से भारी तबाही, चमोली, उत्तरकाशी व टिहरी में करीब 110 लोगों की मौत।
7. वर्ष 2002 : टिहरी में बूढ़ाकेदार के समीप अंगुडा गांव में भारी भूस्खलन से लगभग पूरा गांव तबाह, 28 लोगों की मौत।
8. वर्ष 2003 : उत्तरकाशी में वरुणावत में भारी भूस्खलन से शहर के दर्जनों होटल व अन्य भवन जमींदोज।
9. वर्ष 2012 : उत्तरकाशी जिले में अस्सी गंगा व भागीरथी घाटी में बादल फटने से भारी तबाही, 39 लोगों की मौत, 600 करोड़ की संपति बर्बाद।
10. वर्ष 2012 : रुद्रप्रयाग जिले की ऊखीमठ तहसील में भूस्खलन से भारी तबाही, 76 लोगों की मौत, तीन गांव के दर्जनों मकान जमींदोज।
हिमालय के लिए अलग नीति चाहिए।
हिमालयी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर आक्रामक स्वरूप विकास नीतियों का प्रभाव सामने दिखाई दे रहा है। विस्थापन जनित विकास पर नियंत्रण करना सरकारों के बलबूते से बाहर है। बार-बार केन्द्र पर निर्भर यहाँ का तंत्र हिमालय की गंभीरता और हिमालय से चल सकने वाली स्थाई जीवन शैली एवं जीविका को भी भुलाते जा रहे हैं। स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि इस क्षेत्र के वन निवासियों के पारंपरिक अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के तरीकों की जबरदस्त अनदेखी है। आयातित योजनाओं एवं परियोजनाओं ने हिमालय में अतिक्रमण, प्रदूषण व आपदाओं की स्थिति पैदा कर दी है जिसके कारण हिमालय टूट रहा है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। इसमें 45.2 प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं।
यहां नदियों, पर्वतों के बीच में निवास करने वाली जनसंख्या के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान मौजूद है। इस संबंध में कई बार घुमक्कड़ों, पर्यावरण प्रेमियों, लेखकों ने विभिन्न साहित्यों, शोध पत्रों के साथ कई हिमालयी घोषणा पत्रों के द्वारा सचेत किया हैं। इस ओर हिमालयी क्षेत्र में हो रहे जन अभियानों और तथा समुदायों के रचनात्मक कामों ने भी, सरकार का ध्यान कई बार आकर्षित किया है। भारतीय हिमालय राज्यों में आमतौर पर 11 छोटे राज्य हैं, जहां से सांसदों की कुल संख्या 36 है, लेकिन अकेले बिहार में 39, मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 तथा गुजरात में 26 सांसद है। इस संदर्भ का अर्थ यह है कि देश का मुकुट कहे जाने वाले हिमालयी भू-भाग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय पहुंच पार्लियामेंट में भी कमजोर दिखाई देती है, जबकि सामरिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालयी राज्यों को पूरे देश और दुनिया के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
हमारे देश की सरकार को पांचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई थी, जो हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से एक योजना चलाई जाती थी, इसी के विस्तार में हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विभक्त किया गया है, लेकिन विकास के मानक आज भी मैदानी हैं, जिसके फलःस्वरूप हिमालय का शोषण बढ़ा है। प्राकृतिक संशाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं। ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों, जैविक विविधताओं की दृष्टि से संपन्न हिमालयी संस्कृति और प्रकृति का ध्यान योजनाकारों को विशेष रूप से करना चाहिए था। सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है।
इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिए हैं। इसका अर्थ यही है कि हिमालयी क्षेत्र की जीवन एवं जीविका को ध्यान में रखते हुए हिमालयी संस्कृति, समाज एवं पर्यावरण को बचाए रखने के लिए ‘‘हिमालय नीति’’ की आवश्यकता है। हिमालय देश और दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहे, इसे ध्यान में रखकर के हिमालयवासियों द्वारा ‘‘हिमालय लोक नीति’’ प्रस्तुत की गई है।
(लेखक उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं तथा वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।
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