विपिन जोशी
विपिन जोशी
आपदा का मलवा: अधिकारियों के लिए बना मुनाफे का हलवा
Posted on 25 Jun, 2015 03:32 PMआपदा का सबसे बड़ा असर इसी वर्ग को झेलना होता है। जो सिर्फ वोट देकर अविकास! किंतु किस कीमत पर
Posted on 10 May, 2014 08:20 AMउत्तराखंड का विकास यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर टिकाऊ विपानी पर मंडराते संकट के बादल
Posted on 16 Jan, 2014 10:07 AMनौला सिर्फ पानी का स्रोत नहीं है, इसके साथ एक समुदाय की आस्था भी जुड़ी होती है। हर नौले के पास एक मंदिर बनाने की परंपरा थी। नौले के समीप चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगाने का भी चलन था। लेकिन अब पानी बोतल में बंद हो गया तो उसके पीछे की सारी सोच ही व्यावसायिक हो गई। अब पानी पिलाना पुण्य नहीं है। पानी सिर्फ मुनाफे का सौदा बन गया है। ऐसे में भला एक समुदाय के सरोकार पानी से कैसे जुड़ पाएंगे? पारंपरिक ज्ञान में दीर्घकालिक वैज्ञानिकता और सामाजिकता है जो उसके आज भी प्रासंगिक होने का प्रमाण है। पीने का पानी संकट के साए में है। उत्तराखंड की कई प्रमुख बर्फानी नदियों से देश का एक बड़ा तबका अपनी प्यास बुझाता है। इसके बावजूद पीने के पानी का संकट आज तक बरकरार है। अधिकांश ग्रामीण व शहरी इलाकों में धरती को चीर कर हैंडपम्प लगवा दिए गए हैं। गली, मोहल्लों और घरों में नल लगे हैं जिनसे कभी-कभी पानी की बूंद टपकती ज़रूर है। इतने सारे ताम-झाम के अलावा सरकारी और गैर सरकारी जन जागृति के प्रयास भी पानी के लिए होते ही रहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का 70 फीसदी पानी प्रदूषित हो चुका है। आबादी बढ़ी है तो पानी का इस्तेमाल भी। अकेले दिल्ली शहर में 270 करोड़ लीटर पानी प्रतिदिन सप्लाई होता है। चेन्नई में पेयजल की कमी इस कदर है कि वहां प्रति व्यक्ति 70 लीटर पानी प्रतिदिन मुहैया हो पा रहा है। इतना सब एक तरफ है और दूसरी ओर हैं सातवीं सदी के कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित नौले यानी पेयजल की सर्वोत्तम तकनीक।आपदा के बाद सरकार तय करे राहत के मायने
Posted on 15 Jul, 2013 01:52 PMयूँ तो सारे पहाड़ में और जहाँ-जहाँ बड़ी पनविद्युत परियोजनाएँ और सुरंगे बनी वहाँ-वहाँ भयानक तबाही देखने को मिली ह
प्राकृतिक आपदा ऐसे ही नहीं आती
Posted on 26 Jun, 2013 02:57 PM यदि भविष्य में इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा से बचना है तो इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। विकास अच्छी बात है, परंतु इसके कुछ मानक तय होने चाहिए। दीर्घकालिक विकास की नीतियों को तय किये जाने की आवश्कता है। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त हिमालयी क्षेत्रों में भारी निर्माण और दैत्याकार जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाए। हिमालयी क्षेत्र में बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण के नाम पर विस्फोट ना किए जाएं। कब-कब किन हालात में आपदाएं आई हैं इसका आकंड़ा जुटाया जाए। सबसे जरूरी यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य सरकार और केन्द्र मिलकर पुख्ता नीति बनाए।उत्तराखंड में बीते सप्ताह कुदरत का जो क़हर टूटा उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। तबाही का ऐसा खौ़फनाक मंजर पहले नहीं देखा गया। हांलाकि 1970 में चमोली जिले में गौनाताल में बादल के फटने से डरावने हालात बन गए थे, लेकिन इस प्रकार की क्षति नहीं हुई थी क्योंकि इसकी भविष्यवाणी अंग्रेजों ने 1894 में ही कर दी थी और तब नीचे की बस्तियों को सुरक्षित स्थानों में बसा दिया गया था। उस दौर में आज के जैसे परिवहन और संचार के नवीनतम उपकरण मौजूद नहीं थे, परंतु अंग्रेज अधिकारियों के बीच गजब का समन्वय और प्लानिंग थी। जिसके चलते 1970 के हादसा में आज की तरह जानमाल की अधिक क्षति नहीं हुई थी। लेकिन इस बार के हादसे ने कई सवालों को जन्म दे दिया है। केदारनाथ त्रासदी से ठीक दो दिन पूर्व मौसम विभाग ने प्रशासन को चेतावनी दी थी कि अगले 24 घंटों में भारी बारिश हो सकती है तो क्यों नहीं देहरादून से सतर्कता बरती गई? कुल कितने यात्री उस दौरान केदारनाथ में थे ये डाटा भी राज्य सरकार के पास नहीं हैं। तो ऐसे में हताहतों का अंदाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।पानी को प्रदूषण से बचाइए
Posted on 31 Mar, 2012 12:58 PMपिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि गर्मी के चरम पर जबकि पानी की सख्त आवश्यकता होती है हमारे देश की कई नद
अवैध खनन से खोखली होती भूमि
Posted on 13 Jan, 2012 04:27 PMबरसात में बजरी निकालो और बाकी समय में नदी को प्रदूषित करो, इस दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता ह