यह बर्बादी केवल नवीन की नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड में जगह-जगह पर बांधों ने बर्बादी की है। 25 बांध टूटे हैं और उन टूटे बांधों के कारण जो तबाही आई है उसका तो आकलन अभी नहीं हो पाया है। गंगा गुस्से में थी, उसने कह दिया कि मुझे बांध नहीं चाहिए मुझे इस तरह के बंधन पूरी तरह अस्वीकार हैं। उसने न केवल विष्णुप्रयाग, अस्सीगंगा के 3 और फाटा-ब्योंग, सिंगोली-भटवाड़ी बांधों को उड़ा दिया बल्कि उसकी गुस्से के शिकार नदी के किनारे रहने वाले लोगों में भी हुए जो नासमझी में कभी बांध के साथ हुआ करते थे। आज लामबगड़, पाण्डुकेश्वर, गोविंदघाट, पिनोला आदि गांव बांध के विरोध में खड़े हैं।उत्तराखंड में आपदा ने बहुत कुछ बदला। गाँवों के नक्शे बदले, नदी के रास्ते बदले, पहाड़ों के घाटियों के नीचे उनकी जड़ों के आकार बदले तो साथ में लोगों के अंदर के मन भी बदले। उत्तराखंड में एक के बाद एक बांध परियोजनाएं हैं। गंगा घाटी में 70 बांधों की प्रस्तावित, बन रही, बनने वाली परियोजनाएं हैं। पर कुछ जगह लोगों के बांधों के समर्थन में खड़े होना बड़े आश्चर्य की बात थी। ये काफी हद तक, सब जगह जहां पर भी हम बांधों की असलियत विभिन्न माध्यमों से बताते थे कि बांध से ये नुकसान होने वाला है, पर्चा बांटकर, लोगों को जन सुनवाई से पहले तैयार करते। मगर दूसरी तरफ सरकारों का, बांध कंपनियों का, पूँजीपतियों का और ठेकेदारों का आपसी गठजोड़ है, वो यही प्रचारित करते हैं कि बांधों से बहुत रोज़गार है। ठेकेदार गांव के एक दो लोगों को साथ लेकर काम में लगाते हैं बस।, जो दो तीन लोग प्रभावशाली होते हैं, उन्हीं को ये ठेके भी मिलते हैं, उनके बच्चों को नौकरी भी मिल जाती है तो गांव के दूसरे लोग इतना बोल नहीं पाते। चार लोग अगर खड़े हैं तो बांधों का समर्थन है। अखबार में बड़ी खबर आ गई। इस पूरे परिदृश्य के अंदर में बांध विरोध की बात लोगों के द्वारा भी हो तो वो दबी रहती हैं।
बद्रीनाथ से मात्र तीन किलोमीटर नीचे दो ग्लेशियर के (बीच के) संगम के ऊपर में जी.एम.आर. कंपनी की अलकनंदा-बद्रीनाथ परियोजना 300 मेगावाट आ रही है। इस परियोजना की वन स्वीकृति को माटू जनसंगठन और डॉ. भरत झुनझुनवाला ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में चुनौती दी थी। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने कहा की वन स्वीकृति को चुनौती देना सही नहीं बल्कि आप दूसरी वन स्वीकृति के बाद जब राज्य सरकार वन स्वीकृति देगी तब आप उसको चुनौती दे सकते हैं। मगर प्राधिकरण ने वन कटान के काम पर पाबंदी लगाई थी। उसकी वज़ह से एक वर्ष के लिए बांध का काम रुका।
जब दूसरी वन स्वीकृति हुई और हमने प्राधिकरण में चुनौती दी। ताज़ा परिस्थिति देखने के लिए मैं अभी हाल ही में 1 जून 2013 को प्रभावित लांमबगड़ गांव पहुंचा जो कि जे. पी. के विष्णुप्रयाग बांध के सामने ही दिखता है मात्र आधा किलोमीटर दूरी पर। मेरे साथ में नौरख गांव के वन सरपंच थे बृहर्षराज तड़ियाल। संयोग से हमें गांव के प्रधान मिल गए। बातचीत शुरू की कैसा लगता है यहां पर जे.पी. की परियोजना से क्या हुआ है? लोगों ने कहा जेपी के बांध से तो हमें फायदा नहीं मगर जी.एम.आर. वाले अच्छे हैं। वे हमें स्कूल बस दे रहे हैं, बच्चों को ले जाने के लिए बड़े फायदे हैं हमको ठेके भी मिलने वाले हैं वगैरह-वगैरह। हमने पूछा ये बातें जे. पी. के बांध से पहले भी आए होंगे? नहीं जे.पी. तो बहुत बदनाम था, उसकी बदमाशी शुरू से, मगर जी.एम.आर. फिर भी ठीक है। चलिए बात खत्म हुई और प्रधान जी से पूछा कि आप क्या ठेका लेने वाले हैं? उत्तर मिला नहीं अभी, कल ही मीटिंग होने वाली है और उन्होंने हमें बात करने के लिए बुलाया है। क्या बात करेंगे? क्या आपको मालूम है बांध के प्रभाव क्या होने वाले हैं? क्या आपको मालूम है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिर्पोट जैसा कोई कागज़ात होता है आपको बताया क्या? प्रधान जी का उत्तर और दूसरे सभी लोगों का उत्तर नकारात्मक था। मगर वो इस बात पर ज़रूर तैयार हुए कि हां बांध कंपनी के सामने हमें पूछने चाहिए कि ये जानकारी क्या है? और जानकारी मिलने के बाद ही बांध का काम आगे बढ़े साथ ही ठेके मिले इस पर चर्चा होनी चाहिए। इसी बीच गांव के उपप्रधान नवीन चौहान आए। युवा और थोड़े आक्रामक स्वर में बोले कौन बांध विरोधी है? अगर आए तो सड़क पर लेटाकर मार देंगे। मैंने कहा नवीन भाई, बहुत अच्छी बात है उत्तराखंड की संस्कृति आज ये हो गई कि आपके गांव में जो आएगा उसको सड़क पर लेटाकर मारेंगे। ये तो बहुत अच्छी बात है। यदि गंगा के किनारे मरेंगे इससे अच्छी और कौन सी मृत्यु होगी। आपकी जानकरी के लिए बता दूं कि मेरा नाम विमल भाई है। मैं माटू जनसंगठन से हूं। हमने ही वन स्वीकृति को चुनौती दी। साल भर के लिए काम रोका और अभी भी हमने चुनौती दी है 30 मई को उसकी पहली सुनवाई थी 15 जुलाई में अगली तारिख है। अब बताइए हमें मारना चाहेंगे? वो बोले नहीं भईया, हमारी ये परिस्थिति है कि हमारे को कोई साथ नहीं देता है। पिछले साल जेपी के बांध के कारण आई बाढ़ में मेरी दुकान चली गई थी। कोई भी साथ खड़ा नहीं हुआ ना प्रशासन, ना कोई जन प्रतिनिधी हमारे साथ था। हमारी तो मजबूरी है। लंबी बात के बाद हम थोड़ा आगे बढ़े। बेनाकूली गांव में भूटिया परिवार जो अनुसूचित जनजाति से है, रहते है। वहां पर मिले लोगों ने कहा हम को मजबूरी में ठेका दिया जा रहा है और कहा जा रहा कि नहीं आप को कुछ नहीं करना है, बस हस्ताक्षर करने हैं और हम तो फंसे हुए हैं। गोपेश्वर में दुकान है मेरी मगर मैं क्या करूं? बात हुई।
सुंदर प्रकृति के दृश्य नज़र आ रहे हैं। वहां दो गंगाएं मिलती हैं और सामने जो घाटी नज़र आती है उसका सौंदर्य देखकर ये कल्पना ही नहीं हो सकती है कि यहां बांध बनेंगे और प्रकृति का उजाड़ होगा। पेड़ कटेंगे, धूल उठेगी। मुझे याद है जब फरवरी 2012 में आया था, तो यहां बर्फ पड़ी हुई थी और उस बर्फ के अंदर में अठखेलियां खेलती हुई नन्हीं सी नदी भी दौड़ती थी। पीछे से सुंदर ग्लेशियर नीचे नदी को छूते थे मानो आपस में कानाफूंसी करते होंगे। इस पूरे परिदृश्य को याद करके मैं झुंझला रहा था कि क्या करना चाहिए? थोड़े ही दिन बीते की अचानक से टी.वी, अखबार में ये आने लगा आपदा, आपदा, आपदा उत्तराखंड में भयानक आपदा आई।
कई बार मन में आता कि उत्तराखंड के लोग हमारे साथ लड़ते हैं और फिर बांध कंपनियों के साथ जाते हैं। पर इस आपदा के साथ ये महसूस हुआ कि, मुझे यहां लोगों से कितना गहराई से प्यार है। मेरे लिए यह संभव नहीं कि राहत के लिए इंतजार करते देख सकूँ। जुलाई में जब जोशीमठ में पहुंचा तो उसी नवीन भाई को इंतज़ार करते हुए पाया। उन्होंने कहा मैं जी.एम.आर. का ठेका वापस करुंगा। मैंने बड़ा होटल बनाया था और मुझे जी.एम.आर. ने कहा था कि इसको हम किराए पर लेंगे। अपने कर्मचारियों के लिए। मगर विमल दा अब नहीं करुंगा। मैं उनके ठेके के लिए भविष्य अंधकार में नहीं डालना चाहता और मुझे इस जे.पी. कंपनी के बांध के खिलाफ खड़ा होना है। मेरी आंखें फटी थी। कान बहरे होने की सीमा तक खुले हुए थे। मैने हाथ में मज़बूती से पैन पकड़ी। अंदर से मुझे आवाज़ आई कि जो सत्य सामने आया है। क्योंकि इस व्यक्ति ने हृदय के इस सच्चाई को समझा और पूरा बदला। आज नवीन चौहान अपनी सभी साथियों के साथ बैठकर काम कर रहा है। आज वो इस चुनौती को जान चुका है उसकी 3 कारें और बड़ा घर बह चुके हैं। जब केंद्रीय जल आयोग व अन्य विभागीय अधिकारी जोशीमठ आए और समस्याएं पूछ रहे थे तो तो नवीन बोलने लगा। नवीन भाई कभी बोलते नहीं थे। अधिकारी ने पूछा आज कैसे बोल रहे हो? उसने कहा आज खोने को कुछ नहीं है और मैं आज नहीं बोला तो मेरे आने वाली पीढ़ियाँ भी खोती रहेंगी।
यह बर्बादी केवल नवीन की नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड में जगह-जगह पर बांधों ने बर्बादी की है। 25 बांध टूटे हैं और उन टूटे बांधों के कारण जो तबाही आई है उसका तो आकलन अभी नहीं हो पाया है। गंगा गुस्से में थी, उसने कह दिया कि मुझे बांध नहीं चाहिए मुझे इस तरह के बंधन पूरी तरह अस्वीकार हैं। उसने न केवल विष्णुप्रयाग, अस्सीगंगा के 3 और फाटा-ब्योंग, सिंगोली-भटवाड़ी बांधों को उड़ा दिया बल्कि उसकी गुस्से के शिकार नदी के किनारे रहने वाले लोगों में भी हुए जो नासमझी में कभी बांध के साथ हुआ करते थे। आज लामबगड़, पाण्डुकेश्वर, गोविंदघाट, पिनोला आदि गांव बांध के विरोध में खड़े हैं। उनका कहना है हमको पहले सुरक्षा चाहिए। बांधों के ये असमय बम नही चाहिए।
बद्रीनाथ से मात्र तीन किलोमीटर नीचे दो ग्लेशियर के (बीच के) संगम के ऊपर में जी.एम.आर. कंपनी की अलकनंदा-बद्रीनाथ परियोजना 300 मेगावाट आ रही है। इस परियोजना की वन स्वीकृति को माटू जनसंगठन और डॉ. भरत झुनझुनवाला ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में चुनौती दी थी। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने कहा की वन स्वीकृति को चुनौती देना सही नहीं बल्कि आप दूसरी वन स्वीकृति के बाद जब राज्य सरकार वन स्वीकृति देगी तब आप उसको चुनौती दे सकते हैं। मगर प्राधिकरण ने वन कटान के काम पर पाबंदी लगाई थी। उसकी वज़ह से एक वर्ष के लिए बांध का काम रुका।
जब दूसरी वन स्वीकृति हुई और हमने प्राधिकरण में चुनौती दी। ताज़ा परिस्थिति देखने के लिए मैं अभी हाल ही में 1 जून 2013 को प्रभावित लांमबगड़ गांव पहुंचा जो कि जे. पी. के विष्णुप्रयाग बांध के सामने ही दिखता है मात्र आधा किलोमीटर दूरी पर। मेरे साथ में नौरख गांव के वन सरपंच थे बृहर्षराज तड़ियाल। संयोग से हमें गांव के प्रधान मिल गए। बातचीत शुरू की कैसा लगता है यहां पर जे.पी. की परियोजना से क्या हुआ है? लोगों ने कहा जेपी के बांध से तो हमें फायदा नहीं मगर जी.एम.आर. वाले अच्छे हैं। वे हमें स्कूल बस दे रहे हैं, बच्चों को ले जाने के लिए बड़े फायदे हैं हमको ठेके भी मिलने वाले हैं वगैरह-वगैरह। हमने पूछा ये बातें जे. पी. के बांध से पहले भी आए होंगे? नहीं जे.पी. तो बहुत बदनाम था, उसकी बदमाशी शुरू से, मगर जी.एम.आर. फिर भी ठीक है। चलिए बात खत्म हुई और प्रधान जी से पूछा कि आप क्या ठेका लेने वाले हैं? उत्तर मिला नहीं अभी, कल ही मीटिंग होने वाली है और उन्होंने हमें बात करने के लिए बुलाया है। क्या बात करेंगे? क्या आपको मालूम है बांध के प्रभाव क्या होने वाले हैं? क्या आपको मालूम है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिर्पोट जैसा कोई कागज़ात होता है आपको बताया क्या? प्रधान जी का उत्तर और दूसरे सभी लोगों का उत्तर नकारात्मक था। मगर वो इस बात पर ज़रूर तैयार हुए कि हां बांध कंपनी के सामने हमें पूछने चाहिए कि ये जानकारी क्या है? और जानकारी मिलने के बाद ही बांध का काम आगे बढ़े साथ ही ठेके मिले इस पर चर्चा होनी चाहिए। इसी बीच गांव के उपप्रधान नवीन चौहान आए। युवा और थोड़े आक्रामक स्वर में बोले कौन बांध विरोधी है? अगर आए तो सड़क पर लेटाकर मार देंगे। मैंने कहा नवीन भाई, बहुत अच्छी बात है उत्तराखंड की संस्कृति आज ये हो गई कि आपके गांव में जो आएगा उसको सड़क पर लेटाकर मारेंगे। ये तो बहुत अच्छी बात है। यदि गंगा के किनारे मरेंगे इससे अच्छी और कौन सी मृत्यु होगी। आपकी जानकरी के लिए बता दूं कि मेरा नाम विमल भाई है। मैं माटू जनसंगठन से हूं। हमने ही वन स्वीकृति को चुनौती दी। साल भर के लिए काम रोका और अभी भी हमने चुनौती दी है 30 मई को उसकी पहली सुनवाई थी 15 जुलाई में अगली तारिख है। अब बताइए हमें मारना चाहेंगे? वो बोले नहीं भईया, हमारी ये परिस्थिति है कि हमारे को कोई साथ नहीं देता है। पिछले साल जेपी के बांध के कारण आई बाढ़ में मेरी दुकान चली गई थी। कोई भी साथ खड़ा नहीं हुआ ना प्रशासन, ना कोई जन प्रतिनिधी हमारे साथ था। हमारी तो मजबूरी है। लंबी बात के बाद हम थोड़ा आगे बढ़े। बेनाकूली गांव में भूटिया परिवार जो अनुसूचित जनजाति से है, रहते है। वहां पर मिले लोगों ने कहा हम को मजबूरी में ठेका दिया जा रहा है और कहा जा रहा कि नहीं आप को कुछ नहीं करना है, बस हस्ताक्षर करने हैं और हम तो फंसे हुए हैं। गोपेश्वर में दुकान है मेरी मगर मैं क्या करूं? बात हुई।
सुंदर प्रकृति के दृश्य नज़र आ रहे हैं। वहां दो गंगाएं मिलती हैं और सामने जो घाटी नज़र आती है उसका सौंदर्य देखकर ये कल्पना ही नहीं हो सकती है कि यहां बांध बनेंगे और प्रकृति का उजाड़ होगा। पेड़ कटेंगे, धूल उठेगी। मुझे याद है जब फरवरी 2012 में आया था, तो यहां बर्फ पड़ी हुई थी और उस बर्फ के अंदर में अठखेलियां खेलती हुई नन्हीं सी नदी भी दौड़ती थी। पीछे से सुंदर ग्लेशियर नीचे नदी को छूते थे मानो आपस में कानाफूंसी करते होंगे। इस पूरे परिदृश्य को याद करके मैं झुंझला रहा था कि क्या करना चाहिए? थोड़े ही दिन बीते की अचानक से टी.वी, अखबार में ये आने लगा आपदा, आपदा, आपदा उत्तराखंड में भयानक आपदा आई।
कई बार मन में आता कि उत्तराखंड के लोग हमारे साथ लड़ते हैं और फिर बांध कंपनियों के साथ जाते हैं। पर इस आपदा के साथ ये महसूस हुआ कि, मुझे यहां लोगों से कितना गहराई से प्यार है। मेरे लिए यह संभव नहीं कि राहत के लिए इंतजार करते देख सकूँ। जुलाई में जब जोशीमठ में पहुंचा तो उसी नवीन भाई को इंतज़ार करते हुए पाया। उन्होंने कहा मैं जी.एम.आर. का ठेका वापस करुंगा। मैंने बड़ा होटल बनाया था और मुझे जी.एम.आर. ने कहा था कि इसको हम किराए पर लेंगे। अपने कर्मचारियों के लिए। मगर विमल दा अब नहीं करुंगा। मैं उनके ठेके के लिए भविष्य अंधकार में नहीं डालना चाहता और मुझे इस जे.पी. कंपनी के बांध के खिलाफ खड़ा होना है। मेरी आंखें फटी थी। कान बहरे होने की सीमा तक खुले हुए थे। मैने हाथ में मज़बूती से पैन पकड़ी। अंदर से मुझे आवाज़ आई कि जो सत्य सामने आया है। क्योंकि इस व्यक्ति ने हृदय के इस सच्चाई को समझा और पूरा बदला। आज नवीन चौहान अपनी सभी साथियों के साथ बैठकर काम कर रहा है। आज वो इस चुनौती को जान चुका है उसकी 3 कारें और बड़ा घर बह चुके हैं। जब केंद्रीय जल आयोग व अन्य विभागीय अधिकारी जोशीमठ आए और समस्याएं पूछ रहे थे तो तो नवीन बोलने लगा। नवीन भाई कभी बोलते नहीं थे। अधिकारी ने पूछा आज कैसे बोल रहे हो? उसने कहा आज खोने को कुछ नहीं है और मैं आज नहीं बोला तो मेरे आने वाली पीढ़ियाँ भी खोती रहेंगी।
यह बर्बादी केवल नवीन की नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड में जगह-जगह पर बांधों ने बर्बादी की है। 25 बांध टूटे हैं और उन टूटे बांधों के कारण जो तबाही आई है उसका तो आकलन अभी नहीं हो पाया है। गंगा गुस्से में थी, उसने कह दिया कि मुझे बांध नहीं चाहिए मुझे इस तरह के बंधन पूरी तरह अस्वीकार हैं। उसने न केवल विष्णुप्रयाग, अस्सीगंगा के 3 और फाटा-ब्योंग, सिंगोली-भटवाड़ी बांधों को उड़ा दिया बल्कि उसकी गुस्से के शिकार नदी के किनारे रहने वाले लोगों में भी हुए जो नासमझी में कभी बांध के साथ हुआ करते थे। आज लामबगड़, पाण्डुकेश्वर, गोविंदघाट, पिनोला आदि गांव बांध के विरोध में खड़े हैं। उनका कहना है हमको पहले सुरक्षा चाहिए। बांधों के ये असमय बम नही चाहिए।
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