उत्तराखंड

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प्रकृति विदोहन के साथ-साथ मानवाधिकारों का हनन
Posted on 10 Dec, 2015 04:15 PM

विश्व मानवाधिकार दिवस, 10 दिसम्बर पर विशेष


मनुष्य और प्रकृति का वैसे तो चोली दामन का साथ है पर वर्तमान में मनुष्य प्रकृति के साथ अपने स्वार्थवश क्रूर हो गया है। कारण इसके मानवकृत आपदाएँ सर्वाधिक बढ़ रही है। अर्थात् विश्व मानव अधिकार दिवस की महत्ता तभी साबित होगी जब मनुष्य फिर से प्रकृति प्रेमी बनेगा। ऐसा अधिकांश लोगों का मानना है।
गंगा सफाई का छेड़ा अभियान
Posted on 10 Dec, 2015 01:26 PM
हरिद्वार के युवाओं की इस टोली ने गंगा सफाई के लिये जो अभियान चलाया है, उसका प्रभाव गहरा होगा। ऐसी कोशिश देश के अन्य भागों में भी हो रही हैं। यदि गंगा सफाई का अभियान बड़े जन-अभियान का स्वरूप धारण कर ले तो निर्मल गंगा कोई असंभव कार्य नहीं रह जाएगा।
जल, जंगल और जमीन का संरक्षण और दोहन विकास के महत्त्वपूर्ण पायदान : हरीश रावत
Posted on 10 Dec, 2015 10:05 AM

उत्तराखण्ड के मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत को पंडित नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे अधिक अनुभवी राजनेता माना जाता है। हरीश रावत का मानना है कि इस प्रदेश के विकास की गाड़ी गाँवों से होते हुए ही मंजिल तक पहुँच सकती है। उनका यह भी मानना है कि गाँवों की आर्थिकी सुधारने और शिक्षा तथा चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाएँ पहाड़ के गाँवों तक पहुँचाए बिना पलायन रोकना सम्भव नहीं है और इसीलिये उनकी सरकार मैगी

समूह से मिले हाथ, तो पानी की किल्लत से निजात
Posted on 09 Dec, 2015 10:07 AM यूँ तो उत्तराखण्ड में पेयजल की किल्लत हर गाँव में मौजूद है परन्तु यहाँ हम पौड़ी जनपद के यमकेश्वर ब्लॉक के अर्न्तगत किमसार क्षेत्र के रामजीवाला गाँव की पानी से जुड़ी कहानी को प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मौका मिला हिमकॉन संस्था से जुड़े राकेश बहुगुणा के मार्फत। वे इस गाँव में पाँच-पाँच हजार ली.
एक संवाद ‘हिमालय के जलस्रोतों और बीजों का संरक्षण व संवर्धन’
Posted on 08 Dec, 2015 01:45 PM

दिनांक- 27-29 अक्टूबर 2015


जलसंरक्षण के लिये किये गए प्रयासों को देखने के लिये सभी लोग हेंवलघाटी के श्री दयाल सिंह भण्डारी के घर पर गए। जहॉं पर उन्होंने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व तक उन्हें पानी के लिये कितना संघर्ष करना पड़ता था। उन्होंने घर के पास में पुराने जलस्रोत की देखभाल और उपचार शुरू किया। वहॉं पर बांज और जल संरक्षण वाले वृक्षों का रोपण किया। जलस्रोत के आस-पास छेड़खानी नहीं होने दी। उनके द्वारा 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और जलस्रोत पुनर्जीवित हुआ। आज पूरे परिवार को पेयजल, घरेलू उपयोग का पानी, सिंचाई और एक मछली के तालाब के लिये पर्याप्त पानी दयाल सिंह भण्डारी के परिवार के पास उपलब्ध है। पर्वतीय समाज ने सदियों से अपने संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर जीवन जीया है। जल, जंगल, ज़मीन, खेती और पशुपालन पर्वतीय जीवन की धुरी रहे हैं। जीवन के इन संसाधनों को संरक्षित, संवर्धित व सजाने सँवारने के लिये समाज में अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं, परम्पराओं और रीति रिवाजों की संस्कृति रही है।

पर्वतीय समाज आपसी व्यवहार और समृद्ध सामाजिक रिश्तों की बुनियाद पर अपनी आजीविका चलाता रहा है। इसमें बाजार और पूँजी की भूमिका नगण्य थी। प्रकृति के दोहन के बजाय शोषण की प्रवृत्ति में निरन्तर वृद्धि हो रहा है। बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है।

इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है। खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है।
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