दिनांक- 27-29 अक्टूबर 2015
जलसंरक्षण के लिये किये गए प्रयासों को देखने के लिये सभी लोग हेंवलघाटी के श्री दयाल सिंह भण्डारी के घर पर गए। जहॉं पर उन्होंने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व तक उन्हें पानी के लिये कितना संघर्ष करना पड़ता था। उन्होंने घर के पास में पुराने जलस्रोत की देखभाल और उपचार शुरू किया। वहॉं पर बांज और जल संरक्षण वाले वृक्षों का रोपण किया। जलस्रोत के आस-पास छेड़खानी नहीं होने दी। उनके द्वारा 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और जलस्रोत पुनर्जीवित हुआ। आज पूरे परिवार को पेयजल, घरेलू उपयोग का पानी, सिंचाई और एक मछली के तालाब के लिये पर्याप्त पानी दयाल सिंह भण्डारी के परिवार के पास उपलब्ध है। पर्वतीय समाज ने सदियों से अपने संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर जीवन जीया है। जल, जंगल, ज़मीन, खेती और पशुपालन पर्वतीय जीवन की धुरी रहे हैं। जीवन के इन संसाधनों को संरक्षित, संवर्धित व सजाने सँवारने के लिये समाज में अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं, परम्पराओं और रीति रिवाजों की संस्कृति रही है।
पर्वतीय समाज आपसी व्यवहार और समृद्ध सामाजिक रिश्तों की बुनियाद पर अपनी आजीविका चलाता रहा है। इसमें बाजार और पूँजी की भूमिका नगण्य थी। प्रकृति के दोहन के बजाय शोषण की प्रवृत्ति में निरन्तर वृद्धि हो रहा है। बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है।
इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है। खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है।
पर्वतीय समाज और हिमालय के पारिस्थितिकी पर घिरते संकट के बादलों के समाधान का एकमात्र विकल्प अपनी जड़ों की ओर लौटना है। अपनी जड़ों को संरक्षित कर भावी पीढ़ी को सवंर्धित करने के प्रयास करने होंगे। प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन को आत्मनिर्भर बनाने की परम्परागत व्यवस्थाओं को नए सन्दर्भों में समझते हुए अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जो जीवन और प्रकृति को स्थायित्व दे सके।
इस ओर बढ़ने के लिये हमारे सम्मुख अपने बीजों और जलस्रोतों को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। समाप्त होते बीज और सूखते जलस्रोत पर्वतीय समाज के लिये एक बड़ा खतरा साबित होंगे। बीजों और जलस्रोतों को संरक्षित व संवर्धित करने के लिये विभिन्न स्तरों पर अनेकों साथियों द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं।
इस सन्दर्भ में एक बेहतर सामूहिक समझ व ठोस रणनीति बनाने के लिये एक तीन दिवसीय संवाद का आयोजन दिनांक 27-29 अक्टूबर 2015 को जागृति भवन, खाड़ी, टिहरी गढ़वाल में किया गया। संवाद में चर्चाओं, जनगीतों, लोकगीतों, गीत नाटिकाओं, लोककला, पारम्परिक व्यंजनों के स्वाद के साथ पारम्परिक बीजों और जलस्रोतों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये संकल्प लिया गया।
27 अक्टूबर 2015
संवाद का आरम्भ पारम्परिक वाद्ययंत्रों के वादन एवं मांगल गीतों के वादन से किया गया। जागृति संस्थान के सचिव श्री फूलदास डौंडिया के नेतृत्व में दिनेश दास, मकान दास, राकेश दास के ढोल, दमाऊ व मस्काबाजा वादन एवं अशुरूपी देवी के मांगल गीतों के गायन से हुआ। लोक कलाकारों द्वारा धुयाँल बजाकर संवाद के आरम्भ का शंखनाद किया गया।
मांगल गीतों के माध्यम से खोली का गणेश, मोरी का नारैण, पंचनाम द्यबता एवं नौ कुली पितरों का आह्नवान किया गया। स्थानीय लोक देवी कुंजापुरी के जागर ‘‘दैणी ह्नैजा, दैणी ह्नैजा, माता कुंजापुरी, कुंजणी कुजापुरी’’ आफु जस लेई माता हमु जस देई और चैती गीत “धनी भगवान, लेन्दू तेरू नाम साँझ का सुबेर’’ एवं लक्ष्मी आश्रम कौसानी अल्मोड़ा की छात्राओं ने कुमाँउनी गीत ‘यो पहाड़ बसी जा मेरा प्राण’ से उपस्थित लोगों का मनमोहकर संवाद का खूबसूरत और पारम्परिक शुभारम्भ किया गया। इस दौरान प्रखर समाज सेविका सुश्री राधा भट्ट द्वारा परम्परा के संरक्षक लोक कलाकारों का तिलक करके स्वागत सम्मान किया गया।
हिमालय सेवा संघ के सचिव एवं जागृति संस्थान के संरक्षक मंडल के सदस्य मनोज पांडे एवं अरण्य रंजन द्वारा तीन दिवसीय संवाद की अवधारणा और पृष्ठभूमि रखते हुए बताया गया कि सामुदायिक अनुभवों और सरकारी रिपोर्टों के अनुसार पहाड़ के जलस्रोतों पर गम्भीर संकट है। बीजों के धीरे-धीरे लुप्त होने पर उनके द्वारा चिन्ता व्यक्त की गई।
संवाद को दिशा देते हुए प्रखर समाज सेविका और हिमालय सेवा संघ की अध्यक्ष सुश्री राधा भट्ट द्वारा बीजों और जलस्रोतों का संरक्षण समय की आवश्यकता माना गया। उन्होंने बताया कि बीजों की सम्पन्नता और समृद्ध जलसंस्कृति हमारी अस्मिता और पहचान रहे हैं।
हम पहाड़ के लोगों का पहाड़ से लगाव कम हो रहा है सब लोग देहरादून बसना चाहते हैं राज्य बनाने के उद्देश्य तो अपनी ज़मीनी पहचान से जुड़ना था। इस पर संवाद की जरूरत है आज फिर वही हो रहा है जैसा देश में आज़ादी के समय था तब भी जड़ों से कटकर बहार देख रहे थे राज्य बनने पर उत्तराखण्ड में भी यही हुआ सवाल गम्भीर है संवेदनहीनता बढ़ रही है इसे जगाने की जरूरत है।
हरेक व्यक्ति सोचे मेरी जन्म व कर्मभूमि का उस पर कर्ज है उसे चुकाना है संकल्प ले अच्छा समाज व राज्य बनाए। उत्तराखण्ड तो पानी का विशाल भण्डार था पानी सूख रहा है चिन्ता करने की जरूरत है दूसरे की तरफ न देखें एवं कुछ पहल करें पानी की कीमत लोग ही समझ रहे हैं विकास की आज की धुन आज पानी का शोषण कर रही है।
आज भौतिक सुख सुविधा की होड़ में बीज और जल संसाधन का लुप्त होना हमारे आत्मसम्मान और पहचान पर संकट है। वरिष्ठ सर्वोदयी नेता और बीज बचाओ आन्दोलन के सूत्रधार श्री धूम सिंह नेगी अस्वस्थता के बावजूद संवाद में सम्मिलित हुए। अपने उद्बोधन में उन्होंने बीजों एवं जल संरक्षण को पहाड़ की पहली प्राथमिकता बताया और जोर देकर यह भी कहा कि बीज और पानी को आमजन एवं सामुदायिक प्रयासों से ही बचाया जा सकता है।
उत्तराखण्ड राज्य बाल संरक्षण आयोग एवं महिला कल्याण परिषद की उपाध्यक्ष श्रीमती लक्ष्मी गुंसाई ने स्थानीय उत्पादों और पारम्परिक जैविक पकवानों को स्वास्थ्य के लिये बेहद पौष्टिक मानते हुए अपनी रसोई को आरोग्य की पहली आवश्यकता बताया। उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि अपने स्वादों को बचाने का अधिक-से-अधिक प्रयास करना होगा तभी हमारी संस्कृति बच पाएगी और पहचान कायम रहेगी।
इस अवसर पर आपदा के बाद पहले पर्यटक दल को केदारनाथ ले जाने एवं लिम्का बुक में अपने कारनामों को दर्ज कर पहाड़ का नाम रोशन करने वाली शिवानी गुंसाई, वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा, गमंविनि के निदेशक विजयपाल रावत भी उपस्थित रहे। महिला समाख्या की बहनों ने जनगीत तथा कवि, लेखक एवं शिक्षक सोम्बारी लाल उनियाल ‘निशांत’ ने अपनी रचना ‘बीज महिमा’ का गायन/वाचन किया।
महिला नवजागरण समिति के मांगलम् समूह ने मांगलगीतों, लोकगीतों और पारम्परिक नृत्यों से सभी उपस्थित लोगों का मन मोह लिया। आकाशवाणी नजीबाबाद की पूर्व निदेशिका डॉ. माधुरी बर्त्वाल, सुप्रसिद्ध लोक गायिका सुश्री रेखा धस्माना उनियाल और महिला नव जागरण समिति की शशी रतूड़ी सहित देहरादून में निवास करने वाली गृहणियों के द्वारा बेहतरीन प्रस्तुतियाँ देकर साबित किया गया कि घर परिवार को सम्हालने के साथ ही रचनात्मक, सामाजिक सांस्कृति कार्यों को किया जा सकता है।
डॉ. माधुरी बर्त्वाल द्वारा मांगल एवं लोक गीतों के बारे में विशिष्ट जानकारियाँ दी गईं एवं सुश्री रेखा धस्माना उनियाल द्वारा पारम्परिक लोकगीतों को अपनी मधुर आवाज़ में गाया गया। मांगलम समूह की सदस्यों के द्वारा झुमैलो और चांचड़ी जैसे पारम्परिक नृत्यों पर लाजवाब प्रस्तुतियों की दिल खोलकर तारीफ की गई।
28 अक्टूबर 2015
प्रथम सत्र में पारम्परिक और जैविक भोजन बनाने वाले समूण ‘टीम’ के सभी सदस्यों को देश भर से आये प्रतिभागियों के समक्ष परिचय करवाने के साथ ही उनके अनुभवों को सुना गया। जलस्रोतों पर घिरते संकट को हिमकान के राकेश बहुगुणा द्वारा अपने स्लाइड शो द्वारा दिखाया गया। राकेश बहुगुणा ने कहा कि हेंवल घाटी में वर्तमान के विकास ने 54 प्रतिशत जलस्रोतों पर प्रभाव डाला है। हेंवल घाटी में अब मात्र 28 प्रतिशत जल स्रोत ही बचे हैं।
बाबा फरीद इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, देहरादून के पर्यावरण विज्ञान के विभाग प्रमुख डॉ. आरबी. सिंह ने उनके द्वारा हेंवलघाटी के स्रोतों के ज़मीनी एवं रिमोट सेंसिंग द्वारा किये गए अध्ययन को स्लाइड के माध्यम से प्रस्तुत किया। जिसमें उन्होंने तेजी से समाप्त होते जलस्रोतों और सिमटते वनावरण को सेटेलाइट इमेज द्वारा समझाया गया।
लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून के पूरण बर्त्वाल ने बताया कि पारम्परिक ढंग से ही जल संरक्षण कारगर है। लोक विज्ञान संस्थान द्वारा इस दिशा में किये जा रहे कार्यों का स्लाइड प्रस्तुतिकरण किया गया।
संवाद की स्मारिका ‘पानी और बीज’ का विमोचन वरिष्ठ सर्वोदयी सुश्री राधा भट्ट, हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सुरेश भाई, इण्डिया वाटर पोर्टल हिन्दी के केसर सिंह, एनडीआरएफ के डिप्टी डायरेक्टर डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा, हिमालय सेवा संघ के सचिव मनोज पांडे एवं जम्मू-कश्मीर, असम, हिमाचल व उत्तराखण्ड के विभिन्न हिस्सों से आये प्रतिनिधियों द्वारा किया गया।
इण्डिया वाटर पोर्टल हिन्दी के सम्पादक केसर सिंह ने जल संरक्षण पर देश भर में हो रहे सामुदायिक प्रयासों पर प्रकाश डालते हुए जल संरक्षण के परम्परागत तरीकों के महत्त्व को समझाया। उन्होंने यह भी बताया कि समुदाय अपने स्तर से जिन कार्यों को कर सकता है वह किसी भी सरकारी/गैरसरकारी योजना से पूरा नहीं हो सकता है। उनके द्वारा उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में समुदाय की सहभागिता से जल संरक्षण हेतु तालाबों के निर्माण के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया।
जिन गॉंवों में तालाब बन गए हैं, वहॉं पर लोग जल संसाधन के लिये आत्मनिर्भर हो गए हैं। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हिमालयी शिक्षण संस्थान, मातली के सुरेश भाई ने कहा कि भारत का जल स्तम्भ कहा जाने वाला उत्तराखण्ड जल संकट से जूझ रहा हो तो अन्य क्षेत्रों की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। नदियों में पानी तब ही रहेगा जब हमारे जलस्रोत बचे रहेंगे।
हिमालय और यहॉं के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण संवर्धन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट नीति बननी आवश्यक है। सुरेश भाई ने इसके लिये सभी उपस्थित जनों का आह्वान किया। राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल के डिप्टी डायरेक्टर एवं आईआईटी, कानपुर के मेटलर्जी मैथेमेटिक्स विज्ञान के विभागाध्यक्ष डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा ने जल की महत्ता पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक विधि से पानी तैयार किया जा सकता है, लेकिन उसकी कीमत इतनी अधिक है कि इंसान को अपने आप को खोना पड़ सकता है।
लिहाजा जल के संरक्षण की जो लोक परम्परा है वही मजबूत और कारगर है। महिला समाख्या की राज्य परियोजना निदेशक सुश्री गीता गैरोला ने बचपन को याद करते हुए बताया कि लोगों के पास बीजों को सुरक्षित और व्यवस्थित संजोए रखने की समृद्ध परम्परा थी। जिसे हमने अपने तथाकथित पढ़े-लिखे होने के गुमान पर भुला दिया है।
जल संरक्षण की एक पूरी परम्परा और संस्कृति पूरे पहाड़ में रही है। उत्तराखण्ड महिला मंच एवं स्वराज अभियान की राज्य संयोजक सुश्री कमला पंत ने शिक्षा व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कहा कि बेहतर शिक्षा की होड़ में हम शिक्षा माफ़िया के चंगुल में फँसते जा रहे हैं।
बाल कल्याण समिति की सदस्य सुश्री प्रभा रतूड़ी ने सुख सुविधा और बच्चों को बेहतर शिक्षा के बहाने गॉंव, खेती और समाज से कटने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसे हालातों में बच्चों को न तो बेहतर शिक्षा मिल पा रही और न ही वे अपने परिवेश से जुड़े रह पा रहे हैं।
गॉंधी सेवा सेंटर, जम्मू-कश्मीर मेंढर से आये अब्दुल कयूम, के.एल. बंगोत्रा एवं नूर अहमद ने बताया कि बीज और जलस्रोतों के मुद्दे पर जम्मू-कश्मीर के हालात भी उत्तराखण्ड से जुदा नहीं हैं। जीवन को बचाने के लिये पारम्परिक जैविक बीजों और जलस्रोतों का संरक्षण सामुदायिक, सामूहिक और व्यापक स्तर पर करने के लिये ठोस पहल करनी आवश्यक है।
संवाद का निष्कर्ष निकालते हुए सुश्री राधा भट्ट ने कहा कि हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण को समझे बिना जिस विकास की अन्धी दौड़ में हम शामिल हो रहे हैं, आने वाला समय और अधिक घातक होने वाला है, जिसके लक्षण अभी से दिखाई दे रहे हैं। उत्तराखण्ड राज्य का विकास तभी सम्भव है जब गॉंव आबाद और सम्पन्न हों।
बीज और पानी के बिना गॉंव का जीवन सम्भव नहीं है। बीजों और जलस्रोतों के संरक्षण की जिम्मेदारी समाज को लेनी ही होगी। सभी काम सरकार पर नहीं छोड़े जा सकते। इस विचार को व्यापक स्तर पर ले जाने के लिये जम्मू-कश्मीर से उत्तरपूर्व तक पदयात्रा का निर्णय भी इस अवसर पर लिया गया।
रामलीला की चौपाइयों की तर्ज पर खेती, किसान और रोटी की महत्ता को लक्ष्मी आश्रम, कौसानी की छात्राओं द्वारा रोचक और मार्मिक मंचन किया गया। रोटी पर पहला हक किसान और खेती करने वाले का है।
आज के सन्दर्भों में रोटी पैदा करने वाला किसान ही अन्तिम छोर पर पड़ा हुआ है। दादा और नाती के चुटीले संवादों और तुकबन्दियों के जरिए जनजागरुकता के सन्देश को सरलता से देने में भी छात्राएँ कामयाब रहीं। हिमाचल की नाटी का रोचक प्रस्तुतिकरण कुल्लू से आई बहनों के द्वारा किया गया।
कस्थानीय छात्राओं और छात्रों के द्वारा लोकगीत और लोकनृत्य पेश किये गए। जम्मू-कश्मीर के अब्दुल कयूम की शायरी, जौनसार से आये सुभाश त्रेहान एवं देहरादून की दीपा गुप्ता का काव्य पाठ और आयोजक टीम के राजेन्द्र भण्डारी, फूलदास डौंडिया के पहाड़ी गीतों को भी सभी के द्वारा सराहा गया।
29 अक्टूबर 2015
जलसंरक्षण के लिये किये गए प्रयासों को देखने के लिये सभी लोग हेंवलघाटी के श्री दयाल सिंह भण्डारी के घर पर गए। जहॉं पर उन्होंने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व तक उन्हें पानी के लिये कितना संघर्ष करना पड़ता था। उनकी बेटी की शादी के समय पानी के लिये पूरा परिवार, पड़ोसी और रिश्तेदार तक परेशान रहे।
उन्होंने घर के पास में पुराने जलस्रोत की देखभाल और उपचार शुरू किया। वहॉं पर बांज और जल संरक्षण वाले वृक्षों का रोपण किया। जलस्रोत के आस-पास छेड़खानी नहीं होने दी। उनके द्वारा 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और जलस्रोत पुनर्जीवित हुआ। आज पूरे परिवार को पेयजल, घरेलू उपयोग का पानी, सिंचाई और एक मछली के तालाब के लिये पर्याप्त पानी श्री दयाल सिंह भण्डारी के परिवार के पास उपलब्ध है।
सत्र का आरम्भ बाल संवाद के स्वयंसेवकों के द्वारा जनगीत गाकर किया गया। कुछ और गीत भी सभी प्रतिभागियों के द्वारा गाये गए। आज का सत्र संकल्प का सत्र रहा। सभी ने अपने घर वापस जाकर जलस्रोत और बीज संरक्षण के लिये विशिष्ट कार्य करने का संकल्प लिया। जौनसार से आये सुभाश त्रेहान ने बताया कि आजीविका की मजबूरी के कारण उन्हें दिल्ली रहना पड़ता है पर वे घर को भी उतना ही ध्यान देते हैं और सप्ताह में घर आने का प्रयास करते हैं।
अस्तित्व संस्था से आई दीपा कौशलम ने बताया कि उनकी पृष्ठभूमि शहर की रही है परन्तु उन्हें गॉंव की खुशबू का और वे अपने बेटे बेटी को भी गॉंव की ज़मीनी हकीक़त से रूबरू करवाने का प्रयास करती रहती हैं। अभियान एजुकेशनल सोसाइटी के चन्द्रमोहन भट्ट द्वारा उनके द्वारा चलाए जा रहे ‘एक बेटी एक पेड़’ अभियान के बारे में वर्तमान स्थिति को रखते हुए बताया गया कि खान-पान और संस्कृति के साथ ही त्यौहार भी हमारे नहीं रहे।
अपार संस्था पिथौरागढ़ से आये सुभाष जोशी ने अपने क्षेत्र के समाप्त होते जलस्रोतों की स्थिति को बताते हुए अपने क्षेत्र के एक गॉंव के जलस्रोतों को बचाने के सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया। धारा संस्था, बागेश्वर से आये बिशन सिंह रजवार ने अपना अनुभव बताया कि सरकारी योजनाओं में जलस्रोतों पर पेयजल लाइन निर्माण के समय सिमेंट का उपयोग करने से कई जलस्रोत समाप्त हो रहे हैं। उन्होंने अपने गॉंव के जलस्रोत को सुधारने का संकल्प लिया।
किसान संघ टिपली के अध्यक्ष रणवीर सिंह रौतेला ने बताया कि वे दिल्ली में नौकरी करते थे परन्तु शहर की जिन्दगी रास न आने के कारण गॉंव वापस आये और अपनी खेतीबाड़ी की ओर ध्यान दिया, सब्जी उत्पादन को अपनाया। आज उनके साथ गॉंव के कई और लोग सब्जी उत्पादन और खेती से अपनी आजीविका चला रहे हैं। वे भी स्वयं पन्द्रह से बीस हजार रुपए महीना कमाते हैं जो दिल्ली की लाख रुपए की नौकरी से कहीं ज्यादा फायदेमंद है।
कासा, कुल्लू हिमाचल से आई मीना पंवार ने बताया कि इन तीन दिनों का अनुभव उनके लिये बहुत अच्छा रहा और अब वे घर जाकर अपने गॉंव के स्रोतों को संरक्षित करने की मुहिम को अंजाम देंगी। दयाल सिंह भण्डारी ने अपने जलस्रोत संरक्षण के अनुभव को सभी के साथ साझा किया।
सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता राजेन्द्र भण्डारी ने अरण्य रंजन को साथ लेते हुए अपने दोनों गाँवों के संयुक्त जलस्रोत को संरक्षित करने के प्रस्ताव के साथ आपस के लगे हुए खेतों में साझा खेती का संकल्प प्रस्तुत किया। अरण्य रंजन ने राजेन्द्र भण्डारी के संकल्प को सहर्ष स्वीकार करते हुए संयुक्त खेती में दोनों के परिवारों का साझा सहयोग लेकर बेहतर आदर्श प्रस्तुत करने का संकल्प लिया।
एनडीआरएफ की डिप्टी डायरेक्टर डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा ने पानी और बीज की महत्ता को समझते हुए इनके संरक्षण व संवर्धन के प्रयासों को उनके स्तर से हर सम्भव सहयोग देने का आश्वासन दिया गया। इसके साथ उन्होंने जरूरतमंद बालिका की उच्च शिक्षा का सम्पूर्ण खर्च एनडीआरएफ से करवाने का वायदा भी किया।
हिमकान के राकेश बहुगुणा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जलस्रोतों को बचाने का यह एक मात्र सही समय बचा है अगर अभी शुरुआत नहीं की तो आने वाला समय ज्यादा संकट और खतरों से भरा होगा।
इण्डिया वाटर पोर्टल हिन्दी के सम्पादक केसर सिंह ने जल संरक्षण के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि जल और बीज संरक्षण के लिये सरकारी योजनाओं और अनुदानों का इन्तजार नहीं करने हैं। समुदाय यह कार्य कहीं बेहतर ढंग से कर सकता है।
शिवानन्द आश्रम से आये स्वामी रामस्वरूपानन्द ने जलस्रोत व बीज संरक्षण को समय की आवश्यकता बताया। उन्होंने यह भी बताया कि दिवंगत स्वामी चिदानन्द जी के शताब्दी वर्ष के अवसर पर ऋषिकेष से गंगोत्री तक गंगा नदी के आस-पास के गॉंवों में विभिन्न प्रकार के वृक्षों का रोपण किया जाएगा।
रानीचौरी से आये विमल बहुगुणा ने बताया कि गॉंव का जीवन ही असली जीवन है। उन्होंने बताया कि देश-विदेश में विभिन्न प्रकार की नौकरी करने के बाद भी गॉंव के जीवन वाला सुकून नहीं मिल पाता, परन्तु यह बात गॉंव में रहने वाले लोग नहीं समझ पा रहे हैं और शहरों की ओर पलायन की होड़ में लगे हैं।
सुश्री राधा भट्ट जी ने तीनों दिन के संवाद को सहेजते हुए कहा कि जलस्रोत और बीजों का संरक्षण वर्तमान और भविष्य के लिये बुनियादी काम है। तीनों दिन के संवाद को निम्नलिखित बिन्दुओं की कार्ययोजना में परिवर्तित किया गया।
संवाद के समापन के अवसर पर सुश्री राधा भट्ट जी द्वारा जनगीत गाया गया जिसमें सभी ने प्रतिभाग किया। इसके पश्चात काफी देर तक जनगीत, लोकगीत और कविताओं का सिलसिला चलता रहा।
अरसे पूरे संवाद के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रहे। दो दिन पूर्व 25 अक्टूबर को गॉंव की महिलाओं को पिठु कूटने के लिये न्योता (आमंत्रित) गया। पारम्परिक ढंग से ओखल्यारा (ओखली) पूजन के बाद 5 गॉंवों की 12 महिलाओं के द्वारा 11 पथा (22 किलो) भीगे चावल को ओखल्यारे में कूटा गया।
महिलाओं के अनुसार अरसे के चावल की मात्रा विषम संख्या में होनी चाहिए तथा चावल की मात्रा पारम्परिक मापक पाथे द्वारा की जाती है। पिठू कूटने के बाद गॉंव के जानकार व्यक्तियों द्वारा चूर (भट्टी) तैयार की गई। चूर पूजन के पश्चात गुड़ की भेली के टुकड़ों को पानी की निश्चित मात्रा के साथ आँच पर पिघला कर ताक बनाई गई। ताक को चूर से उतारकर उसमें पिठू व स्वाद के लिये थोड़ा सा सौंफ मिलाया गया।
कुछ जवानों और जानकारों के द्वारा पिठु को ताक में एक निश्चित समय तक बढ़े ताछों से मिलाया गया। ताक को आदर्श स्थिति में लाने के पश्चात छोटे बर्तनों में तेल के साथ भरा गया। थोड़ी देर बाद कढ़ाही में तेल गरम होने के पश्चात ताक से गोल पतले और चपटे आकार के अरसे तलने शुरू किये। तलने के बाद परात जैसे चौड़े बर्तन में थोड़ी देर रखकर पतीले में ढँककर रखा गया। अरसे ढँककर आपस की गर्मी से भी धीरे-धीरे पकते हैं।
अरसे बनने के पश्चात् बनाने में शामिल सभी लगभग 25-30 लोगों को 4-4 अरसे का बीड़ा बॉंधकर दिया गया। जो भी लोग अरसा बनाने में सम्मिलित होते हैं उन्हें अरसे का बीड़ा देना लोक परम्परा का हिस्सा है। अगले दिन से सभी लोगों ने अरसों का जमकर लुत्फ उठाया। सभी प्रतिभागियों को स्मृति स्वरूप अरसे का बीड़ा संवाद के समापन अवसर पर दिया गया।
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Post By: RuralWater