अरण्य रंजन

अरण्य रंजन
उत्तराखण्ड में वनाग्नि के कारण
Posted on 16 Jun, 2017 11:43 AM
गत वर्ष के उत्तराखण्ड के वन फरवरी माह से जुलाई प्रथम सप्ताह तक जलते रहे हैं, और बढ़ा वन क्षेत्र खतरे की जद में आया है। तेजी से फैली जंगल की आग ने आपदा का रूप धारण करके 9 लोगों के जीवन को लील लिया जो अक्सर मानवीय हस्तक्षेप से अधिक फैलती और आग का पैमाना कम नहीं हो पाता है। इस वर्ष उत्तराखण्ड में वनाग्नि की भयावहता ने खतरनाक स्तर छुआ और वनस्पति, जीवों को नुकसान पहुँचाया व मानव जीवन भी खतरे में प
एक हठी सर्वोदयी की मौन विदाई
Posted on 02 Feb, 2017 04:00 PM

खादी का भगवा रंग का ऊनी गरम कोट व उसके अन्दर से चटख सफेद कुर्ता पायजामा, सिर में कोट के रंग की टोपी और पैरों में कपड़े के जूते पहने कन्धे पर पिट्ठूनुमा छोटा बैग लटकाये और हाथ में छोटी अटैची पकड़े भट्ट जी अधिकांश बैठकों में मिल जाते थे। बैग में कपड़े और अटैची में पूरा दफ्तर रहता था। बैठक में आते ही पीठ टिकाने के लिये दीवार के सहारे बैठ जाते थे। बैठक शुरू होते ही भट्ट जी सो जाते थे। मैं अक्सर
एक संवाद ‘हिमालय के जलस्रोतों और बीजों का संरक्षण व संवर्धन’
Posted on 08 Dec, 2015 01:45 PM

दिनांक- 27-29 अक्टूबर 2015


जलसंरक्षण के लिये किये गए प्रयासों को देखने के लिये सभी लोग हेंवलघाटी के श्री दयाल सिंह भण्डारी के घर पर गए। जहॉं पर उन्होंने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व तक उन्हें पानी के लिये कितना संघर्ष करना पड़ता था। उन्होंने घर के पास में पुराने जलस्रोत की देखभाल और उपचार शुरू किया। वहॉं पर बांज और जल संरक्षण वाले वृक्षों का रोपण किया। जलस्रोत के आस-पास छेड़खानी नहीं होने दी। उनके द्वारा 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और जलस्रोत पुनर्जीवित हुआ। आज पूरे परिवार को पेयजल, घरेलू उपयोग का पानी, सिंचाई और एक मछली के तालाब के लिये पर्याप्त पानी दयाल सिंह भण्डारी के परिवार के पास उपलब्ध है। पर्वतीय समाज ने सदियों से अपने संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर जीवन जीया है। जल, जंगल, ज़मीन, खेती और पशुपालन पर्वतीय जीवन की धुरी रहे हैं। जीवन के इन संसाधनों को संरक्षित, संवर्धित व सजाने सँवारने के लिये समाज में अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं, परम्पराओं और रीति रिवाजों की संस्कृति रही है।

पर्वतीय समाज आपसी व्यवहार और समृद्ध सामाजिक रिश्तों की बुनियाद पर अपनी आजीविका चलाता रहा है। इसमें बाजार और पूँजी की भूमिका नगण्य थी। प्रकृति के दोहन के बजाय शोषण की प्रवृत्ति में निरन्तर वृद्धि हो रहा है। बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है।

इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है। खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है।
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