श्रीनगर जिला

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कश्मीर की दूधगंगा
Posted on 26 Feb, 2011 03:16 PM
सतीसर नामक पौराणिक सरोवर को तोड़कर ही तो कश्मीर का प्रदेश बना हुआ है, झेलम नही मानों इस उपत्यका की लंबाई और चौड़ाई को नापती हुई सर्पाकार में बहती है। इसके अलावा जहां नजर डालें वहां कमल, सिंघाड़े तथा किस्म-किस्म की साग-सब्जी पैदा करने वाले ‘दल’ (सरोवर) फैले हुए दीख पड़ते हैं। जिस वर्ष जल-प्रलय न हो वही सौभाग्य का वर्ष समझ लीजिये ऐसे प्रदेश में गाड़ी के संकरे रास्ते जैसे छोटे प्रवाह को भला पू
खतरे में वादी की झीलें
Posted on 29 Jun, 2010 12:22 PM


अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में मशहूर डल झील के वजूद पर हर रोज खतरा बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण और बेहतर रखरखाव न होने की वजह से डल की सूरत बिगड़ रही है। सरकार के साथ-साथ स्थानीय लोगों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह है। डल झील के हालात का जायजा ले रहे हैं - पंकज चतुर्वेदी।

Lake
गंगा की अविरलता जरूरी
Posted on 23 May, 2019 11:45 AM

जल पुरूष राजेन्द्र सिंह ने कहा कि गंगा की अविरलता के लिए अब पूरे देश में जन-जागृति शुरु कर दी है। गंगा की अविरलता के लिए देश की नई सरकार एवं सांसदों से मिलजुल कर कार्य किया जाएगा। यदि इसके बाद भी कार्यवाही नहीं होती है, तो गंगा के लिए सत्याग्रह किया जाएगा।

ganga
घाटी में कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता
Posted on 24 Feb, 2015 12:56 AM जब हम कश्मीर घाटी में कृषि के बारे में बात करते हैं तब इसका मतलब श्रीनगर सहित अनन्तनाग, बारामूला, बडगाम, कुपवारा और पुलवामा जिलों में कृषि के क्षेत्र में हुई प्रगति और बढ़ती क्षमता से होता है। जैसा कि सर्वविदित है कि जम्मू-कश्मीर क्षेत्र तीन प्राकृतिक क्षेत्रों में विभाजित है — जम्मू, कश्मीर घाटी और कारगिल व लेह। इन तीनों क्षेत्रों की जलवायु क्रमशः ऊष्ण, शीत
त्रासदी में तोहमत के तीर
Posted on 28 Sep, 2014 09:40 AM प्राकृतिक आपदाएं बगैर किसी पूर्वानुमान व तैयारी के जब हम पर कहर ढा
मौसम बिगड़ने की अदृश्य चेतावनियां
Posted on 23 Sep, 2014 11:13 AM 21वीं सदी की शुरुआत में ही आए प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है
weather
विद्युत परियोजनाओं से तबाह होता ग्रामीण जन-जीवन
Posted on 12 Jul, 2014 02:48 PM प्राकृतिक संसाधनों के धनी क्षेत्र उत्तराखंड में पिछले कई वर्षों से संसाधनों की लूट मची है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही यह मंजर देखने को मिलता रहा है। कई पीढ़ियों से प्रकृति के साथ जी रहे यहां के जनमानस का जुड़ाव प्रकृति के साथ स्वाभाविक है। इसीलिए स्वार्थवश संसाधनों के दोहन के विरोध में उत्तराखंड के ग्रामीण आगे आते रहे हैं। यहां के ग्रामीणों का जीवन जल-जंगल व जमीन पर निर्भर है। इसके बावजूद
यह ऊर्जा प्रदेश नहीं मुर्दा प्रदेश बनने वाला है : सुशीला भंडारी
Posted on 26 Jun, 2014 05:12 PM 22 अगस्त 2012 को श्रीनगर गढ़वाल (उत्तराखड) में बड़े बांधों के विरोध में विभिन्न जनसंगठनों की एक गोष्ठी हुई, जिसमें रुद्रप्रयाग से सुशीला भंडारी भी आईं थीं। वहीं उनके साथ कमला पंत तथा उमा भट्ट की बातचीत हुई। रुद्रप्रयाग जिले के जखोली ब्लॉक के स्यूरबांगर गांव के श्री मातबर सिंह नेगी तथा श्रामती मैनावती की पुत्री सुशीला का विवाह अगस्त्यमुनि के समीपस्थ गांव रायड़ी के श्री मदन सिंह भंडारी से हुआ। रु
रावण सुनाए रामायण
Posted on 28 Jun, 2013 09:46 AM
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेगा।

हमारे समाज ने गंगा को मां माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी। पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। प्रकृति का कैलेंडर और हमारे घर-दफ्तरों की दीवारों पर टंगे कैलेंडर/काल निर्णय/पंचाग को याद करें बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। हमारे कैलेंडर/संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। आज हम गंगा नदी पर बात करने यहां जमा हुए हैं तो हमें प्रकृति का, भूगोल का यह कैलेंडर भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम हमारा आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए।

गंगा मैली हुई है। उसे साफ करना है। सफाई की अनेक योजनाएं पहले भी बनी हैं। कुछ अरब रुपए इसमें बह चुके हैं- बिना कोई परिणाम दिए। इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएं बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए।

बेटे-बेटियां जिद्दी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री हो सकते हैं पर अपने यहां प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती, तो जरा सोचें कि जिस गंगा मां के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने कोई 30-40 बरस से प्रयत्न कर रहे हैं - वहां भी साफ क्यों नहीं होती।
Book cover Anupam Mishra
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