मौसम बिगड़ने की अदृश्य चेतावनियां

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21वीं सदी की शुरुआत में ही आए प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है कि मौसम का क्रूर बदलाव ब्रह्मांड की कोख में अंगड़ाई ले रहा है। अनियंत्रित औद्योगिक विकास, नदियों का बिजली के लिए दोहन और उपभोग आधारित जीवन शैली इसी तरह बेलगम रही तो प्रकृति की विनाश लीला थमने वाली नहीं है। मानव निर्मित आपदाओं से जुड़ी इन चेतावनियों का दुखद पहलू यह है कि प्राकृतिक संपदा के दोहन पर निर्भर इस कथित विकास से मुंह मोड़ने को हम इन दुष्परिणामों के बावजूद तैयार नहीं हैं..अभी देश सवा साल पहले उत्तराखंड त्रासदी से उभर भी नहीं पाया था कि दुनिया का स्वर्ग माना जाने वाला जम्मू-कश्मीर राज्य को नदियों की बाढ़ ने नरक में बदल दिया। वर्षा की तीव्रता ऐसी मुसीबत बनी कि देखते-देखते स्वर्ग की धरती पर इठलाती-बलखाती नदियों झेलम, चिनाब और तवी ने अपनी प्रकृति बदलकर रौद्र रूप धारण कर लिया। बाढ़ की ऐसी विकट तबाही मची कि राज्य का जर्रा-जर्रा विनाश की कुरूपता में तब्दील हो गया। राज्य सरकार का तंत्र पंगु हो गया। भेद का राग अलापने वाले अलगाववादियों की बोलती बंद है। स्थानीय सरकार किसी भी उम्मीद पर खरी नहीं उतरी। केंद्र सरकार ने समय पर सतर्कता न बरती होती तो जनहानि का मंजर देखते नहीं बनता। इस बर्बादी को प्राकृतिक आपदा माना जाए या कथित आधुनिक विकास की देन, यह संशय बना रहेगा। इस कथित विकास की बुनियाद प्रकृति के दोहन पर टिकी है। गोया विकास के राजनीतिक पुरोधा कैसे मानेंगे कि यह आपदा मानव-निर्मित है? सेना द्वारा युद्धस्तर पर चलाए जा रहे राहत और बचाव कार्य की समाप्ति के बाद जब पुनर्वास और पुनर्निर्माण का सिलसिला शुरू होगा तब अलगाववादी भी उसकी भूमिका में पेश आकर बाधाएं उत्पन्न करने लग जाएंगे।

घाटी में आई बाढ़ ने करीब 3000 ग्रामों को अपनी चपेट में लिया है। इनमें 390 ऐसे गांव हैं जो राज्य में फैली आवागमन व संचार-सुविधाओं से कट चुके हैं। जम्मू क्षेत्र में करीब 4500 गांव प्रलय की चपेट में हैं। हालांकि इनमें 1010 गांवों पर प्रकोप का असर कम है। बावजूद केसर, अखरोट और सेव की फसलें चौपट हैं, जब तक पूरी तरह पानी नदियों के किनारों के बीच नहीं समा जाएगा, तब तक यह कहना मुश्किल है कि पशुधन किस हाल में है? अनुमान यही है कि बड़ी संख्या में पशु मरे हैं। लिहाजा राज्य को दूध और बचे मवेशियों के लिए चारे के संकट से भी दो-चार होना पड़ेगा।

उत्तराखंड की त्रासदी तो एकाएक आई थी, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं हुआ। यहां के बाढ़ नियंत्रण मंत्रालय ने करीब चार साल पहले स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि आने वाले पांच साल के भीतर क्षेत्रीय नदियां किनारे तोड़ कर तबाही मचा सकती हैं। मंत्रालय की तबाही के संकेत की इस रिपोर्ट को यहां के अखबार ग्रेटर कश्मीर ने 11 फरवरी 2010 को प्रमुखता से छापा भी लेकिन राज्य व केंद्र सरकारें प्रभावी कार्रवाही से कमोवेश चूक गईं। आश्चर्य है कि खबर में पूरी कश्मीर के पानी में डूब जाने की भयावहता के संकेत दिए थे और अब हकीकत का आलम है कि समूचा कश्मीर पानी में डूबा हुआ है। रपट में ड़ेढ लाख क्यूसेक पानी नदियों द्वारा उड़ेलने की बात कही गई थी। इत्तफाक देखिए कि करीब पौने दो लाख क्यूसेक पानी ने इस अंचल को डूबो दिया है। ऐसी सटीक रिपोर्ट और खबरें भारत में कम ही देखने में आती हैं और आती भी हैं तो उन पर कोई भरोसा नहीं करता। इस रपट के साथ भी यही व्यवहार बरता गया। यहां सवाल उठता है कि जब हमें रिपोर्टों पर कोई कार्रवाही करनी ही नहीं है तो फिर तैयार ही क्यों कराते हैं?

यहां के बाढ़ नियंत्रण मंत्रालय ने करीब चार साल पहले स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि आने वाले पांच साल के भीतर क्षेत्रीय नदियां किनारे तोड़ कर तबाही मचा सकती हैं। मंत्रालय की तबाही के संकेत की इस रिपोर्ट को यहां के अखबार ग्रेटर कश्मीर ने 11 फरवरी 2010 को प्रमुखता से छापा भी लेकिन राज्य व केंद्र सरकारें प्रभावी कार्रवाही से कमोवेश चूक गईं। भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर यही साबित नहीं होते, लेकिन कुछ समय से उसकी भाविष्यवाणियां सच भी साबित होने लगी हैं। आंध्र प्रदेश में आए फेलिन तूफान के समय भी भविष्यवाणी सटीक बैठी थी। नतीजतन आपदा प्रबंधन के सार्थक प्रयास रंग लाए थे और फेलिन चक्रवात बड़ी जनहानि का कारण नहीं बन पाया था। इस बार मौसम विभाग ने कम और खंडित बारिश होने के संकेत दिए हैं। एलनिनो का प्रभाव भी जताया है। इन वजहों से कृषि पैदावार में कमी की आशंका पैदा हुई है। हालांकि कुछ राज्यों में सूखे के हालात बनने के बाद भारी वर्षा के कारण बाढ़ें आई हैं। तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओड़िशा बाढ़ की चपेट में पहले ही आ गए थे, अब जम्मू-कश्मीर और गुजरात है। बड़ौदा शहर में पानी भरा है। उत्तराखंड में तो भारी बारिश, भूस्खलन और पहाड़ों के खिसकने से इस साल भी हाल-बेहल रहे। केदारनाथ और बद्रीनाथ श्रद्धालु नहीं पहुंचे। महाराष्ट्र के मलिन गांव में तो ऐसा भूस्खलन आया कि समूचा मलिन गांव ही धरती में समा गया। जाहिर है, ये आपदाएं जलवायु परिवर्तन, मसलन वैश्विक तापमान के बढ़ते खतरे का संकेत दे रही हैं।

जम्मू-कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में इस बाबत सोचने की इसलिए जरूरत है, क्योंकि इससे पहले इतनी भीषण बाढ़ कभी नहीं आई। हालांकि 1902, 1948 और 1959 में वादी में बाढ़ें आई थीं, लेकिन तब घाटी पर्यटन के लिए किए विकास से अछूता था, इसलिए बाढ़ें प्रलयंकारी रूप में अवतरित नहीं हुई थीं। 1948 में आजादी के बाद जब पहली बार घाटी में बाढ़ आई तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस चेतावनी को भविष्य के लिए खतरनाक संकेत माना। लिहाजा इस चुनौती से निपटने के लिए ब्रिटिश इंजीनियरों से मदद ली गई। तब श्रीनगर के पदशाही बाग से वूलर तक करीब 42 किमी लंबा बाढ़ रोकने के लिए जल निकासी मार्ग बनाया गया। लेकिन सफाई नहीं होने के कारण यह जल-मार्ग अवरूद्ध है। लिहाजा जल की तेजी से निकासी नहीं हो पाई और झेलम का पानी पूरे श्रीनगर में फैल गया।

शायद इसीलिए जलवायु परिवर्तन संबंधी जो रिपोर्ट आई है, उसके सह प्रमुख क्रिस फील्ड ने कहा भी है कि जलवायु परिवर्तन व्यापाक रूप ले चुका है। अब यह भविष्य का संकट नहीं रह गया, बल्कि इसके दुष्परिणाम वर्तमान में ही सामने आने लगे हैं। यही कारण है कि पूरी दुनिया में प्राकृतिक आपदाएं देखने में आ रही हैं। ब्राजील, आस्ट्रेलिया, फिलिपस, मोजाम्बिक, थाईलैंड, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बाढ़ और भूस्खलन की निरंतरता बनी हुई है। अमेरिका में तूफान, बर्फबारी के कहर ढाए हुए हैं। भारत में भी पिछले एक दशक से आपदाएं कहर बरपा रही हैं।

तय है, 21वीं सदी की शुरुआत में ही आए प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है कि मौसम का क्रूर बदलाव ब्रह्मांड की कोख में अंगड़ाई ले रहा है। अनियंत्रित औद्योगिक विकास, नदियों का बिजली के लिए दोहन और उपभोग आधारित जीवन शैली इसी तरह बेलगाम रही तो प्रकृति की विनाश लीला थमने वाली नहीं है। मानव निर्मित आपदाओं से जुड़ी इन चेतावनियों का दुखद पहलू यह है कि प्राकृतिक संपदा के दोहन पर निर्भर इस कथित विकास से मुंह मोड़ने को हम इन दुष्परिणामों के बावजूद तैयार नहीं हैं..

(लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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Post By: pankajbagwan
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