जयपुर जिला

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गांवों के लिए भी बन रहा है मास्टर प्लान
Posted on 06 Aug, 2014 04:23 PM आजादी के बाद से ही हमारी सरकारों का पूरा फोकस शहरों की तरफ रहा। शहरों की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर मास्टर प्लान बनें, मगर गांव उनकी नजरों से उपेक्षित ही रहा। यही वजह है कि तरक्की की राह में आज गांव काफी पीछे छूट गए हैं। गांवों में न तो सड़कें दुरुस्त हैं और न ही बुनियादी सहुलियतों के लिए कोई जगह। शहरों के साथ-साथ यदि गांवों के लिए भी मास्टर प्लान बनता, तो उनकी भी तस्वीर कुछ और जुदा होती।
प्रदेश की नदियों को जोडऩे की योजना का खाका तैयार
Posted on 19 Jun, 2014 03:23 PM

सीएम की मंजूरी का इंतजार, योजना की प्रगति पर निगरानी के लिए विशेष प्रकोष्ठ गठित

लापोड़िया गांव : खबरों में नहीं बहा
Posted on 09 Nov, 2012 10:27 AM हम छोटे-छोटे लोगों ने जैसी छोटी-छोटी योजनाएं बनाईं, हमारे बड़े देवता इंद्र ने उनको अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया। और हमें जो प्रसाद बांटा है उसका हम ठीक-ठीक वर्णन भी आपके सामने नहीं कर पाएंगे। अब हमारे गांव में खूब अच्छी बरसात आए, तो आनंद आता है, बाढ़ नहीं आती। पानी तालाबों में भरता है, विशाल गोचर में थोड़ी देर विश्राम करता है, धरती के नीचे उतरता है। नीचे से धीरे-धीरे झिरते हुए गांव के कुंओं में उतरता है। हमारे यहां तब तक पानी गिरा नहीं था। अगस्त का पहला हफ्ता बीत गया था। आसपास, दूर-दूर सूखा ही सूखा था। सूखा राहत का काम भी शुरू हो रहा था कि अगले दिन बरसात आ गई। सात अगस्त 2012 तक सूखा। और ये लो भई आठ अगस्त से राजस्थान में राजधानी जयपुर समेत दूर-दूर बाढ़ आ गई। बाढ़ राहत की मांग उठने लगी और वह काम भी शुरू हो गया!
इजराइली सहयोग की फसल
Posted on 24 Aug, 2012 03:06 PM इजराइल के सहयोग से भारत के कई सूखे इलाकों में इजराइली जल तकनीकों का इस्तेमाल कर फसल उगाने की कोशिश हो रही है और कोशिश कामयाबी की मिसाल भी बनती जा रही है। बीकानेर , महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों, हरियाणा के राजस्थान से जुड़े इलाकों में इजराइली जल तकनीकों से भरपूर फसल ली जा रही है। कामयाबी की नई इबारत के बारे में बता रहे हैं कुणाल मजूमदार।

राजस्थान में हुए इस प्रयोग से उत्साहित इजराइल अब पूरे देश में खेती और बागवानी के अलग-अलग क्षेत्रों में यही सफलता दोहराने की तैयारी में है। इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया भी जा चुका है जब 2008 में दोनों देशों के लिए बीच एक कृषि सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए। दिसंबर, 2011 में भारत और इजराइल के कृषि मंत्रालयों ने तीन साल की एक योजना को आखिरी स्वरूप दिया। इसमें कृषि विशेषज्ञों के संयुक्त दौरे, परिचर्चाएं और किसानों के लिए कोर्स जैसी चीजें शामिल हैं।

राजस्थान के बीकानेर से दक्षिण-पूर्व की तरफ बढ़ने पर हर तरफ या तो रेत पसरी नजर आती है या फिर छोटी-मोटी झाड़ियां।
जल संकट दूर करने के सफल प्रयास
Posted on 16 Feb, 2012 11:27 AM

कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इससे लगभग 50 कुओं का जल स्तर ऊपर उठ गया। अनेक हैंडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला। कोरसीना के एक मुख्य कुएं से पाइपलाइन अन्य गांवों तक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है।यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त कर पाई तो इसका लाभ 20 गांवों के लोगों, किसानों को मिल सकता है। इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जंतुओं, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है।

जहां किसी महानगर के पॉश इलाकों में मात्र एक फ्लैट की कीमत एक करोड़ रुपए तक पहुंच रही है, वहां इससे भी कम धन राशि में पेयजल संकट झेल रहे 40 गांवों के लगभग 50,000 लोगों व 1,50,000 पशुओं का संकट दूर किया जा सकता है, पर इसके लिए जरूरी है स्थानीय गांववासियों की भागेदारी से काम करना। यह अनुकरणीय उदाहरण राजस्थान के जयपुर व अजमेर जिलों में तीन स्वैच्छिक संस्थाओं ने प्रस्तुत किया है। कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांवों में पेयजल का संकट इतना बढ़ गया था कि कुछ वर्षों में इन गांवों के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न होने वाला था। दरअसल, राजस्थान के जयपुर जिले (दुधू ब्लॉक) में स्थित यह गांव सांभर झील के पास स्थित होने के कारण खारे पानी के असर से बहुत प्रभावित हो रहे थे। इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवों में खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है।
नरेगा के जमीनी समीकरण- सामाजिक अंकेक्षण और सरपंच
Posted on 11 Nov, 2010 09:05 AM सुख अकेले टहलते हैं,दुःख झुंड बनाकर रहते हैं।सुख चेहरे से छलकता है,दुःख चेहरे पर जमा रहता है।सुखों के लिए चौराहे होते हैं और दुःखों के लिए वह कोना जहां किसी की गुजर ही नहीं। गुलाबी नगरी जयपुर में गुजरे 15 दिसंबर को स्टेशन से लगते जीपीओ के पास बने शहीद स्मारक के घेरे में आलम कुछ ऐसा ही था।
नरेगा के जमीनी समीकरण- सामाजिक अंकेक्षण और सरपंच
Posted on 09 Nov, 2010 10:27 AM सुख अकेले टहलते हैं,दुःख झुंड बनाकर रहते हैं।सुख चेहरे से छलकता है,दुःख चेहरे पर जमा रहता है।सुखों के लिए चौराहे होते हैं और दुःखों के लिए वह कोना जहां किसी की गुजर ही नहीं। गुलाबी नगरी जयपुर में गुजरे 15 दिसंबर को स्टेशन से लगते जीपीओ के पास बने शहीद स्मारक के घेरे में आलम कुछ ऐसा ही था।
नरेगा के जमीनी समीकरण- सामाजिक अंकेक्षण और सरपंच
Posted on 29 Oct, 2010 08:56 AM सुख अकेले टहलते हैं,दुःख झुंड बनाकर रहते हैं।सुख चेहरे से छलकता है,दुःख चेहरे पर जमा रहता है।सुखों के लिए चौराहे होते हैं और दुःखों के लिए वह कोना जहां किसी की गुजर ही नहीं। गुलाबी नगरी जयपुर में गुजरे 15 दिसंबर को स्टेशन से लगते जीपीओ के पास बने शहीद स्मारक के घेरे में आलम कुछ ऐसा ही था।
संदर्भ राजस्थान: पानी के रास्ते में खड़े हम
Posted on 21 Sep, 2010 02:41 PM मौसम को जानने वाले हमें बताएंगे कि 15-20 वर्षो में एक बार पानी का ज्यादा होना या ज्यादा बरसना प्रकृति के कलेंडर का सहज अंग है। थोड़ी-सी नई पढ़ाई कर चुके, पढ़-लिख गए हम लोग अपने कंप्यूटर, अपने उपग्रह और संवेदनशील मौसम प्रणाली पर इतना ज्यादा भरोसा रखने लगते हैं कि हमें बाकी बातें सूझती ही नहीं हैं। वरूण देवता ने इस बार देश के बहुत-से हिस्से पर और खासकर कम बारिश वाले प्रदेश राजस्थान पर भरपूर कृपा की है। जो विशेषज्ञ मौसम और पानी के अध्ययन से जुड़े हैं, वो हमें बेहतर बता पाएंगे कि इस बार कोई 16 बरस बाद बहुत अच्छी वर्षा हुई है।

हमारे कलेंडर में और प्रकृति के कलेंडर में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को न समझ पाने के कारण किसी साल बरसात में हम खुश होते हैं, तो किसी साल बहुत उदास हो जाते हैं। लेकिन प्रकृति ऎसा नहीं सोचती। उसके लिए चार महीने की बरसात एक वर्ष के शेष आठ महीने के हजारों-लाखों छोटी-छोटी बातों पर निर्भर करती है। प्रकृति को इन सब बातों का गुणा-भाग करके अपना फैसला लेना होता है। प्रकृति को ऎसा नहीं लगता, लेकिन हमे जरूर लगता है कि अरे, इस साल पानी कम गिरा या फिर, लो इस साल तो हद से ज्यादा पानी बरस गया।

water rajasthan
एक उद्यमी किसान ऐसा भी
Posted on 12 Aug, 2010 09:16 AM किसानों की समस्याएं और सामाजिक कार्यों के चलते 1977 में निर्विरोध वार्ड पंच चुन लिया गया और 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। पूरे गांव की जमीन को एकत्रित कराकर जमीन की चकबंदी कराई और जमीन के टुकड़ों की समस्या को सदा के लिए दूर कर दिया।

मैंने होश संभाला तब पिताजी लाव-चरस से खेती करते थे। साठ बीघा जमीन थी लेकिन दो बीघा जमीन पर भी मुश्किल से खेती होती थी। ‘भारतीय कृषि मानसून का जूआ है।’ यह उन दिनों बिल्कुल सटीक बैठती थी। सातवीं कक्षा में ही बालक कैलाश के हाथ से कागज कलम छूट गये और हल फावड़े ने उसकी जगह ले ली। वक्त हाथ में कैद मिट्टी के कणों की तरह धीरे-धीरे फिसलता रहा।
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