लापोड़िया गांव : खबरों में नहीं बहा

हम छोटे-छोटे लोगों ने जैसी छोटी-छोटी योजनाएं बनाईं, हमारे बड़े देवता इंद्र ने उनको अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया। और हमें जो प्रसाद बांटा है उसका हम ठीक-ठीक वर्णन भी आपके सामने नहीं कर पाएंगे। अब हमारे गांव में खूब अच्छी बरसात आए, तो आनंद आता है, बाढ़ नहीं आती। पानी तालाबों में भरता है, विशाल गोचर में थोड़ी देर विश्राम करता है, धरती के नीचे उतरता है। नीचे से धीरे-धीरे झिरते हुए गांव के कुंओं में उतरता है। हमारे यहां तब तक पानी गिरा नहीं था। अगस्त का पहला हफ्ता बीत गया था। आसपास, दूर-दूर सूखा ही सूखा था। सूखा राहत का काम भी शुरू हो रहा था कि अगले दिन बरसात आ गई। सात अगस्त 2012 तक सूखा। और ये लो भई आठ अगस्त से राजस्थान में राजधानी जयपुर समेत दूर-दूर बाढ़ आ गई। बाढ़ राहत की मांग उठने लगी और वह काम भी शुरू हो गया!

बरसात नहीं तो राहत, बरसात पड़े तो राहत। बेचारे इन्द्र भगवान भी हैरत में होंगे कि इन लोगों पर वर्षा करूं या नहीं। हमें शायद वर्षा के देवता की जरूरत नहीं है। अब तो हम बस राहत के देवता की पूजा करते हैं। समाज भी और सरकार भी राहत को एक अनिवार्य स्थिति की तरह मानने-बनाने में जुट गए हैं। इससे वोट की राजनीति शायद कुछ मजबूत हो जाए पर अंततः समाज तो कमजोर से कमजोर होकर टूटेगा ही।

राजस्थान में यों भी देश के अन्य कई राज्यों के मुकाबले पानी थोड़ा कम ही गिरता है। अकाल चाहे जब आते हैं। पिछले बारह साल में हमारे इलाके में हुई वर्षा को देखें तो चित्र साफ हो जाएगा। सन् 2001 से 2009 तक को देखें। सन् 2001 से 2002 तक अकाल था। फिर थोड़ा पानी जरूर गिरा पर सन् 2004 से 2009 तक फिर अकाल चला था। राजस्थान अकाल के इन वर्षों में लगभग टूट गया था।

पर इस बुरे दौर में भी जयपुर जिले की दूदू तहसील और मालपुरा तहसील के कोई पचास गांव हमारे अपने गांव लापोड़िया के साथ सिर उठाए खड़े रहे। ये टूटे नहीं थे। उस दौर में न तो हम अकाल में तड़पे और न आज सन् 2012 में आई बाढ़ में डूबे। जयपुर डूबा। देश भर के सभी टेलिविजनों ने उसे बहते हुए दिखाया। पर लापोड़िया और उस जैसा अच्छा काम कर चुके गांवों में ऐसा कुछ नहीं हुआ। हम खबरों में नहीं आए- इसे हम अपना सौभाग्य मानते हैं। उतनी वर्षा उस दिन हमारे गांवों में भी तो हुई थी। पर हम बहे नहीं। अब तो मानसून लौट गया है। दीपावली आ रही है। पर यदि लौटते-लौटते भी मानसून एक बार उतना ही पानी और गिरा जाता, तब भी हम बहते नहीं, डूबते नहीं।

वही धरती, वही आकाश, वही वर्षा। तब ऐसा क्या अंतर है कि हमारे इलाके में जयपुर डूबता है, और गांव डूबते हैं, सड़कें टूटती हैं, पुलिया, पुल उखड़ जाते हैं पर हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं होता? अंतर बस इतना ही है कि हमारा गांव कम से कम पानी के मामले में अपनी योजना खुद ही बनाता है। वह इंद्र देवता के आगमन से पहले उनके स्वागत की तैयारी बड़े आदर से करता है। हमारे गांव में तीन तालाब हैं। दो थोड़े छोटे, गांव के ही भीतर और फिर एक बहुत ही बड़ा तालाब गांव और खेतों के बीच थोड़ा बाहर की ओर। एक नाड़ी भी है। तीनधाम नाड़ी। यानी छोटा तालाब। फिर एक बहुत बड़ा गोचर भी है गांव का। वर्षा कम हो या ज्यादा हो- गांव इन तालाबों, नाड़ी और गोचर पर इंद्र देवता के आगमन की बड़ी बारीकी से तैयारी करता है।

इसे थोड़ा विस्तार से समझें। नहीं तो आप अपने गांव में इसे कैसे कर पाएंगे? हमारे इलाके के प्रायः सभी गांवों में गोचर की जमीन बहुत होती है। कहीं-कहीं एक हजार बीघा का गोचर भी मिलेगा। हमारे गांव में गोचर चार सौ बीघा में फैला है। अपने इलाके और देश के सैकड़ों, हजारों गांव की तरह हमारा यह गोचर भी कुछ साल पहले बिल्कुल उजाड़ पड़ा था। यहां-वहां और जगहों की तरह छोटे-बड़े कब्जे भी हो गए थे। लेकिन फिर कोई 12-15 साल पहले लापोड़िया गांव को अपने पैरों पर खड़े होने की एक इच्छा जगी। सबको समझा-बुझाकर कब्जे हटाए गए। टूटे-फूटे और उदास पड़े तालाबों को भी मिल-जुलकर ठीक किया। तभी लगा कि बंजर पड़े इतने विशाल गोचर का क्या किया जाए। इसे गांव के लिए फिर से कैसे हरा-भरा बनाएं।

तेज से तेज वर्षा भी लापोड़िया गांव में आकर आराम करती है। धरती के नीचे, धरती के ऊपर सब जगह धीरे-धीरे भरती है और फिर यदि अगले साल किसी कारण बरसात कम हो, अकाल जैसी परिस्थितियां हों तो भी वह यहां महसूस नहीं होती। पहले हमें लगता था कि हमारा बड़ा तालाब हमारे पुरखों ने कुछ ज्यादा बड़ा बना दिया है। यहां की औसत बरसात में यह कभी पूरा नहीं भर पाता। लेकिन पुरखों ने इसे 10-12 वर्ष में एक बार आने वाली भारी वर्षा को संभालने के लिए बनाया था। तब हमें यह सूझा कि इस विशाल गोचर में कोई एक बित्ता उंचे चौके बनाकर उन क्यारियों में इंद्र देवता का स्वागत करना चाहिए। जो पानी गिरते ही हमारे देखते-देखते विशाल गोचर से बहकर बर्वाद हो जाता है या बाढ़ वाले पानी में मिलकर बाढ़ की ताकत बढ़ाता है- उस पानी को इन चैकों में रोककर धीरे-धीरे गोचर की जमीन में भूजल को बढ़ाना चाहिए। यदि ऐसा कर सके तो गांव को अपने पशुओं के लिए इसकी नमी से ढेर सारी घास और अनगिनत पेड़ पौधे भी मिल सकेंगे। भूजल समृद्ध होने से हमारे गांव के सूखे पड़े लगभग 100 कुंए भी लबालब भरने लगेंगे।

हम छोटे-छोटे लोगों ने जैसी छोटी-छोटी योजनाएं बनाईं, हमारे बड़े देवता इंद्र ने उनको अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया। और हमें जो प्रसाद बांटा है उसका हम ठीक-ठीक वर्णन भी आपके सामने नहीं कर पाएंगे। अब हमारे गांव में खूब अच्छी बरसात आए, तो आनंद आता है, बाढ़ नहीं आती। पानी तालाबों में भरता है, विशाल गोचर में थोड़ी देर विश्राम करता है, धरती के नीचे उतरता है। नीचे से धीरे-धीरे झिरते हुए गांव के कुंओं में उतरता है। ये कुंए बस्ती में बने हैं और दूर-दूर खेतों में भी।

इन सब कोशिशों का नतीजा है कि तेज से तेज वर्षा भी हमारे गांव लापोड़िया में आकर आराम करती है। धरती के नीचे, धरती के ऊपर सब जगह धीरे-धीरे भरती है और फिर यदि अगले साल किसी कारण बरसात कम हो, अकाल जैसी परिस्थितियां हों तो भी वह यहां महसूस नहीं होती। पहले हमें लगता था कि हमारा बड़ा तालाब हमारे पुरखों ने कुछ ज्यादा बड़ा बना दिया है। यहां की औसत बरसात में यह कभी पूरा नहीं भर पाता। लेकिन पुरखों ने इसे 10-12 वर्ष में एक बार आने वाली भारी वर्षा को संभालने के लिए बनाया था। इस तरह देखें तो हमारे गांव की यह पुरानी मानी गई व्यवस्था एकदम आधुनिक है। इसमें ‘मनरेगा’, सूखा राहत, बाढ़ राहत, लघु सिंचाई मंत्रालय जैसी करोड़ों रुपयों की योजना बिना पैसा खर्च किए समा जाती हैं।

गोचर का प्रसाद भी वर्णन से परे है। विशाल गोचर में चैकड़ियां बनाकर जो नमी रोकी गई है उससे प्रकृति ने असंख्य पेड़-पौधे खुद ही लगाकर बढ़ा लिए हैं। न जाने कितनी तरह की घास, अलग-अलग पशु-पक्षियों के स्वाद और उपयोग को देखकर निकल आयी हैं। अब हमारे पशु तरह-तरह की घास और साथ ही गोचर में उगी तरह-तरह की जड़ी-बूटियों का सेवन करते हैं, उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है। वे ज्यादा स्वादिष्ट और पौष्टिक दूध हमें देते हैं। इस इलाके से जो दूध मिलता है उसकी प्रशंसा जयपुर डेरी उद्योग ने भी की है। आसपास जब अकाल पड़ा था या बाढ़ आई थी तब भी हमारे छोटे-से गांव लापोड़िया ने अपने घर परिवार में अच्छे से दूध-दही और मक्खन खाने बाद औसत 50 लाख रुपए का दूध जयपुर डेरी को दिया है।

गोचर में पनपी घास और पेड़ों के बीजों का संग्रह होता है। उन बीजों की पोटलियां और पौधे आसपास के 50 गांव में, खेतों पर, घरों में, तालाबों के किनारे और गोचरों में लगाए जाते हैं।

ये सारे काम कब और कैसे संपन्न होते हैं? हर साल देवउठनी या अनपूछी ग्यारस को हमारा गांव एक बड़ी पदयात्रा निकालता है। इसे धरती जतन यात्रा कहते हैं। हर साल इसमें नए-नए गांव अपने आप जुड़ते जाते हैं। लोग अपने खेतों से अनाज लाते हैं, कोई दूध लाता है, कोई घी। सब मिलकर भोज बनाते हैं। ये सब काम हमारी संस्था ग्राम विकास नवयुवक मंडल ने किए हैं।

अपने गांव को बचाने का यह सरल काम कभी-कभी राजनीति वाले बहुत कठिन भी बना देते हैं। हमने ये अच्छे काम कई बार अधिकारियों और नेताओं के हाथों अपमानित होने के बाद भी जारी रखे हैं। गांव ने मिल-जुलकर सबको समझा-बुझाकर सारे अतिक्रमण हटाए थे, तो आज 25 साल बाद कुछ नेताओं की शह से फिर से इक्के-दुक्के अतिक्रमण हुए हैं। इस बात से हमें पीड़ा जरूरी होती है, लेकिन हम निराश नहीं हैं। हम सबने मिलकर जो छोटे-छोटे, अच्छे-अच्छे काम किए हैं, उनसे इतना तो साबित हुआ ही है कि हम अकाल और बाढ़ से ऊपर उठ सके हैं।

Path Alias

/articles/laapaodaiyaa-gaanva-khabaraon-maen-nahain-bahaa

Post By: Hindi
×