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परंपराओं में ही है जल संकट का समाधान
Posted on 26 Jun, 2012 01:52 PM

जलसंकट का बड़ा कारण केवल बढ़ती खपत या आबादी नहीं है, हमें नई विधियों को पुरानी परंपराओं के साथ समावेश करके ही जल व्यवस्था पर मंथन करना चाहिए, जिसका मुख्य आधार वर्षा जल ही है। जलसंकट की वजह यह तो नहीं मानी जा सकती कि हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं है, क्योंकि हमारे यहां किसी भी तरह के पानी का स्रोत वर्षा ही है। और वर्षा प्रायः हर वर्ष बराबर मात्रा में होती है। फिर भी पानी का संकट है। सदियों से

water crisis
रियो : जनसंगठनों के लोगों की अनदेखी
Posted on 26 Jun, 2012 01:24 PM ब्राजील के रियो द जेनेरो में शुरू होने वाला रियो+20 पृथ्वी सम्मेलन विश्व पर्यावरण के चिंताओं से जुड़ा एक महासम्मेलन है। 1992 में पहला विश्व पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो द जेनेरो से ही शुरू हुआ था। विश्व पर्यावरण के साथ-साथ यह जन-सम्मेलन ब्राजील और भारत जैसे देशों के बहाने सरकारों के दोहरे रवैये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में बन रही नीतियों पर सवाल खड़े कर रहा है।
पहले पृथ्वी सम्मेलन से दूसरे पृथ्वी सम्मेलन तक का सफर
Posted on 26 Jun, 2012 10:16 AM पहला पृथ्वी सम्मेलन जून 1992 में हुआ था, और अब दुसरा पृथ्वी सम्मेलन जून 2012 में हुआ है। इन दोनों के बीच 20 साल का एक लंबा अंतराल रहा, पर जो मुद्दे पहले पृथ्वी सम्मेलन में उठाये गये थे वे बीस साल बाद और वयस्क होने के बजाय अभी शैश्वावस्था में ही हैं। 20 साल के सफर की व्याख्या कर रही हैं सुनीता नारायण।
रियो में भारत की बुनियादी चिंताओं पर सहमति
Posted on 26 Jun, 2012 09:24 AM रियो +20 पृथ्वी सम्मेलन में भारत ने सफलतापूर्वक अपनी बातें रखीं। जिसको कई गरीब मुल्कों का समर्थन भी मिला। हर किसी देश को विकास के समान अवसर और सुलभ संसाधन मुहैया कराने के मुद्दे पर भारत ने काफी जोरदार ढंग से अपनी बात कही। रियो के जारी घोषणापत्र में भारत की चिंताओं को काफी जगह मिली है।
रियो की राह
Posted on 25 Jun, 2012 05:23 PM इस बार यहां रियो में ओबामा नहीं आए। न यूरोपीय संघ की धुरी बनी जर्मनी की चांसलर, न ब्रिटेन के प्रधानमंत्री। सब कुछ ठंडे-ठंडे निपट गया। इसकी वजह यही है कि भारत-चीन जैसे विकासशील देश अब विपक्षी ताकत नहीं रहे। वे खुद विकास के उसी रास्ते पर हैं। कोई नया मॉडल उनके सामने नहीं है। विकसित देशों का ज्यादा विरोध करना एक अर्थ में खुद अपना विरोध करने जैसा ही हो सकता है। थोड़ा विरोध किया जाता है तो लोक-लाज क
रियो+20: प्रकृति बिकाऊ नहीं
Posted on 25 Jun, 2012 04:29 PM

इस लेख के लिखे जाने और छपने तक रियो+20 के परिणाम आ चुके होंगे। 20-22 जून को हो रहे आधिकारिक रियो+20 सम्मेलन का समापन हो चुका होगा। पर अभी से रियो+20 पृथ्वी सम्मेलन पर कुछ खतरे मंडराते दिख रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा, ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरुन का पृथ्वी सम्मेलन में भाग न लेना, कंपनी प्रतिनिधियों की प्रमुखता और अधिकृत भागीदारी लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरता सा नजर आ रहा है।

1992 में पहला पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो द जेनेरो में हुआ था। उसके ठीक 20 साल बाद रियो में दोबारा पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है। इस पृथ्वी सम्मेलन को ‘रियो+20’ कहा जा रहा है। रियो+ 20 संयुक्तराष्ट्र की वस्तुत: वैश्विक पर्यावरणीय कांफ्रेंस है। इस वार्ता से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया की सरकारें आने वाले इस रियो+ 20 में जो दस्तावेज प्रस्तुत करने जा रही हैं वह वैश्विक पर्यावरणीय विफलताओं के कारणों को जानने और दूर करने के लिए नाकाफी है। इन दस्तावेजों में इस बात का जिक्र तक नहीं है कि हम आज जिस वैश्विक पर्यावरणीय संकट से गुजर रहे हैं उसे दूर कैसे किया जाए। बल्कि कई बार तो ये दस्तावेज इस बात की मुखालफत करते ज्यादा नजर आ रहे हैं कि धरती मां को बचाने के लिए, उनके (गरीब देशों के) जल, जंगल, जमीन, हवा, जलीय जीवन आदि सभी संसाधनों के रखरखाव के लिए एक निश्चित दान तय करना होगा, विकसित देशों को अपनी आय से एक हिस्सा गरीब देशों को देना होगा। अब ये नए दस्तावेज प्रकृति को बिकाऊ बनाने की वकालत ज्यादा कर रहे हैं, उनका मानना है कि जो ज्यादा दान देगा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा उसका होगा और वही कहलाएगा धरती मां का रखवाला।

Rio+19
रियो+20 : अटकी रहीं जलवायु नियंत्रण की पुरानी योजनाएं
Posted on 25 Jun, 2012 01:35 PM

हरित कोष के मामले में अब तक यह साफ होना बाकी है कि कोष का धन कहां से आएगा। क्योतो करार के तहत राशि के संबंध में

रियो में रस्म अदायगी
Posted on 25 Jun, 2012 12:54 PM

भारतीय प्रतिरोध में इस बार पहले जैसी धार नहीं थी। इसकी वजह यही है कि भारत भी अब विकास के प्रचलित रास्ते पर ही चल

आषाढ़ : प्रकृति खिलखिलाने के बजाय अब डराती है
Posted on 21 Jun, 2012 10:50 AM आषाढ़ का महीना आते ही प्रकृति खिलखिलाने लगती है रिमझिम वर्षा की बारीश की बुंदे धरती पर पड़ते ही मिट्टी के शौंधेपन की खुशबू और कोयल की कुकू-कुकू की आवाज के साथ आषाढ़ महीने की आगाज हो जाता है और लोगों के मन में एक उल्लास पैदा हो जाता था। आषाढ़ किसानों के लिए खुशखबरी होती थी लेकिन अब ऐसा ऐसा नहीं होता है क्योंकी आषाढ़ का महीना उल्लास लाने के बजाय डराती है।
मैला प्रथा : अनदेखे भारत की तस्वीर
Posted on 19 Jun, 2012 04:05 PM भारत सरकार ने न जाने कितनी बार संकल्प लिया कि अमुक तारीख तक मैला प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा। लेकिन इस प्रथा को तब से लेकर अब तक पूरा नहीं कर पाये। जाति-व्यवस्था की बारीकी समझने की इच्छा रखने वाले अध्येता इससे लाभ उठा सकते हैं। इस किताब में जगह-जगह से लिया गया चित्र, पाठकों को भी उसके बारे में सोचने पर मजबुर कर देता है और उसके मन को अपने पास खीच लेता है।
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